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काल का प्रहार

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15412
आईएसबीएन :000

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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास

11

कृष्णभामिनी खीज उठी, कागज कलम भी तो' भूतों का ही है। तेरा भी कोई काम नहीं, जो बीच रात में उठकर भूत के हाथ में कलम खोंसने चला। बस लड़के को डराना! उसकी माँ, दादी भी-

उस समय मझली दादी बोलीं-तुम भी ननद जी-इसका मतलब था तुम्हें भी डरना चाहिए। पर ननद जी निर्भय होकर बोलीं, मैं तुम लोगों की तरह भूत प्रेत से इतना नहीं डरती। मेरे लड्‌डूगोपाल हैं जिन्हें मैंने परिवार के सारे बच्चों को रक्षा करने का जिम्मा देकर रखा है। जाकर बलराम को कहँं ग्वाले को कहे कि दो सेर दूध ज्यादा दे जिससे-वे कई दिनों से लड्‌डू-लड्‌डू की जिद मचा रहे हैं, कर नहीं पाती। आज ही बना डालूँगी। मझली बहू डरो मत, खीर के लड्‌डू का प्रसाद सर्वप्रथम बूढ़े को ही ज्यादा करके दूँगी--सारी विपदा कट जायेंगी। वह जल्दी से चली गई जिससे ग्वाला आकर वापिस ना चला जाये। दोनों भाई-बहनों का जो हम उम्र के थे-बराबर ही भूत-भगवान के बीच द्वन्द चलता रहता।

श्रीमती कृष्णभामिनी तो केवल बड़े दादा से ही छोटी थीं। बाकी सबेसे बड़े और शासन की बागडोर उन्हीं के हाथ में थी। और बडे दादा के भी। पर वे अपनी बाल विधवा छोटी बहन से डरते थे। मझले दादा भी अच्छा कह चलते बने। हमको यह समझ आ गई कि हमारे यहाँ कुछ दिनों तक भूतों का उत्पात चलेगा, और उसी अनुपात से लड्‌डूगोपाल का भोगोत्सव भी चलेगा। प्रसाद का परिमाण भी वर्धित होता जायेगा।

लड्‌डूगोपाल की उस समय चाँदी की खड़ाके की फरमाइश थी अब शायद चाँदी का सिंहासन माँग बैठे।

एक बार मझले दादा रोज रात को ब्रह्मदैत्य के खड़ाऊ की खटखट सुनते थे। उसके साथ फट से किसी का गमन-जिसके शरीर पर सफेद थान और गले में जनेऊ-सुन-सुनकर घर के छोटे-बड़े सब डर से आतकित हो जाते।

सिर्फ ने ही कहा-यह तेरे आँखों का धोखा है, सफेद थान पहन कर मैं ही तो फराफरा कर आती जाती हूं-रेली का थान पारदर्शी होता हैं।

-गले में हरी-नाम की माला-मझले दादा गुस्से हो गये-रसों का धोखा। फिर तो घर मे नाना प्रकार के उपद्रव। यहाँ बर्तन गिर रहा है, वहाँ रसोई में मिट्टी की हड़ियों टूट रही हैं कोयले वाले कमरे में एक फटा गददा पड़ा था। जिसमें खटमल लग गये-एक दिन देखा कि उसमें आग लग है और उसी बीच रात में खड़ाऊ की खटखट जोर पकड़ चुकी थी।

आखिर में कृष्णभामिनी को अपना अपराध मानना पड़ा। साझ को ठाकुर द्वारे से उतर कर बोली-जगाई मुझसे गलती हुई, तेरी ही बात ठीक है। माला जपते-जपते साफ सुनाई दिया-गोपाल मुझसे कह रहे हैं-मुझे चाँदी का खड़ाऊँ बनवा दे, नहीं तो माथे पर खड़ाऊं की .खटखट बन्द नहीं होगी। तू ही बनवा दे ना।

जगाई मुँह बना कर बोले-तुझसे लड्‌डूगोपाल इतना बोले?

कृष्णभामिनी भी मधुर मोहिनी हँसी हँसी-बात सुनो इतने पर ही चमक रहे हो, मुझसे गोपाल कितनी बातें करते है। सारी शाम तो मेरे साथ ही बात चलती है। आज ही सुशील के पास जा, जरा भारी बनवाना।

सुशील इस घर का बराबर का सुनार था। शादी के जेवरों से लेकर बच्चों के ताबीज तक वही बनाता था। जगाई को उपाय ना देख यह आदेश पालन करना ही पड़ा।

सच, खड़ाऊं गढ़वाने के बाद अपदेवता भी अदृश्य हो गये थे।

कौन जाने फिर से दुष्ट आत्मा के लिए कुछ ना हो। अभी तो ग्वाले को दो सेर दूध का दाम लाभ में मिला। गोपाल की खीर बनने से कृष्णभामिनी दूध का पैसा नगद ही दे दिया करती है।

अजीब बात। कमरे में आकर देखा इतनी मनोव्यथा के बीच दलूमौसी खिड़की के पास खड़ी होकर हँसे जा रही है।

क्या री अकेले-अकेले हँस रही है?

