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समय 25 से 52 का

दीपक मालवीय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15416
आईएसबीएन :978-1-61301-664-0

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युवकों हेतु मार्गदर्शिका

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चिन्ता न करें

दोस्तों अब समय हो चला है इस पुस्तक में और आपके जीवन के इस पड़ाव में एक ‘मानसिक जीवाणु’ के बारे में बात करने का, जो एक ‘सर्वगुण सम्पन्न’ व्यक्ति के मस्तिष्क को भी धीरे-धीरे कुतरता रहता है तथा हौसलों को खोखला करता रहता है। चिन्ता और चिता में सिर्फ एक बिन्दु का ही फर्क है दोस्तों... ऐसा हमारे देश में कई मनोवैज्ञानिकों का तथा साधु-सन्तों, महान आदमियों का कहना है। चिन्ता मनुष्य के द्वारा बनाया हुआ वो ‘जबरदस्ती का औजार’ है जो मन में बने पहाड़ जैसे दृढ़ संकल्प को भी चीर के रख देता है। मंजिल के करीब पहुँचते ही उसे थका सकता है। सपनों को पूरा होने में देर कर सकता है। यदि मनुष्य के आत्मविश्वास नाम के घड़े में चिन्ता रूपी छेद हो जाए तो उसमें से तुरन्त ही हमारा मनोबल खाली हो जाता है और शायद बनता काम भी बिगड़ सकता है। इस तरह मनुष्य व्यर्थ की चिन्ता पाल के मानसिक मूर्छा को प्राप्त होता है। कोई शरीर से कितना ही हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ हो अगर वो मानसिक रूप से ठीक नहीं है तो क्या कर पाएगा... इतना बड़ा शरीर ले के ।

चिन्ता क्यों चिता बन जाती है दोस्तों ! क्योंकि इसका हमारे पास प्रमाण है, दुनिया के कई मनोवैज्ञानिकों तथा डाक्टरों ने इस पर रिसर्च कर के ज्वलन्त प्रमाण हासिल किया है तथा दुनिया को कई सारी रिपोर्टें तथा इससे होने वाले नुकसानों की सूची दुनिया को सौंपी है। हाल ही में जर्मनी के मैग्ड़ेनर्व आटो वॉन यूनिवर्सिटी में हुए शोध से पता चलता है कि हमारे लगातार चिन्ता करने से, तनाव करने से दिमाग के पिछले हिस्से से ‘कार्टिसोल’ नामक हार्मोन निकलता है जो शरीर के विभिन्न तंत्रों में जाकर उन्हें असाधारण रूप से प्रभावित करता है। ये खास कर ‘नर्वस सिस्टम’ तथा त्वचा सम्बन्धी बीमारियों में ज्यादा असरदार होता है। और इसका सबसे घातक प्रभाव ‘मस्तिष्क’ पर तो होता ही है। इससे सोचने, समझने और फैसला लेने की ग्रन्थियां सिकुडती हैं तथा साथ ही मनुष्य के आत्मविश्वास पर इसका गहरा असर होता है। इसमें ‘भावनात्मक’ रूप से आदमी मरता जाता है। युवा पीढ़ी के साथ-साथ वे लोग भी जो इस समय अपनी मंजिल का रास्ता तय कर रहे हैं उन लोगों को चिन्ता अपना शिकार 100 प्रतिशत बनाएगी ही और वे लोग भी आसानी से 200 प्रतिशत इसका शिकार खुद ही बन जाते हैं।

संघर्ष कर रहे प्यारे उम्मीदार्थियों... आपके इस दौर में चिन्ता का कारण बनेंगे ‘30 प्रतिशत बाहरी व्यक्ति तथा 70 प्रतिशत आपका मन’। इसी पुस्तक में कुछ अध्याय पूर्व जैसा मैंने बताया था कि मन आपका सौतेला साथी है और मस्तिष्क (बुद्धि) आपका सच्चा साथी है। क्योंकि चिन्ता ये मानसिक बीमारी है इसलिए इसका उद्गम स्त्रोत भी मानसिक तत्व ही है। आपकी तरक्की के रास्ते में कार्टिसोल (हार्मोन) की तरह काम करेगा आपका मन जोकि नकारात्मकता के चुंबक के पीछे खिंचा चला जाएगा। बार-बार और व्यर्थ की सोच के हथौड़े से आपके मनोबल को कमजोर करेगा और आपके सपनों के बीच आड़े आने वाले वे लोग भी ‘कार्टिसोल की ही भूमिका’ निभाएंगे जो आपकी उन्नति बर्दाश्त नहीं कर सकते तथा व्यर्थ के ताने मारते हैं। ताने मारने का उद्देश्य कोई खास तो नहीं पर गपशप करके समय पास करने का जरूर होता है।

