नई पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह
यह सच है या वह सच
मिथिला नरेश महाराज जनक अपने राजभवन में शयन कर रहे थे। निद्रा में उन्होंने एक अद्भुत स्वप्न देखा कि मिथिला पर किसी शत्रु राजा ने आक्रमण कर दिया है। उसकी सेना ने नगर को घेर लिया है और उसके साथ भयंकर संग्राम छिड़ गया है। मिथिला की सेना पराजित हो गयी है और महाराज जनक बन्दी हो गये हैं। विजयी शत्रु ने आज्ञा दे दी है-"मैं तुम्हारे प्राण नहीं लूँगा किन्तु अपने सब वस्त्राभूषण उतार दो और इस राज्य से निकल जाओ।"
उस नरेश ने घोषणा करा दी है-"जनक को जो आश्रय या भोजन देगा, उसे प्राणदण्ड दिया जायेगा।"
राजा जनक ने वस्त्राभूषण उतार दिये। केवल एक छोटा वस्त्र कमर में लपेटे वे राजभवन से निकल पड़े। उन्हें राज्य की सीमा से बाहर तक पैदल ही जाना पड़ा। प्राण-भय से कोई उनसे बोला तक नहीं। चलते-चलते उनके पैरों में छाले पड़ गये। वृक्ष के नीचे बैठ जाएँ या भूखे सो रहें, कई दिनों से अन्न का एक दाना भी पेट में नहीं गया।कोई भी अपने द्वार पर उनके खड़े होने तक से डरता था।
जनक अब राजा नहीं थे। बिखरे केश, धूलि से भरा शरीर, भूख से व्याकुल जनक एक भिक्षुक जैसे थे। राज्य से बाहर एक नगर मिला। पता लगा कि वहाँ कोई अन्न क्षेत्र है और उसमें भूखों को खिचड़ी दी जाती है। बड़ी आशा से जनक वहाँ पहुँचे, किन्तु खिचड़ी बँट चुकी थी। बाँटने वाला द्वार बन्द करने जा रहा था। भूख से चक्कर खाकर जनक बैठ गये और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। अन्न बाँटने वाले कर्मचारी को उनकी दशा पर दया आ गयी। उसने कहा, "खिचड़ी तो है नहीं, किन्तु बर्तन में उसकी कुछ खुरचन लगी है। तुम कहो तो वह तुम्हें दे दूँ लेकिन उसमें जलने की गन्ध आ रही है।"
जनक को तो यही वरदान जैसा जान पड़ा। उन्होंने दोनों हाथ फैला दिये। कर्मचारीने जली हुई खिचड़ी की खुरचन उनके हाथ पर रख दी। तभी एक चील ने उनके हाथ पर झपट्टा मार दिया। उसके पंजे लगने से जनक का हाथ ऐसा हिला किसारी खुरचन कीचड़ में गिर गयी। व्यथा के मारे जनक चिल्ला पड़े।
यहाँ तक तो स्वप्न था। किन्तु निद्रा में जनक सचमुच चिल्ला पड़े थे। चिल्लाने से उनकी निद्रा तो टूट ही गयी। उनके पास रानियाँ, सेवक, सेविकाएँ दौड़ आयीं, कि महाराज को क्या हो गया।
महाराज जनक अब आँख फाड़-फाड़ कर चारों ओर देखते हैं। वे अपने सुसज्जित शयन-कक्ष में स्वर्ण के पलंग पर कोमल शय्या पर लेटे हैं। उन्हें भूख तो है ही नहीं। रानियाँ समीप खड़ी हैं। सेवक-सेविकाएँ सेवा में प्रस्तुत हैं। वे अब भी मिथिला नरेश हैं। यह सब देख कर जनक बोले, "वह सच या यह सच?"
रानियाँ चिन्तित हो गयीं। मन्त्रियों की व्याकुलता बढ़ गयी कि महाराज जनक पागल तो नहीं हो गये। वे न किसी से कुछ कहते थे, न किसी के प्रश्न का उत्तर देते थे। उनके सम्मुख जो भी जाता था उससे एक ही प्रश्न वे करते थे- 'वह सच या यह सच।'
चिकित्सक आये, मन्त्रज्ञाता आये, और भी जाने कौन-कौन आये, किन्तु महाराज की दशा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। अचानक एक दिन ऋषि अष्टावक्र मिथिला पधारे। उन्होंने मन्त्रियों को आश्वासन दिया और वह महाराज जनक के पास गये। जनक ने उनसे भी वही प्रश्न किया। अष्टावक्र जी ने ध्यान करके प्रश्न के कारण का पता लगा लिया।
अष्टावक्र जी ने पूछा, "महाराज! जब आप कटि खण्ड में एक वस्त्र लपेटे अन्न-क्षेत्र के द्वार पर भिक्षुक के वेश में दोनों हाथ फैलाये खड़े थे और आपकी हथेली पर खिचड़ी की जली खुरचन रखी गयी थी, उस समय यह राजभवन, आपका वह राजवेश, ये रानियाँ, राजमन्त्री, सेवक-सेविकायें थीं?"
महाराज जनक बोले, "भगवन् ! ये कोई उस समय नहीं थे। उस समय तो विपत्ति का मारा मैं एकाकी था।"
"और राजन! जागने पर जब आप इस राजवेश में राजभवन में पलंग पर आसीन थे, तब वह अन्न-क्षेत्र, उसका वह कर्मचारी, वह आपका कंगाल वेश, वह जली खिचड़ी की खुरचन और वह आपकी क्षुधा थी?"।
"भगवन् ! बिलकुल नहीं, वह कुछ भी नहीं था।"
"राजन् ! जो एक काल में रहे और दूसरे काल में न रहे, वह सत्य नहीं होता। आपके जाग्रत में इस समय वह स्वप्न की अवस्था नहीं है, इसलिए वह सच नहीं, और स्वप्न के समय यह अवस्था नहीं थी, इसलिए यह भी सच नहीं है। न यह सच न वह सच।"
"भगवन् ! तब सच क्या है?"
"राजन्! जब आप भूखे अन्न क्षेत्र के द्वार पर हाथ फैलाये खड़े थे, तब वहाँ आप तो थे?"
"हाँ भगवन् ! मैं तो वहाँ था।"
"और राजन्! इस राजभवन में इस समय आप हैं?"
" जी भगवन्! मैं तो यहाँ हूँ।"
"राजन्! जाग्रत में, स्वप्न में और सुषुप्ति के साक्षी रूप में आप रहते हैं। अवस्थाएँ बदलती हैं, किन्तु उनमें उन अवस्थाओं को देखने वाले आप नहीं बदलते। अतः आप ही सच हैं, केवल आत्मा ही सत्य है।"
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