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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

तीर्थ क्या हैं?

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। युधिष्ठिर का एकछत्र राज्य चारों ओर फैला हुआ था। एक दिन युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा, "भगवन् ! इतना भयंकर युद्ध हमने किया, उसमें लाखों नर-नारी मारे गये, इससे मन बड़ा दुखी और खिन्न रहता है। इसलिए तीर्थयात्रा पर जाने का विचार कर रहा हूँ।"

श्रीकष्ण ने उस समय तो कुछ नहीं कहा किन्तु उनको समझाने के लिए मन में उपाय सोच लिया और बोले, "ठीक है, आप तीर्थयात्रा कीजिए। मैं भी साथचलता, किन्तु मैं व्यस्त हूँ।आप मेरी यह तुम्बी साथ ले जाइए, जिस स्थान पर भी आप स्नान करें, एक डुबकी इसको.भी लगवा लाइये। "

धर्मराज ने तुम्बी ले लीऔर भगवान से विदा लेकर चल दिये। घर जाकर तीर्थयात्रा पर भी निकल पड़े। जैसा कि उन्होंने वचन दिया था, वह जिस किसी तीर्थ पर भी गये उन्होंने तुम्बी को भी डुबकी लगवाई और जब वापस आये तो भगवान से भेंट करने गये। उनकी तुम्बी उनको वापस करते हुए कहा, "लीजिये, यह रही आपकी पवित्र तुम्बी। मैंने प्रत्येक स्थान पर पवित्र जल में इसे स्नान कराया है।"

श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को धन्यवाद दिया और अपनी योजनानुसार उसी समय सबके सामने ही उस तुम्बी को चूरचूर करवाया और उसका चूर्ण बनवा लिया।

तुम्बी का चूर्ण बन जाने के बाद स्वयं श्रीकृष्ण ने अपने हाथों से वह चूर्ण पाण्डवों सहित उपस्थित सब लोगों को चखने के लिए दिया। लोगों ने समझा कि श्रीकृष्ण दे रहे हैं तो इसका कोई रहस्य होगा। किन्तु मुँह में डालते ही सबके मुँह कड़वे हो गये। स्वयं श्रीकृष्ण ने भी थोड़ा चूर्ण अपने मुँह में डाला और उसकी कड़वाहट अनुभव करके बोले, "यह तुम्बी भारत-भर की समस्त नदियों और पवित्र सरोवरों में स्नान करा कर लाई गयी है, अतः मैं सोचता था कि अत्यन्त पवित्र हो गयी होगी। किन्तु मैं देख रहा हूँ कि इसकी कड़वाहट जरा सी भी कम नहीं हुई है। आश्चर्य! इतनी पवित्र करवाने के बाद भी यह तुम्बी मीठी नहीं हुई। तब तो लगता है कि हमारा कड़वापन और मन की अशान्ति भी तीर्थ पर जाने से दूर नहीं हो सकती।

"हे पाण्डुपुत्र ! अपनी जिस आत्मारूपी नदी में संयमरूप जल, सत्यरूप प्रवाह, दयारूप तरंगें और शील रूप कगार हैं, उसी में स्नान करो। बाहरी सरिताओं के जल से कभी अन्तरात्मा शुद्ध, पवित्र नहीं हो सकती।"

युधिष्ठिर अब तुम्बी का रहस्य समझे और मन की शान्ति के लिए उन्होंने वही उपाय किया जिसका व्याख्यान श्रीकृष्ण ने दिया था।  

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