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पलायन

वैभव कुमार सक्सेना

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15417
आईएसबीएन :9781613016800

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गुजरात में कार्यरत एक बिहारी मजदूर की कहानी

2

आखिर माँ तो माँ होती है माँ की मात्रा में ही मालूम होता है जैसे कोई बच्चा किसी ममता की गोद में बैठा हो। अमरकांत ने दीवाली पर तो माँ को समझा लिया था अब और नहीं समझा सकता था।

माह था दिसंबर का। अमरकांत छुट्टी की बात करने साहब के पास पहुँचा।

अमरकांत ने हठ करते हुए कहा- "हमें तो दिसंबर के आखिरी सप्ताह में ही छुट्टियां चाहिए।"

साहब ने बोला- "नहीं भाई में तो छुट्टियां बिल्कुल नहीं दे सकता कंपनी में बहुत सारा काम है। कौन देखेगा?”

अमरकांत ने शांत स्वर में कहा- "सर मैं ही अकेला तो छुट्टी ले रहा हूँ बाकी सब साथी लोग तो हैं, देख लेंगे।"

साहब तुरंत बोले- "नहीं नहीं, विवेक और नवनीत भी तो छुट्टी पर हैं तुम्हें छुट्टी कैसे दे सकता हूँ. तुम जनवरी में ले लेना।"

अमरकांत का मन जहन उठा और बोला- "नहीं नहीं ! सर जब जरूरत होती है तभी तो लूंगा जनवरी में मुझे नहीं चाहिए। मुझे दिसंबर में ही चाहिये। आपने त्योहारों पर भी मुझे छुट्टियां नहीं दीं। यह दिवाली मैंने अहमदाबाद में ही मनाई और आपने नवनीत विवेक को दे दी थी।"

साहब इठलाते हुए बोले- "अरे उनका परिवार है, बीबी है, बच्चे हैं उनके साथ दिवाली मनाने दो। तुम्हारी तो अभी शादी भी नहीं हुई तुम्हारी शादी हो जायेगी तो तुम्हें भी दे देंगे।"

अमरकांत ने निर्मल शब्दों में कहा – "साहब! मेरी शादी नहीं हुई तो क्या हुआ, मैं भी तो किसी का बेटा हूँ, मेरे भी तो माँ-बाप हैं। पिछले तीन वर्षों से मैंने दिवाली घर पर नहीं मनाई। मेरी माँ हर बार इस बात का दुख करती है।"

साहब बोले- "ठीक है ! अभी तो मैं कोई छुट्टी नहीं दे सकता बाकी तुम्हारी मर्जी। मुझे बहुत काम है, तुम जा सकते हो।"

अमरकांत निराश मन लेकर गुस्से में साहब के दफ्तर से बाहर आया। एक पल मन में वापस मुड़ने का ख्याल आया क्यों न साहब को बोल दूँ ठीक है जनवरी में चला जाऊंगा। वहीं दूसरे पल ख्याल आता है कि मेरे पिताजी ठहरे सरकारी स्कूल के मास्टर उनको जब सरकार छुट्टी देगी तभी लेंगे वरना वो तो जनवरी को छुट्टी कतई न लेंगे और उनके आदर्शों के बीच में भला मैं कैसे आ सकता हूँ और सरकार तो ठहरी नहीं जो दिसंबर की छुट्टियों को जनवरी में कर दे।

अमरकांत छुट्टियां लेकर पिताजी के साथ घूमने जाना चाहता था। अमरकांत अच्छी तरह जानता था बिना पिताजी के घूमने में न माँ का मन लगेगा न भाई का और न मेरा।

अमरकांत के मन में कई तरह के विचार आ रहे थे। क्यों ना वह पिताजी की सलाह पर सरकारी नौकरी ही कर लेता? प्राइवेट सेक्टर में तो छुट्टियों को लेकर बड़ा रोना है। जैसे हम बंदी हों किसी सिस्टम के, विचार करते-करते अमरकांत नवनीत के पास पहुँचता है।

नवनीत बड़ी खुशी से उसको अपनी भविष्य की यात्रा सुनाता है। उसकी भविष्य यात्रा सुनकर अमरकांत को महसूस होता है जैसे वह स्वयं ही किसी यात्रा पर हो। नवनीत बताता है कि वह किस तरह मैसूर के राजमहल को देखकर चामुंडी पहाड़ी से होकर नीलगिरी की पहाड़ी मतलब ऊटी पहुँचेगा। ऊटी से फिर वह केरल को रवाना हो जाएगा जहां पर वह अलेप्पी पहुँचकर हाउस बोट्स का आनंद लेंगे। यात्रा को लेकर वह काफी उत्साहित था।

