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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

आत्मज्ञान

शुकदेव जी के पिता श्री वेदव्यास जी अपने पुत्र को आत्मज्ञानी बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए उनको मिथिला नगरी में विदेहराज जनक की सेवा में भेजा। शुकदेव जी ने वहाँ की भव्यता को देखा। पर उनके मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ। वह भवन की पहली ड्योढी पर पहुँचे। उस समय द्वारपालों ने उन्हें वहीं धूप में रोक दिया। न बैठने को कहा न कोई बात पूछी। वे तनिक भी खिन्न न होकर वहीं धूप में खड़े हो गये। तीन दिन बीत गये। चौथे दिन उन्हें एक द्वारपाल ने सम्मानपूर्वक दूसरी ड्योढ़ी पर ठंडी छाया में पहुँचा दिया। वह वहीं आत्मचिन्तन करने लगे। उन्हें न तो धूप और अपमान से कोई क्लेश हुआ और न ठंडी छाया तथा सम्मान से कोई सुख हुआ।

इसके बाद राजमन्त्री ने आकर उनको सम्मान के साथ सुन्दर प्रमदावन में पहुँचा दिया। वहाँ पचास नवयुवतियों ने उन्हें भोजन कराया और उन्हें साथ लेकर हँसती, खेलती, गाती और नाना प्रकार की चेष्टा करती हुई प्रमदावन की शोभा दिखाने लगीं। रात होने पर उन्होंने शुकदेव जी को सुन्दर पलंग पर बहुमूल्य बिछौने बिछा कर बैठा दिया। वे पैर धोकर रात के पहले पहर में ध्यान करने लगे। रात्रि के मध्य भाग में सोये और चौथे पहर में उठ कर फिर ध्यान करने लगे। ध्यान के समय भी पचासों युवतियाँ उन्हें घेर कर बैठ गयीं। परन्तु वे किसी प्रकार भी शुकदेव जी के मन में कोई विकार पैदा नहीं कर सकीं।

इतना होने पर दूसरे दिन महाराज जनक ने आकर उनकी पूजा की और ऊँचे आसन पर बैठा कर अर्घ्य और गोदान आदि से उनका सम्मान किया। फिर स्वयं आज्ञा लेकर धरती पर बैठ गये और उनसे बातचीत करने लगे।

बातचीत के अन्त में जनक जी ने कहा, "आप सुख-दुःख, लोभ-क्षोभ, नाच गान, भय-भेद, सब से मुक्त परम ज्ञानी हैं। फिर भी आप अपने ज्ञान में कमी मानते हैं, इतनी ही कमी है। आप परम ज्ञानी होकर भी अपना प्रभाव नहीं जानते।" जनक जी के बोध से शुकदेव जी को वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया।

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