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चेतना के सप्त स्वर
चेतना के सप्त स्वर
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2020 |
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ :
ई-पुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 15414
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आईएसबीएन :978-1-61301-678-7 |
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डॉ. ओ३म् प्रकाश विश्वकर्मा की भार्गदर्शक कविताएँ
इतिहास प्रश्न
छाँव छोड़ कर तरुवर की
फिर पत्थर युग से प्रयाण किया
चल पड़े काफिलों को लेकर
फिर नगरों का निर्माण किया।१
होता रहा विकास दिनों दिन
आकाँक्षायें होती रहीं प्रबल
पूर्वज कृत संचित ज्ञान राशि से
सामर्थ्य हो चली सतत् सबल।२
युगों-युगों के बढ़े चरण
गिरिराज माल को जकड़ लिया
फिर अम्बर को जो उठे हाथ
शशि को हाथों से पकड़ लिया।३
उर में अनन्त ले अभिलाषा
आकाश नापने निकल पड़ा
प्राकृत गृह नक्षत्र की प्रति कृति
उपगृहों का दल बल भी चल पड़ा।४
अन्त हीन इस यात्रा ने,
सीमायें सारी छोड़ दीं।
इसके साथ ही प्रकृति की,
मर्यादायें मानव ने तोड़ दी।।५
यह देख धरा चित्कार उठी,
हा! तुमने यह क्या कर डाला।
यह सृजन नहीं यह है, विनाश,
अपने ही हाथों से कर डाला।।६
जल स्तर नीचे चला गया,
विषाक्त हुआ वायु मण्डल।
अति दोहन करके खनिजों का,
खोखला कर दिया भू-मण्डल।।७
उर्वरक रसायन डाल-डाल,
तूने धरती को छार किया।
और काट-काट कर पेड़ों को,
फिर मन चाहा व्यापार किया।।८
'प्रकाश' वक्त अब दूर नहीं,
अपनी ही आग में झुरसोगे।
रोटी-पानी तो दूर रहा,
इक शुद्ध सांस को तरसोगे।।९
है सर्वशक्ति मान प्रकृति,
उसके आगे तुम बौने हो।
डायनासोर सरीखे लुप्त हुये,
तुम तो शावक से छौने हो।।१०
इसलिये निवेदन करता हूँ,
मत आश्रित रहो यंत्र बल पर।
यह आज करो और अभी करो,
मत टालो इसे कभी कल पर।।११
इतनी सारी चेतावनियों पर,
अब भी यदि ध्यान नहीं दोगे।
इतिहास प्रश्न जब पूछेगा
उसको जवाब तुम क्या दोगे।।१२
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पुस्तक का नाम
चेतना के सप्त स्वर
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