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चेतना के सप्त स्वर
चेतना के सप्त स्वर
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2020 |
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ :
ई-पुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 15414
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आईएसबीएन :978-1-61301-678-7 |
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डॉ. ओ३म् प्रकाश विश्वकर्मा की भार्गदर्शक कविताएँ
परमेश्वर का करें वरण
जगत झूठ है, फिर भी वह है,
तो क्या है? जो है वह माया।
मन की गठरी लाद जगत में,
घूमें जीव की काया।।१
मुझमें खोट नहीं है कोई,
मेरा मन सदा यही है पढ़ता।
असफलताओं को वह मेरी,
सदा दूसरों पर है मढ़ता।।२
प्रति मन एक अलग रचता जग,
सदा उसी में विचरण करता।
निज प्रति रूप सदा मन ढूढ़े,
अहं वश अन्य वरण न करता।।३
मन की चंचल धाराओं में,
मानव का अभिमान छिपा है।
मन के गहरे सागर में उतरो,
तो जीवन का वरदान छिपा है।।४
शत्रु भी मन है, मित्र भी मन है,
यह मुझ पर है निर्भर करता।
मन के पीछे चलूँ तो दुश्मन,
मित्र, जो है आगे चलता।।५
बाल, युवा, क्रमबद्ध बृद्धता,
मन के है यह गहन चरण।
प्रस्तर सघन पार कर मन का,
परमेश्वर का करे वरण।।६
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पुस्तक का नाम
चेतना के सप्त स्वर
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