तभी नवनीत के पास अचानक फोन आता है - कोयंबटूर एक्सप्रेस भीषण कोहरे के कारण रद्द कर दी गई है। नवनीत ने फोन कर घर पर ट्रेन रद्द होने की सारी बात बताई तभी उसने दूसरी किसी जगह जाने की बात कही। उसकी पत्नी ने बोला कि बच्चों की तबीयत ठीक नहीं है और बच्चों की पढ़ाई का आखिरी समय चल रहा है। बच्चों की पढ़ाई पर बहुत ध्यान देना होगा। हम कहीं नहीं चल रहे हैं।

दूसरे दिन ही नवनीत ने साहब के पास जाकर अपनी छुट्टियां खारिज करा लीं। नवनीत का साहब के दफ्तर से बाहर निकलते ही क्लर्क तिनका ने अमरकांत को आवाज लगाई, "साहब बुला रहे हैं।" न कोई नमस्कार ना कोई चमत्कार, अमरकांत ने साहब से सीधी नजरों से नजरें मिलाईं।

साहब ने मुस्कुराते हुए कहा- "कब से कब तक चाहिए छुट्टियां?"

अमरकांत ने कहा –"कल से ही जाना है।"

"वापस कब आओगे?” साहब ने पूछा।

अमरकांत ने कहा – "यही कोई एक दो जनवरी तक।"

साहब ने कहा – "ठीक है चले जाओ ! लग जाएंगी छुट्टियां।"

अमरकांत सिर्फ शुक्रिया कहकर दफ्तर से बाहर आ गया।

अमरकांत के आँखों में खुशी आ गई। सोच में डूब गया, 'कैसे जाऊं? सामान भी है और अभी तो ट्रेन भी रिजर्व नहीं। ठीक है तो क्या हुआ असल भारत तो जनरल डिब्बों में ही देखा जाता है।'

अमरकांत ने माँ को घर फोन कर संदेश दिया कि वह आ रहा है। माँ को अमरकांत के छ: महीने छ: वर्ष के समान प्रतीत हो रहे थे और अमरकांत को गुजरात से बिहार जाना जैसे अमेरिका से भारत की यात्रा हो। उसने सोचा, अगर कल सुबह की ट्रेन से जाएगा तो छुट्टियों के 12 घंटे खराब हो जाएंगे। क्यों न वह शाम की कोई अच्छी सी ट्रेन पकड़ ले? झटपट नवनीत के पास पहुँचकर रेल एजेंसी को फोन लगाया और मालूम हुआ कि चार-पांच घंटे बाद एक ट्रेन है। नवनीत को अमरकांत की खुशी देखकर ऐसा लगा मानो, इससे खूबसूरत पल अमरकांत की जिंदगी में कोई नहीं था।

चार-पांच घंटों का समय पल में व्यतीत हो गया मानो कुछ पल बाद ही अमरकांत का उड़नदस्ता मतलब ट्रेन अमरकांत के सामने आईं। ट्रेन की भी गजब कहानी। रंग-बिरंगी मानो किसी मंत्री की हो। ट्रेन में मात्र दो ही सामान्य स्तर के डिब्बे। ऐसा लग रहा था मानो सच में ही केसरी हो इसमें सामान्य स्तर के लोगों के लिए जगह ही ना हो। अमरकांत ने मन ही मन कहा - 'लेकिन सरकार फिर इतने टिकट क्यों बांट देती है? जब सामान्य स्तर के इतने डिब्बे ही नहीं होते। लेकिन अच्छा करती है आज टिकट नहीं देती तो मेरे 12 घंटे खराब हो जाते। '

फटाक से सामान लेकर पीछे लगे सामान्य डिब्बे की ओर भागा और देखा के डिब्बे में कदम रखने की भी जगह नहीं। खिड़की से अंदर की ओर देखा तो लोग चादर के झूले बांधकर लटके हुए थे। तभी पीछे की ओर एक डिब्बा खाली था। अमरकांत को लगा मानो सरकार ने आज ज्यादा टिकट बांट दिए तो दो डिब्बे आए हैं।

फटाक से दूसरे डिब्बे में चढ़ा। थोड़ी सांस में सांस आई थी कि उसको जोर का धक्का आया - चढ़ने दो, चढ़ने दो। ये वो मुसाफिर थे जो गलती से आगे के डिब्बे में पहुँच गए थे और 1000 मीटर की मैराथन दौड़ लगाकर पूरी ट्रेन की लम्बाई नापते हुए पीछे आए थे। डिब्बा पूरी तरह सीटों तक भरा गया। तभी भीड़ के दबाव में अमरकांत एक चलन कुर्सी पर पहुँच गया और बैठ गया।

अभी दो-तीन बूढ़ी माता जी बोली- सीटों पर आराम से पसरे हो। शर्म नहीं आती हम खड़े हैं और तुम सो रहे हो।

तब व्यक्ति चुपचाप उठकर बैठ गया। थोड़ी देर जब उसको ध्यान से देखा तो वह एक हाथ से ही सारा काम कर रहा था और एक हाथ कंबल में छिपाए हुए था। अमरकांत को कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह तो थका हुआ था नींद लिए आंखो में बैठा था और सारे डिब्बे की बातें सुन रहा था।

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