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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

भाईचारा

जब 1880 में कलकत्ता में महामारी का भयंकर प्रकोप हुआ था तो ब्रिटिश सरकार को लोगों की कोई चिन्ता नहीं थी, हजारों लोग रोज महामारी के शिकार हो रहे थे। औषधि और इलाज का कोई ठिकाना नहीं था। मनुष्य निरीह हो गया था।

ऐसे में एक दिन ईश्वरचन्द्र विद्यासागर सुबह महाविद्यालय जाने के लिए घर से निकले। रास्ते में एक वृक्ष के पास उन्हें एक व्यक्ति पड़ा हुआ दिखाई दिया। वह जमादार लग रहा था क्योंकि उसके समीप ही उसकी झाड़ू आदि पड़ी हुई थी। वह कष्ट से छटपटा रहा था। मार्ग पर अन्य लोग भी आ-जा रहे थे, किन्तु देखकर भी अनदेखा कर रहे थे।

विद्यासागर ने जब यह देखा तो वे उसके पास गये। उन्होंने जाँचा-परखा तो पता चला कि उसे तेज बुखार है। वह अर्द्ध-मूर्छित अवस्था में था और न कुछ बोल पा रहा था और न कुछ सुन ही पा रहा था। उसकी आँखें भी मुँदी हुई थीं।

ईश्वर की कृपा से विद्यासागर का शरीर कुछ बलिष्ठ था और छुआछूत का विचार उन्हें स्पर्श तक नहीं कर पाया था। उन्होंने उस जमादार को अपनी पीठ पर लादा और सीधे अपने घर ले गये। अस्पतालों में तो कोई देख-रेख हो नहीं पा रही थी। घर लाकर उसके वस्त्र बदलकर उसे अपने वस्त्र पहनाये और स्वच्छ बिस्तर पर उसको लिटा दिया। उसके बाद उन्होंने अपने पारिवारिक डाक्टर को बुलाने के लिए नौकर को कहा। डाक्टर ने आकर अपना काम किया और चला गया। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को टोकने का साहस किसी को नहीं होता था किन्तु घर का कोई अन्य व्यक्ति उस जमादार की सेवा में उनकी कोई सहायता नहीं करता था, वह स्वयं ही उसकी सेवा कर रहे थे।

मनुष्य का स्वभाव भी विचित्र है। आस-पड़ोस के लोगों को भय सताने लगा क्यों कि उनके पड़ोस में महामारी का रोगी बसा दिया गया था। उन्होंने कानाफूसी आरम्भ कर दी। वे उसके विषय में पूछने लगे कि कौन है, कहाँ से आया है, क्या काम करता है आदि?

विद्यासागर कहते, यह मेरा भाई है, नगर के बाहरी भाग में रहता है। मैं और ये, हम दोनों एक ही काम करते हैं, यह बाहरी सफाई का काम करता है, मैं भीतरी सफाई का काम करता हूँ।

पड़ोसियों और जात-बिरादरी के लोगों ने विद्यासागर को बहुत समझाया और न समझने पर उन्हें डराया-धमकाया भी किन्तु ईश्वरचन्द्र उसको बाहर निकालने को राजी नहीं हुए। पन्द्रह दिन उसे स्वस्थ होने में लगे, फिर वह अपने घर चला गया।

जाते समय ईश्वरचन्द्र ने उससे कहा, "अब कभी कोई अड़चन आये तो मुझे निस्संकोच बताना। मैं तुम्हारा भाई हूँ।"

ईश्वरचन्द्र ने यह भाईचारा उसके साथ आजन्म निभाया।

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