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काल का प्रहार

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15412
आईएसबीएन :000

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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास

17

अन्तः पर आज उसी दलूमौसी का ऐतिहासिक आर्विभाव। आते ही छिः ! छिः ! करके स्टेशन से आते-आते एक ही वाक्य रटती रही कलकत्ता पर घृणा आती है। क्या छोड़ कर गई थी और आकर क्या देखा? हाय !

प्रवुद्ध एकबार बीवी बच्चों को लेकर वृन्दावन घूम आया था। उसी सूत्र से उसका प्रत्यक्ष परिचय हुआ था। वह पूछने लगा-बुआ आपके जमाने वाला कलकता कैसा था?

क्या था? बुआ जी अपने चार दाँत गिरे सिन्धु समान मुख पर मधुर हँसी भर कर बोलीं-शोभा, सौंदर्य, प्राण ! उस जमाने में भी परिच्छन्नता, सभ्यता, कायदा। तू कैसे समझेगा? मैं जिस कलकत्ते को छोड़ गई थी वह तो तूने देखा नहीं। अब आकर मुझसे यहाँ रहो नहीं जा रहा।

प्रवुद्ध की बीवी भी तो उसी घूमने के बहाने से उनसे मिली थी तभी वह भी झट से कहने का साहस कर बैठी-अभी तो केवल स्टेशन से गाड़ी में चढ़ कर तो आई इतने में ऐसा क्या देखा?

शतदलवासिन मधुर वासिनी का उत्तर था-'नजर' हो तो एक नजर से सब देखा जा सकता है बहू। यही मैंने घर में घुसते ही समझ डाला घर में हर कमरे में अलग रसोई है-वह क्या मेरी भूल है?

बहू का गोरा रंग लाल हो गया था। बोली-तब तो कहना ही पड़ेगा कि आपकी नजर थोड़ी तेज ही है। सिर्फ बाहर के दरवाजे से सीढ़ी से ऊपर आई?

तब तो समझ ही सकती हो भई कलकत्ता का आज का हाल मैंने एक नजर में जान लिया। बोल बुद्ध, सारा रास्ता ऐसे गड्डों से क्या भरा है? यहाँ इतने पोखरों की क्या जरूरत।

मौत का जाल-कोई कुछ नहीं कहता। बुआ कौन किसे कहे?

हाय ! क्यों? अब क्या यहाँ मेयर नहीं है?

बहू बोली-बुआ वह सब तो पाताल रेल के लिये है। आपको पता नहीं सुना नहीं?

बुआ जी ने दोनों पैरों को फैला कर कहा-“जानँगी कहाँ से बस सुना भर था।

बागंला कागज जो मिलता नहीं था, वही हिन्दी ही मिलता था। मर-मर कर उसे सीखा उसी से काम चला लिया करती थी। पर कलकत्ते का संवाद भी कितना मिल पाता? फिर भी सुनने में आया कि हमारे सोने जैसा कलकत्ता और भी ऐश्वर्यशाली होने वाला है। यहाँ विलायत, अमेरीका जैसी पाताल रेल व्यवस्था होगी यही सोच कर रखा था कि मर कर फिर से मानव जन्म लेकर, कलकत्ता में ही जन्म लेकर, पाताल रेल में चहुँ। पर यह क्या? आकर देखा यह क्या? देख सुनकर तो यही लग रहा है। कि कलकत्ता स्वयं ही मन के क्षोभ से सीता की तरह पाताल में ना समा जाये।

प्रबुद्ध की बीवी अचानक बात कर उठी-अरे बाबा इतनी देर में आपने इतना सब देखा भी और सोच भी लिया?

यह देखों सोचने के लिए विशेष समय की जरूरत लगती है क्या? आँखों में आ खटका कलकत्ता में पोखर ही नहीं पहाड़ भी बने हैं। अब क्या सड़क से जो मैला झाडू देकर निकलता है उसे छापा (जहाँ मैल फेंका जाता था) के मैदान में ना ले जाकर पहाड़ बनाने में लगे है?

मेरी ओर देखकर दलूमौसी कहने लगीं, खेर्दू तुझे याद है, जब हम लोग बचपन में बुआ की ससुराल ग्रे स्ट्रीट घूमने जाया करते थे-सामने से मैलागाड़ी में जो रेलगाड़ी जैसी थी-लाइन बिछे रहते, रेल का भोंपू, लाल हरे, झंडे सब हुआ करते। कितना मजा आता था। आँ? इतने मैल के ढेरों के सामने ही खाने-पीने की दुकानें, वह गिनती में नहीं आता था। जिन्होंने उसका हिसाब किया उन्होंने जोर जबरदस्ती उस रेल लाइन को हटवा डाला। सुन कर मन खराब हो गया था ना री ! अब क्या वैसे हिसाब वाले लोग कलकत्ते में नहीं हैं? इधर तो बड़े-बड़े राक्षसों की तरह दस-बीस मंजिल मकान बन रहे हैं सड़क के किनारे-किनारे। उनमें मनुष्य ही भरे होंगे? उधर उन मकानों के सामने ही मैलों के ऊँचे-ऊँचे पहाड़ पड़े हैं। राम राम।

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