| नई पुस्तकें >> चेतना के सप्त स्वर चेतना के सप्त स्वरडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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डॉ. ओ३म् प्रकाश विश्वकर्मा की भार्गदर्शक कविताएँ
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भारतीय कवितायें
विश्व है स्वार्थ से भरा हुआ।
 बन्धुओं विश्व है, स्वार्थ से भरा हुआ। 
 कोई वृक्ष सूखता, कोई है हरा हुआ।। 
 
 हरा वृक्ष ऊष्ण को निम्न है मानता। 
 भिन्न-भिन्न भेद को, विश्व है जानता।। 
 
 भिक्षु को तृप्तवान, हास्य भाव देखता। 
 तृप्तवान की कथा, विश्व है लेखता।। 
 
 सोच लो जरा सभी, यही विश्वरीति है। 
 आपत्ति ग्रस्त व्यक्ति को, मिले न कोई प्रीति है।। 
 
 अधिकार छीनते सदा, श्रेष्ठ वे लोग हैं। 
 पशु प्रवृत्ति वान तो, करें सुखों का भोग हैं।। 
 
 पशु प्रवृत्ति वान तो, महा बलिष्ठ आज है। 
 दुष्ट से जो दुष्ट हैं, उन्हीं के सिर में ताज है।। 
 
 बदल दो भावना, बदलने जो योग्य हो। 
 भविष्य सोच लो जरा, बुद्धिमान लोग हो।। 
 
 यही जो भावना रहीं, यह देश कहाँ जायेगा। 
 विश्व गुरु जो था कभी, आज क्या कहायेगा।। 
 यही देश है जहाँ, हुआ जन्म राम का। 
 पिता के वचन गहे, छोड़ राज्य काम का।। 
 
 दुष्ट का दमन किया, धर्म की जय हुई। 
 तभी अधर्म को सदा, धर्म की भय हुई।। 
 
 जन्म हुआ ईश का वही आज देश है। 
 सत्य पर चले सदा, बदलता न भेष है।। 
 
 वध किया कंस का, उग्रसेन राज्य हुआ। 
 अधर्म तो दबा रहा, धर्म पूज्य आज हुआ।। 
 
 भाग्यवान व्यक्ति हो, भारत में जन्म हुआ। 
 न्यायवान हम रहें, करो ईश से दुआ।। 
 
 अन्याय से डरें सदा, परोपकार हम करें। 
 प्रथक-प्रथक न रहें, स्वयं-स्वयं न चरें।। 
 
 पशु प्रवृत्ति छोड़ कर, मनुष्यता सदा करें। 
 बन्धु-बन्धु एक है, इसी पर सदा मरे।। 
 
 विश्व में 'प्रकाश' हो, आज भारत देश का। 
 नीतिवान देश हो, प्रताप हो महेश का।।
 
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