दोस्तों ! अगर आप चाहें तो इस मानसिक लाइलाज बीमारी का भी इलाज हो सकता है। ‘कार्टिसोल’ पर भी पूरी तरह रोक लगा सकते हो। यदि आप वास्तविक रूप से मनस्थिति से तैयार रहें। ये कड़वा सच मानने के लिये कि ‘आज हमारी जो भी स्थिति है अच्छी-बुरी, उसके लिये हम ही जिम्मेदार हैं, न और कोई, न ईश्वर। ये प्रकृति हमसे प्रतिपल प्रारब्ध निभाती है जिसका कारण भी हम ही रहते हैं। इस ‘अटल सत्य’ को आप मान लें तो आधी चिन्ताएं तो वैसे ही समाप्त हो जाऐंगी। और बाकी बची आधी चिन्ता इस धारणा को मानने से दूर हो जाएगी कि इस दुनिया में प्रति पल हमें कर्मफल भोगना पड़ता है। और इसीलिए हमारा जन्म भी होता है तो अब से ‘मन-वचन-वाणी’ से शुद्ध कर्म ही करना है।

जब तक मंजिल नहीं मिलती दोस्तों ! ‘ये जिन्दगी आसान नहीं होती’। आपको मंजिल का रास्ता तय करते-करते मानसिक, सामाजिक, आर्थिक, तथा शारीरिक चार खतरनाक सुरंगों को पार करना होता है। मंजिल के रास्ते में ये मानसिक सुरंग बहुत लम्बी तथा काले घने अन्धेरे से युक्त होती है। जब तक आप लोग इस सुरंग को भलीभांति पार नहीं करोगे तो आगे का रास्ता तो मुश्किल ही मानो। चिन्ता और आत्मविश्वास के बीच वही रिश्ता होता है जो रिश्ता सांप और नेवले के बीच तथा कुत्ते और बिल्ली के बीच होता है। यूँ समझें कि चिन्ता यदि हमारे भीतर प्रवेश कर गई तो हमारे विश्वास के ऊपर हुकुम चला कर राज करेगी तथा हमारे मनोबल को वैसे ही रौंद देगी जैसे कोई वहशी दरिन्दा किसी निर्बल को रौंद देता है। हमारी युवा पीढ़ी किसी परीक्षा को देने से पहले, परीक्षा के बाद तथा परीक्षा देते-देते ही नाना प्रकार की चिन्ताओं से ग्रसित रहती है। उसका ‘शुद्ध अंतःकरण’ लक्ष्य पर केन्द्रित ही कब रहता है। वो तो आधे मन से कोई काम करता है बाकी आधा मन चिन्ता के पास गिरवी रख देता है। जैसे कि : इस परीक्षा में मैंने सही या ज्यादा न लिखा तो मेरा एक साल पूरा बर्बाद हो जाएगा और आज के समय में लाखों युवा प्रतियोगी परीक्षाओं से गुजर रहे हैं। उन्हें हर पल समय की चिन्ता खाई जाती है कि समय बहुत कम है क्योंकि 60 मिनट मिलते हैं ऐसी परीक्षाओं में और फिर यदि इस बार मैं चयन नहीं हुआ तो ये नौकरी भी मेरे हाथ से निकल जाएगी, मेरा सपना टूट जाएगा तथा इस लक्ष्य को बीच में छोड़कर ‘शादी-ब्याह’ करना पड़ेगा इत्यादि फलां-फलां डरावनी चिन्ताएं पाल कर वो परीक्षा देता है तो जो फल उसे मिल सकता था ‘कौन जाने कि वह बहुत अच्छा हो’ वो भी उसे नहीं मिलता। उसे बेफिक्र होके पूरी शान्ति से परीक्षा देनी चाहिए फिर चाहे जो भी परिणाम आये वो जायज है। पर इस तरह तो कतई जायज नहीं है न तुम्हारे लिये, न ही तुम जिनके लिये सपना पूरा कर रहे हो, उनके लिये।

