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ये जीवन है

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15411
आईएसबीएन :81-263-0902-4

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इन कहानियों में मानव की क्षुद्र और वृहत् सत्ता का संघर्ष है, समाज की खोखली रीतियों का पर्दाफाश है और आधुनिक युग की नारी-स्वाधीनता के परिणामस्वरूप अधिकारों को लेकर उभर रहे नारी-पुरुष के द्वन्द्व पर दृष्टिपात है।

 

निवारण चन्द्र की अन्त्येष्टि क्रिया


रायबहादुर निवारण चन्द्र की मौत एक दिन सचमुच हो ही गयी। इस घटना से निवारण-भवन में उथल-पुथल मच गयी। शोक तो नहीं, बात जहाँ तक आ पहुँची थी, वहाँ 'शोक' शब्द एक मज़ाक़ ही बन जाता। पर उथल-पुथल मची क्योंकि ऐसा किसी दिन सचमुच होगा, यह विश्वास निवारण चन्द्र के बेटे-बहू पोते-पोतियों, परपोते-परपोतियों के मन से उठ चुका था। उन लोगों ने मान ही लिया था कि चित्रगुप्त के खाते से वह पन्ना, जिस पर निवारण चन्द्र का नाम लिखा है, कहीं फटकर गिर गया है।

अत: अब यह घटना विश्वास योग्य नहीं लग रही थी।

बरसों पहले, पता नहीं कब, कई बार मरते-मरते भी बच गये निवारण चन्द्र और तब से जीवितों की दुनिया से छूटकर इस तिमंजिले महल के किसी एक कोने में खोये पड़े रहे, तब से निवारण चन्द्र की बात किसी को याद नहीं।

कभी-कभी दूर के रिश्ते की औरतें कहती हैं, ''हाय राम! बूढ़ा अभी तक जिन्दा है?'' और भी दूर के लोग कहते, ''क्या कहती हो? बुड्ढा अभी तक मरा नहीं?''

निवारण चन्द्र के जीने-मरने से किसे क्या लाभ या हानि होगी, यह कोई सोचता नहीं। ऐसा  लगता जैसे वह कोई नाजायज़ फ़ायदा उठा रहा हो, जैसे अधिकार से अधिक कुछ पा रहा हो।

घर के लोग ये सब नहीं कहते, क्योंकि कोई निवारण चन्द्र के बारे में सोचता ही नहीं। उन लोगों के जन्म-मृत्यु-विवाह को केन्द्रित कर जो जीवन-लीला संघटित हो रही है, निवारण चन्द्र से उसका कोइ, सम्बन्ध नहीं है, निवारण उनका रास्ता रोककर खड़े भी नहीं हैं।

साल में एक-दो बार शायद परिवार के सदस्य उस कोनेवाले घर के दरवाजे पर आकर खड़े होते-विजयादशमी के अगली सुबह या पहले वैशाख की दोपहर या कभी-कभार किसी नये दुल्हे-दुल्हन को लेकर आते। बस, इतना ही।

इसके अतिरिक्त और करें भी क्या? इतना ही तो पर्याप्त है। जो आदमी छियानबे साल पहले इस धरा पर आकर अभी तक हिलने का नाम नहीं ले रहा हो-उसके प्रति इससे अधिक शिष्टता और कब तक दिखाई जा सकती है? कौन याद रखे कि निवारण चन्द्र के नाम से कभी शेर और बकरी एक ही घाट से पानी पीते थे, इसी निवारण-भवन की धरती उनके पद-चाप से थरथराती थी और इस भवन की प्रत्येक ईंट पर उनकी सतर्क दृष्टि हुआ करती थी। समय पर मरना ही सही जीना है, यह बात जो लोग भूल जाते हैं, उनकी लोगों को क्या परवाह?

