नई पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह
सदाचार
पुराण काल की घटना है। दशार्ण देश के राजा बज्रबाहु की रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्रोत्पत्ति के बाद से ही माँ और पुत्र दोनों रोगग्रस्त रहने लगे। राजा ने सब प्रकार से दोनों की चिकित्सा करवाई किन्तु सब व्यर्थ। राजा खीझ गया और उसने माता-पुत्र को राजमहल से ही निकाल दिया।
बड़ी असहायावस्था में रानी सुमति इधर-उधर भटक रही थीं।किसी सदाचारी वणिक ने उनको अपने घर में आश्रय दे दिया। सुमति का यह सौभाग्य ही था कि उस वणिक के गुरु शिवयोगी ऋषभ थे, जिन्हें शिव की सिद्धि प्राप्त थी।
शिवयोगी ने भी उन दोनों, रानी सुमति और राजकुमार भद्रायु की यथासम्भव चिकित्सा की किन्तु उनकी चिकित्सा भी निष्फल सिद्ध हुई। एक दिन तो ऐसा लगने लगा कि कुमार भद्रायु की इहलीला पूर्ण हो रही है।
कुमार को मृत जान रानी ने विलाप करना आरम्भ किया। संयोग से उसी समय शिवयोगी वहाँ आ निकले। उन्होंने रानी के विलाप का कारण जानना चाहा
और जब उन्हें विदित हुआ कि पुत्र की अकाल मृत्यु के दुःख से दुःखी होकर रानी विलाप कर रही है तो योगी महाराज ने अनेक प्रकार से उसे सान्त्वना देने का यत्न किया-शरीर तो सबका ही नाशवान है। पानी के बुलबुले के समान है। एक दिन सबको ही जाना पड़ता है आदि।। रानी पर जब इस प्रकार के उपदेश का कोई प्रभाव नहीं हुआ तो योगी महाराज ने उसे सुझाव दिया कि यदि वह शिव की आराधना करे तो सम्भव है उसका दुःख दूर हो जाय। रानी विलाप करती हुई बोली, "अब मेरी इच्छा जीवित रहने की नहीं है, मैं चाहती हूँ कि मेरा भी प्राणान्त हो जाय। ऐसे अवसर पर मुझे योगिराज के दर्शन हो गये, यह मेरे सौभाग्य का प्रतीक है, इससे बढ़ कर सौभाग्य अब मुझे नहीं चाहिए।"
रानी की बात सुन कर योगी जी अभिभूत हो गये। उन्होंने मृतप्राय बालकके शरीर पर से वस्त्र हटाया और अनेक प्रकार से उसकी परीक्षा करते रहे। उनको लगा कि मामला सम्भल सकता है। किसी प्रकार उपचार कर उन्होंने बालक को सचेत करने का यत्न किया और बालक सचेत हो गया। समय निकलता रहा और बालक पूर्णतया स्वस्थ एवं निरोग हो गया। सबको बड़ी प्रसन्नता हुई।
योगी ने एक दिन कहा, "सौभाग्य से यह बालक बच गया है। इसका भली प्रकार लालन-पालन करो। अब आयु-पर्यन्त इसको कोई रोग नहीं होगा। इतना ही नहीं, अपितु यथासमय यह अपना राज्य भी प्राप्त कर लेगा।"
योगी विदा हुए। भद्रायु वणिक पुत्र सुनय के साथ खेलने और पढ़ने लगा। रानी तप-साधना में लीन रहने लगी। जब दोनों बालक सोलह वर्ष की आयु के हुए तो एक दिन योगिराज सहसा फिर प्रकट हो गये। रानी के अनुनय-विनय करने पर उन्होंने दोनों बालकों की उचित शिक्षा का प्रबन्ध करवा दिया। उन्हें विद्या पारंगत कर योगिराज फिर चले गये।
अपनी रानी को राजभवन से निकाल कर राजा भद्रबाहु और भी स्वच्छन्द हो गया। उसने अनेक देशों की राजकुमारियों से विवाह रचा कर उन्हें अपनी रानी बनाया। किन्तु किसी के भी सन्तान नहीं हुई। एक समय ऐसा आया कि शत्रु देश ने दशार्ण देश पर आक्रमण करके बज्रबाहु को पराजित कर दिया। उसे बन्दी बना लिया गया।
भद्रायु को जब अपने पिता के पराजित होने और उनके बन्दी बनाये जाने की सूचना मिली तो उसने शत्रु देश पर आक्रमण कर अपने बन्दी पिता को उसके बन्धन से मुक्त करा लिया और शत्रु को पराजित कर अपने पिता को पुनः उनके सिंहासन पर आरूढ़ कर दिया। शत्रु देश को अपने अधीन कर लिया।
यह सब देख कर बज्रबाहु को अपने पूर्व कत्य पर बडा पश्चाताप होने लगा। उसने देखा कि उस रानी के पुत्र ने ही उसकी तथा उसके राज्य की रक्षा की है, जिसको उसने मृतक समान जानकर राजप्रासाद से निकाल दिया था।
माँ-पुत्र का सदाचरण सफल हुआ। उनके सदाचार के प्रताप से दुराचारी राजा भी अपने खोये हुए राज्य का पुनः शासक बन गया था।
कुछ समय बाद बज्रबाहु ने अपना सारा राजपाट अपने पुत्र भद्रायु को सौंप दिया और महारानी सुमति को साथ लेकर वह स्वयं वन की ओर प्रस्थान कर गया।
रानी सुमति को भी अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त हो गयी थी।
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