नई पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह
विपत्ति का मूल कारण
किसी समय तुंगभद्रा नदी के किनारे एक नगर था जहाँ आत्मदेव नाम के एक सदाचारी कर्मनिष्ठ ब्राह्मण रहते थे। उनकी पत्नी का नाम था धुन्धुली। वह सत्कुलोत्पन्न सुन्दरी थी और घर का काम-काज करने में निपुण थी। किन्तु बहुत बोलने वाली, कृपण, कलहप्रिय और दूसरों के झगड़ों में आनन्द लेने वाली थी। आत्मदेव अपनी पत्नी के साथ सन्तुष्ट थे, किन्तु इस बात का बड़ा दुःख था कि उनके कोई सन्तान नहीं थी। अन्त में दुःखी होकर उन्होंने देहत्याग का निश्चय कर लिया और एक दिन चुपचाप वन में चले गये। वन में प्यास लगने पर एक सरोवर से जल पीकर वे बैठे ही थे कि वहाँ एक संन्यासी आ गये। उन्हें जल पीकर बैठे देख ब्राह्मण आत्मदेव उनके समीप पहुँचे और उनके चरणों में सिर रख कर फूट-फूट कर रोने लगे।
संन्यासी महात्मा के पूछने पर आत्मदेव ने अपने कष्ट की बात बताई और पुत्र-प्राप्ति का उपाय पूछा। संन्यासी ने योगबल से उनकी भाग्य रेखा देख कर बताया, "तुम्हारे प्रारब्ध में सात जन्मों तक पुत्र नहीं है। पुत्र-प्राप्ति के मोह को छोड़ दो। यह मोह अज्ञान से ही है। देखो, पुत्र के कारण महाराज सगर और राजा अंग को भी अत्यन्त दुःख भोगना पड़ा है। सुख तो मोह को छोड़ कर भगवान का भजन करने में ही है।"
परन्तु ब्राह्मण तो सन्तान की इच्छा से मोहान्ध हो रहे थे। उन्होंने कहा, "यदि आपने पुत्र-प्राप्ति का उपाय न बताया तो मैं यहीं आपके सामने प्राण त्याग दूंगा।"
अन्त में विवश होकर महात्मा ने ब्राह्मण को एक फल देकर कहा, "क्या किया जाय, तुम्हारा दुराग्रह बड़ा बलवान है, किन्तु पुत्र से तुम्हें सुख नहीं होगा क्योंकि प्रारब्ध के विपरीत हठ करने से कष्ट ही होता है। फिर भी यह फल ले जाकर अपनी पत्नी को खिला दो, इससे उसे पुत्र होगा। यदि तुम्हारी पत्नी एक वर्ष तक सत्य बोले, पवित्रतापूर्वक रहे, जीवों पर दया करे, दीनों को दान दे, और केवल एक समय भोजन करे तो पुत्र धार्मिक होगा।"
महात्मा फल देकर चले गये और ब्राह्मण ने घर आकर फल अपनी पत्नी को दे दिया। आत्मदेव की पत्नी भी अद्भुत ही थी। उसने वह फल खाया नहीं, उलटे अपनी सखी के सामने रोने लगी, "सखी! यदि मैं फल खा लूँ तो गर्भवती हो जाऊँगी, उससे मेरा पेट बढ़ जायेगा, भूख कम हो जायेगी, मैं दुर्बल हो जाऊँगी, फिर घर का कार्य कैसे होगा। कदाचित गाँव में डाकू आ गये तो गर्भिणी होने से मैं कैसे भाग पाऊँगी। कहीं गर्भस्थ शिशु टेढ़ा हो गया तो मेरी मृत्यु ही आ जायेगी। सुना है प्रसव में भी महान् कष्ट होता है। मैं सुकुमारी उसे कैसे सहन कर सकूँगी। मेरे असमर्थ होने पर मेरी ननद मेरा सर्वस्व चुरा लेगी। सत्य, शौचादि नियमों का पालन करना भी मेरे लिए कठिन है। पुत्र के लालन-पालन में भी स्त्री को बड़ा दुःख होता है। मेरी समझ से तो वन्ध्या या विधवा स्त्री ही सुखी है।" इस प्रकार कुतर्क करके ब्राह्मण पत्नी ने फल नहीं खाया।
कुछ दिनों बाद ब्राह्मण पत्नी की छोटी बहन उसके पास आयी। ब्राह्मणी ने सब बातें उसे बता कर कहा, "बहन! ऐसी दशा में मैं क्या करूँ?"