फिर भी, ये लोग तो कम-से-कम इतने दिन भूलकर रहने की त्रुटि के संशोधन में लगे हुए हैं।  'दान सागर' कर रहे हैं श्राद्ध में।

आज के लोग तो इसका नाम ही भूल चुके हैं। निवारण चन्द्र के बेटे, सुयोग्य बेटे हैं तभी तो अतीत की मर्यादा को वर्तमान में प्रतिष्ठित कर रहे हैं! हालाँकि निवारण चन्द्र के पुत्र भी वयोवृद्ध ही हैं, जो करना है, उनके बच्चे ही कर रहे हैं, मगर उन्हीं की इच्छा से तो हो रहा है! निवारण चन्द्र के तीनों बेटे होनहार थे, धन-मान-यश, हर प्रकार से, परन्तु अबतक परिवार टूटा नहीं था।

ऐसी मिसाल इस युग में दुर्लभ है। मगर दुष्ट जनों का कहना है कि यह भी उस चालाक बुड्ढे की चतुर बुद्धि का परिणाम है। बुड्ढे ने वसीयत में लिख रखा है कि जो बेटा मेरे जीवन-काल में अपनी रसोई अलग करेगा, उसे निवारण-भवन का हिस्सा नहीं मिलेगा।

इधर उस जीवन-काल को खींचकर इतना लम्बा कर लिया उन्होंने कि बेटों के सारे बाल सफेद हो गये। अब तो वही डर के मारे काँपते रहते हैं कब उनके बेटे-बहू अलग हो जाएँ।

सौभाग्य से ऐसा अभी तक हुआ नहीं।

बल्कि वे बाप-चाचा के हर काम में आन्तरिक सहयोग ही देते हैं। तभी तो घर के बड़े बेटे ने इस मौक़े पर घर की सभी बहू-बेटियों के लिए अच्छे जरी किनारोंवाली टंगाइल साड़ी लाकर दीं, माँ और चाचियों के लिए भी चौड़े किनारोंवाली धनिया खाली साड़ी। मँझले बेटे ने पिता और चाचाओं की अनिच्छा होते हुए भी धोतियाँ और बच्चों के लिए नये कपड़ों का इन्तजाम किया है। धोती आजकल कोई पहनता ही नहीं, बस एक दिन पहनकर छोड़ देंगे फिर भी क़ीमती महीन धोती ही खरीदी है उसने। जैसे कि यह भी राय बहादुर निवारण चन्द्र की मर्यादा को बनाये रखने का एक अंश हो।

इस श्राद्ध क्रिया के हर काम में उनकी मर्यादा की उचित रक्षा हो रही है। घर के नौकर-दाई को दशहरे में भी इतने अच्छे कपड़े नहीं मिलते जैसे मिल रहे हैं ''बड़े मालिक के शराध'' में। ऐसे प्रख्यात व्यक्ति इतने दिनों तक इसी घर में रहते थे, यह बात दुनिया को मालूम भी तो हो।

न्यौते की 'लिस्ट' तैयार हो गयी है, भोज का 'मैन्यू' भी तैयार, मगर फिर भी बीच-बीच में उसमें कुछ और जुड़ रहा है, चल रहा है कुछ परिवर्तन उसमें और 'लिस्ट' बड़ी होती जा रही है।

बेटों को अचानक ही याद आ जाता है-बाबूजी को यह भोजन अत्यन्त प्रिय था, बहू-बेटियों को याद आ जाता, बीमारी के कारण बाबूजी को यह खाना मना हो गया था। इस भोज की तालिका में वह सब जुड़ जाए तो बाबूजी की आत्मा को शान्ति मिलेगी।

इस तरह लिस्ट में वह भी जुड़ जाता। ब्राह्मण-भोजन आदि सारे झंझट श्राद्ध के दिन ही निपटाकर असली भोज का प्रबन्ध नियम भंग के दिन किया गया है।