माना कि चिन्ता सबके पास आती है ‘यक्ष, मानव, गंधर्व, किन्नर और देवता भी’ कभी न कभी इससे आहत हुए ही हैं। परन्तु यदि आपने इसको प्राथमिक स्तर पर ही इसकी जड़ काटकर खत्म कर दी तो उस अंजाम के दौरान ये कभी नहीं पनपेगी। जैसे कि कल मुझे इन्टरव्यू देने जाना है। उसमें जाने के दौरान, सवाल पूछने के दौरान या मेरे प्रदर्शन के दौरान कोई अप्रिय घटना घट गई तो, या मैं कोई भी सवाल का जवाब नहीं दे पाया तो क्या होगा... इस तरह व्यर्थ की चिन्ता जब पहली बार आपके दिमाग में उपजती है तो उसे वहीं काट दें, आगे बढ़ने ही न दें। इस तरह भी चिन्ताओं से निपटा जा सकता है। यदि जीवन के हर मोड़ पर प्रति पल पर, हर कार्य को करने से पहले उठी हुई चिन्ता की लहरों को अपने दृढ़निश्चय रूपी सूरज से सुखा दिया जाए तो अधिकांश फीसदी चिन्ताओं से छुटकारा पाया जा सकता है। अगर आप खेल जगत में लक्ष्य तान कर बैठे हैं या इसे ही अपनी मंजिल बनाने की सोच रहे हैं तो आप चिन्ता के मामले में सावधान हो जाएं क्योंकि कोई भी शारीरिक या भौतिक क्रिया कलाप आत्मविश्वास के बल पर ही होते हैं और ये एक खिलाड़ी की नस-नस में होना चाहिए। और यदि चिन्ता का शिकार बन गये तो सबसे पहले आपका आत्मविश्वास छीण हो जाएगा। उदाहरण के लिए आपने बचपन के खेल में कई गड्ढों को पार किया होगा कूद-फांद के, परन्तु कभी कभी हम कुछ गड्ढों को पार नहीं कर पाते थे। परन्तु हमारा मित्र उसे आसानी से पार कर जाता था। असल में वो हमारे लिए भी आसान होता था पर हममें आत्मविश्वास की कमी होती थी। उसी तरह यदि आप खेल की प्रैक्टिस करते हैं, किसी खास मेडल या सम्मान को अपने कन्धे पर सजाना है तो पूरी एकाग्रता से बिना किसी सोच के खेल को अंजाम दें। अन्यथा चिन्ताओं से ग्रसित होकर अभ्यास करोगे या किसी प्रतियोगिता में खुद ही चिन्ताओं के बाण चलाओगे तो धनुष-बाण के सामने दिए गए ‘ऑब्जेक्ट’ पर निशाना कैसे लगाओगे अर्थात अपने लक्ष्य पर फोकस कैसे करोगे, यदि आँखों पर चिन्ता का चश्मा चढ़ा कर बैठोगे तो। आदमी की जीवन रूपी नैया में जब चिन्ता नाम की सवारी बैठ जाती है तो वो यहाँ-वहाँ डोलता रहता है बिना पतवार कहीं भी उसके किनारे का ठिकाना नहीं रहता है।

इसी अध्याय में एक तथ्य और उजागर होता है जिस पर प्रकाश डालना अत्यन्त आवश्यक है। वो है चिन्ता का दूसरा पहलू जोकि जायज है। जब कोई अनचाही घटना अचानक घट जाती है तब लुटिया डूब ही जाती है, या चिड़िया खेत चुग जाती है तब भी चिन्ता करना तो हानिकारक ही होता है। चिन्ता कब तुम्हारा साथी है जो तुम को कभी सुख दे के जाता हो, हमेशा हमसे कुछ छीन के जाती है। ऐसी कोई घटना घटने के बाद तुम्हें सकारात्मक सोचना चाहिए। जैसे - कुछ लुट गया तो मैं फिरसे बना लूँगा, कुछ बिगड़ गया तो फिर से सुधार लूँगा। कुछ बह गया तो उसे फिर से कमा लूँगा इत्यादि। इसकी जगह अगर सिर पकड़ कर निराशा लिये बैठ जाओगे तो जो बचा है शायद वो भी जा सकता है।

तो दोस्तों अपने सपनों को सच करने के इस सफर में कभी भी इस मानसिक बीमारी की चपेट में मत आना। सफलता का ये दौर और भी लम्बा हो सकता है। इसलिए इस मानसिक दुर्गति से बचे रहें।

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