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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

लोभ-लालच

प्राचीन काल में संजय नाम के एक नरेश हुए हैं। नरेश के कोई पुत्र नहीं था। केवल एक कन्या थी। पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से उन्होंने साधना आरम्भ की। साधना कर रहे थे कि नारद जी आ उपस्थित हुए। वे अन्तर्यामी थे, राजा से पूछा, "तुम किस प्रकार का पुत्र चाहते हो?"

प्रश्न सुन कर राजा के मन में लोभ आ गया। कुछ विचार किया और फिर अपनी विचित्र माँग प्रस्तुत करते हुए कहा, "मुनिवर! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसा पुत्र प्रदान कीजिए जो स्वस्थ हो, गुणवान हो तथा उसके मल-मूत्र और थूक, कफ आदि सब स्वर्णमय हों।"

देवर्षि ने कुछ क्षण इस माँग पर विचार किया और फिर 'एवमस्तु' कह दिया। राजा को वर मिल गया और नारद जी का वरदान था, वह यथासमय फलीभूत भी हो गया। राजा के घर पर पुत्र ने जन्म लिया।

पुत्र-जन्म पर उत्सव मनाया गया और जन्म के दिन से ही राजप्रासाद में एक प्रकार से स्वर्ण का आगमन आरम्भ हो गया। पुत्र के मल-मूत्र के रूप में स्वर्ण ही स्वर्ण आ रहा था। समय निकलता रहा और राजप्रासाद को राजा ने स्वर्ण मण्डित करवा लिया। राजप्रासाद के खम्भे, भित्तियाँ, तल भाग और छत का भाग सभी स्वर्ण मण्डित थे।

राजा के भवन में पुत्रोत्पत्ति का समाचार सारे संसार में फैल गया और उसके साथ ही पुत्र की विशेषतां भी प्रचारित हो गयी। डाकुओं को यह समाचार मिला तो उनके गिरोह परस्पर मन्त्रणा करने लगे। उनमें यह मन्त्रणा होने लगी कि किस प्रकार राजकुमार का हरण किया जा सकता है। बहुत सोच-विचार के बाद उन्होंने योजना बनाई औऱ एक रात राजप्रासाद में घुस कर उन्होंने राजकुमार का अपहरण कर ही लिया। बीहड़ जंगल में पहुँचकर डाकुओं में परस्पर विवाद होने लगा। अधिकसमय तक राजकुमार को छिपाये रखना भी उनके लिए कठिन सिद्ध हो रहा था।

बहुत सोच-विचार के उपरान्त डाकुओं ने निश्चय किया कि राजकुमार की हत्या कर दी जाय और पेट से जितना भी स्वर्ण निकलता है, उसको परस्पर बाँट कर इस अभियान का अन्त कर दिया जाय।

अपने निश्चयानुसार डाकुओं ने राजकुमार का गला घोंट कर उसकी हत्या कर दी। योजनानुसार राजकुमार का शरीर चीरा गया किन्तु वहाँ तो कहीं कण मात्र भी सोना नहीं दिखाई दिया। डाकू देख कर पश्चाताप करने लगे। अपहरण और हत्या का पाप एवं अपराध भी किया किन्तु पल्ले कुछ नहीं पड़ा।

साधनारत राजा में जब लोभ का जागरण हुआ था तो ऐसे पुत्र का वरदान माँग बैठा, जिसकी वह रक्षा नहीं कर सका। अन्त में अपनी पूर्व स्थिति पर आ गया और पुत्र शोक भी सहना पड़ा।

लोभ के वशीभूत होकर ही डाकुओं ने राजकुमार के अपहरण और फिर उसकी हत्या का पाप किया। उससे वे केवल पाप के ही भागी बने, मिला उन्हें भी कुछ नहीं।

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