नई पुस्तकें >> चेतना के सप्त स्वर चेतना के सप्त स्वरडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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डॉ. ओ३म् प्रकाश विश्वकर्मा की भार्गदर्शक कविताएँ
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भारतीय कवितायें
परमेश्वर का करें वरण
जगत झूठ है, फिर भी वह है,
तो क्या है? जो है वह माया।
मन की गठरी लाद जगत में,
घूमें जीव की काया।।१
मुझमें खोट नहीं है कोई,
मेरा मन सदा यही है पढ़ता।
असफलताओं को वह मेरी,
सदा दूसरों पर है मढ़ता।।२
प्रति मन एक अलग रचता जग,
सदा उसी में विचरण करता।
निज प्रति रूप सदा मन ढूढ़े,
अहं वश अन्य वरण न करता।।३
मन की चंचल धाराओं में,
मानव का अभिमान छिपा है।
मन के गहरे सागर में उतरो,
तो जीवन का वरदान छिपा है।।४
शत्रु भी मन है, मित्र भी मन है,
यह मुझ पर है निर्भर करता।
मन के पीछे चलूँ तो दुश्मन,
मित्र, जो है आगे चलता।।५
बाल, युवा, क्रमबद्ध बृद्धता,
मन के है यह गहन चरण।
प्रस्तर सघन पार कर मन का,
परमेश्वर का करे वरण।।६
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