उसकी बहन ने कहा, "चिन्ता मत करो, मैं गर्भवती हूँ, बच्चा होने पर उसे तुम्हें दे दूंगी। तुम मेरे पति को धन दे देना, वे तुम्हें बालक दे देंगे। तब तक तुम गर्भवती के समान घर में गुप्त रूप से रहो। लोगों में मैं प्रसिद्ध कर दूंगी कि छः मास का होकर मेरा पुत्र मर गया। तुम्हारे घर प्रतिदिन आकर मैं तुम्हारे पुत्र का पालन-पोषण कर दूंगी। यह फल तो परीक्षा के लिए गाय को दे दो।"
ब्राह्मण पत्नी ने फल गाय को दे दिया और पति से कह दिया कि उसने फल खा लिया है। समय पर उसकी बहन को पुत्र हुआ। गुप्त रूप से उस बहन के पति ने बालक लाकर ब्राह्मणी को दे दिया। ब्राह्मणी ने पति को बताया, "बड़ी सरलता से पुत्र हो गया।"
ब्राह्मण के आनन्द का पारावार नहीं था। बड़ी धूमधाम से पुत्रोत्सव मनाया जाने लगा। ब्राह्मण ने उस बालक का नाम माता के नाम पर धुन्धकारी रखा।
कुछ दिनों बाद गाय ने भी एक मानव-शिशु को जन्म दिया। लोगों को इससे बड़ा कुतूहल हुआ। बालक बहुत ही सुन्दर, तेजस्वी था किन्तु उसके कान गाय के समान थे। ब्राह्मण ने उस बालक के भी संस्कार कराये और उसका नाम गोकर्ण रखा।
बड़ा होने पर बालक गोकर्ण तो विनम्र, सदाचारी, विद्वान और धार्मिक हुआ किन्तु धुन्धकारी महान् दुष्ट हुआ। शुद्धता, पवित्रता से वह दूर रहता। वह अत्यन्त क्रोधी था, बाएँ हाथ से भोजन करता था, चोर था, सबसे अकारण द्वेष रखता था, छोटे बच्चों को उठा कर कुएँ में फेंक देता था, हाथ में सदा शस्त्र रखता था, दीनों तथा अन्धों को सदा पीड़ा देता रहता था, चाण्डालों के साथ हाथ में रस्सी और साथ में कुत्ते लिये घूमा करता था। वेश्यागामी बन कर उसने सब पैतृक सम्पत्ति नष्ट कर दी और माता-पिता को पीटकर घर के बर्तन भी बेचने को ले जाने लगा।
आत्मदेव को पुत्र के उत्पात का दुःख असह्य हो गया। वे दुःखी होकर आत्मघात करने को तैयार हो गये। परन्तु गोकर्ण ने उन्हें समझाया कि यह संसार ही असार है, यहाँ सुख कहाँ है। सुख तो भगवान का भजन करने में ही है।
गोकर्ण के उपदेश को स्वीकार कर आत्मदेव वन में चले गये। भगवदभक्ति में मन लगाया, इससे अन्त में उन्हें भगवत लोक की प्राप्ति हुई। इधर घर में धुन्धकारी ने माता को नित्य पीटना आरम्भ किया कि 'धन कहाँ छिपा कर रखा है, बता।' नित्य की मार से व्याकुल होकर ब्राह्मणी ने कुएँ में कूद कर आत्महत्या कर ली। स्वभाव से विरक्त गोकर्ण तीर्थयात्रा करने चला गया। अब तो धुन्धकारी को स्वतन्त्रता मिल गयी। पाँच वेश्याएँ उसने घर में ही टिका दीं। चोरी, डकैती, जुआ आदि से उनका पालन-पोषण करने लगा।
अपने कुकर्मों से धुन्धकारी ने बहुत-सा धन एकत्रित कर लिया। धन देखकर वेश्याओं के मन में लोभ आया। उन्होंने परस्पर परामर्श करके एक रात में धुन्धकारी को रस्सों से बाँध दिया और उसके मुख में जलते अंगार रख कर उसे मार डाला। फिर उसका शव गड्ढा खोद कर गाड़ दिया और सारा धन लेकर घर से चली गयीं।
मर कर धुन्धकारी प्रेत हुआ। तीर्थयात्रा करके जब गोकर्ण लौटा और रात्रि में अपने घर में सोया तब नाना वेशों में प्रेत बना धुन्धकारी उसे डराने का प्रयत्न करने लगा। गोकर्ण की कृपा से वह बोलने में समर्थ हुआ, उसके मुख से उसकी दुर्गति का वृत्तांत जानकर गोकर्ण ने उसे इस दुर्दशा से मुक्त करने का वचन दिया और अन्त में उसे भागवत् कथा सुना कर प्रेतयोनि से मुक्त कराया।
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