दलूमौसी एक टेढ़ी मुस्कान भर कर बोली-दुष्टात्मा ने मुझ पर डेरा डाला है।

धत। हट्। बता क्यों हँस रही है?

बताया। जिसका मरमार्थ था-छत पर मझले दादा का टहलने की आवाज सुनाई देना अतिभ्रय ना था बल्कि सबके सो चुकने पर दलूमौसी छत पर घूमती है।

बड़ी खतरनाक है तू डर नहीं लगता।

जाने दे। जो प्राणी मृत्यु पथ पर है उसे किसका भय एक बार तो मन में आया कि कल घटकी आने से पहले ही छत से छलाँग लगा दें पर वह चिन्ता छोड़ दी। अगर गिर कर भी ना मरूं और टूटी टांग लेकर है। बैठी रह जाऊँ-उससे बुरा क्या होगा?

दलूमौसी तू अगर मरे तो मुझे साथ लेकर ही मरना बड़ी भाग्य की बात थी कि दलूमौसी हँसी। हँस कर बोली-अच्छी बात है याद रहूँगी।

फिर और भी बातें-सामने वाली खिड़की से छाया का हट जाना भी - बिना किसी बुनियाद के ना था।

वह था दलूमौसी का अपने प्रियतम को इशारा-वह गर्मी के बहाने से छत पर घूमा करता और दलूमौसी छत पर जा री है या नहीं इससे जानने के लिए सड़क पर कागज फेंकता रहता।

दलूमौसी अगर कोई देखे?

देखने दे। देखकर तो सब भूत की करामात समझ बैठे हैं। असल में यही देख और छत पर चलने की आवाज सुनकर मझले दादा के हाथ-पैर काँप गये हैं। काफी डरपोक हैं और एक डर और मन में घुसा है वह है। गुस्से के मारे मैं बूढ़े का कुछ अनिष्ठ कर बैठूं।

हट।

हट क्या मझले दादा तो हैं ही ऐसे। डरपोकों के सदीर। तभी तो भूत उनके पास आकर बोल गया बूढ़े को सावधान।

हूँ।

पर दलूमौसी-मैं बिल्कुल बेहाल होकर-वह सब इशारे, की बातें कब होतीं हैं?

बातें कहाँ हो पाती है? चारों ओर दुश्मन-छोटे-छोटे पुर्जे लिख केर हाथों में दे देना-

दलूमौसी का चेहरा सहज था। जैसे कुछ भी नहीं हुआ था। जैसे ऐसी खतरनाक दु:साहसिक घटना चारों ओर रट जाये तो दलूमौसी को आँगन में गडा खोद कर जीवित गाढा ना जायेगा-छोड़ दिया जायेगा।

पर प्रश्न है-इस लोहे के किले में आगन्तुक कैसे प्रवेश पा गया?

इस पवित्र, अन्यतम अन्त:पुर में-इसमें राजपुत्र कैसे आ गया?

यह भी एक अलौकिक संयोग था—या अलौकिक अनुकूलता। दादा के इस घर से एक घर छोड़ कर कृष्णभामिनी की एक ससुराल की कन्या ब्याही गयी थी जो उनके अनजाने अतीत के देवर की बेटी थी।

ग्यारह बसर में ब्याह, बारह बरस में वैधव्य, फिर भी कृष्णभमिनी

को अपने ससुराल से नाता बना हुआ था। उनकी शादी ब्याह में आशीर्वाद करने, उनके यहाँ कुछ समारोह या शोक पर कार्य साधन भी करने जातीं थी।

भाई पसन्द नहीं करते थे। कहते थे वो तो कभी भी कुछ नहीं करते।

बहन का कहना था, पहनती तो एक टुकड़ा हूँ और एक मुट्ठी अन्न खाती हैं, कुछ क़रें भी तो किस उपलक्ष्य में? वे नहीं करते तो क्या मैं भी नहीं करूं? जन्म-जन्मान्तर का रिश्ता तो मिटाया नहीं जा सकता।

उसी जन्म जन्मान्तर के रिश्ते की खातिर बुआ दादी अपनी देवर की बेटी को देखने जाती और उसके ससुराल में उपहार का लेन-देन भी करती।

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