नई पुस्तकें >> चेतना के सप्त स्वर चेतना के सप्त स्वरडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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डॉ. ओ३म् प्रकाश विश्वकर्मा की भार्गदर्शक कविताएँ
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भारतीय कवितायें
मेरा जीवन
टकसाल में ढला एक सिक्का हूँ,
मगर खोटा।
कुछ से बड़ा, ज्यादा से छोटा,
जहाँ भी गया बस घिसा गया।
चलते चलते घिसता ही रहा, घिसता ही गया
जब चला नहीं तो चला गया।
फिर गलने को, फिर ढलने को
वापस आया फिर चलने को।
घिसने की पहिचान बना लूँ,
घिसने का 'प्रकाश' अपना लूँ।
धातु बना खान में जाऊँ,
बूंद एक हूँ सागर में जाऊँ।।
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