न्यौते की चिट्ठी के नीचे आत्मीय, कुटुम्ब और बन्धुजन का नाम देकर पूरी-भाजी और एक  सब्जी खिलाकर श्राद्ध का भोज करा दें, ऐसी छोटी नज़र निवारण के वंशजों को नहीं मिली। इस उपलक्ष्य में वे अपने आत्मीय कुटुम्ब और मित्रों को जमकर खिलाना चाहते हैं।

ये तो किसी के बेटे के पोते का अन्नप्राशन, उपनयन या विवाह नहीं कि एक ही जेब खाली हो? यह तो एक पारिवारिक उत्तरदायित्व है, निवारण के होनहार परपोते ने भी इसमें अपना योगदान दिया है।

सम्बन्धियों के अतिरिक्त निवारण के बेटों के ऑफिस के पूर्व सहकर्मी (जो अब भी जीवित हैं), जो उनके बेटों के ऑफ़िस में 'बॉस' या 'सीनियर' के पद पर शोभित हैं, उनके नाम भी तालिका में हैं। इसके अलावा दो-चार अँग्रेज़ अफसरो के भी नाम हैं। अत: भोज की तालिका में मांस, मछली, चॉप, कटलेट, फ्राई के अतिरिक्त मुर्गे का भी स्थान है-उसके बिना तो 'फ्राइड राइस' खाने में मजा नहीं।

हाँ, मगर इसे तालिका में शामिल करने से पहले मामले पर काफी बहस और मतभेद हो चुका  है। अभी-अभी परलोक सिधारे निवारण चन्द्र के जहाँ जितने सम्बन्धी थे, सभी तो आ चुके हैं। अधेड़ उम्र की बेटियाँ, उनसे आधी उम्र की पोतियाँ, बहुएँ सब आयी हैं साथ-साथ। उनमें अब  दो गुट बन गये हैं। एक गुट का प्रतिवाद सख्त हो उठा-श्राद्ध में मुर्गी? छि:-छि:! हिन्दू घर में यह कैसा अनाचार!

दूसरे गुट की आवाज भी बुलन्द थी उस प्रतिवाद के जवाब मे-''श्राद्ध तो हिन्दू घरों में ही होता है, यह कोई कहने की बात है! कोई हवन में तो नहीं डाला जा रहा है? सगे सम्बन्धियों को बुलाकर अच्छा भोजन कराने की तो प्रथा है।''

निवारण की मँझली बेटी ने नाक सिकोड़कर कहा, ''ऐसा कहने से कैसे चलेगा, मेरी ससुराल में लोग थूकेंगे।''

निवारण का छोटा बेटा बोला, ''क्यों मँझली दीदी, वे लोग नहीं खाते क्या? मँझले जीजा तो  मुर्गा मिल जाय तो और कुछ छूते ही नहीं।''

''वह और बात है। इसक मतलब यह तो नहीं कि पिता के श्राद्ध में...?''

निवारण का बड़ा बेटा बढ़ी हुई दाढ़ी पर हाथ फेरकर बोला, ''उससे क्या? बाबूजी को यह चीज़ कितनी पसन्द थी, तुझे याद नहीं? उन दिनों तो चौके में मुर्गा लाना मना था, अलग से बावर्ची रखकर घर के बाहर पकवाकर...'' भावावेग से आवाज थोड़ी-सी दब गयी, फिर धीरे-से बोला,  ''थोड़े आचार-विचार के बहाने लोगों को उस जमाने में कितना कुछ पाने से रोका जाता था।''

मँझली बेटी का मन फिर गया, बोली, ''सच ही कहते हो भैया। तुमने कहा तो याद आ गया। याद है, हम लोग कैसे बाहर जाकर खाते थे, नौकरों के नल पर जाकर हाथ-मुँह धोते थे, और कपड़े बदलते तब जाकर बिस्तर में सोने की अनुमति मिलती थी।''

कमरे में कुछ कमसिन बहुएँ थीं जो फ़िल्मी नायिका की तरह मुँह पर हाथ रखकर हँस उठीं।

एक ने कहा, ''कौन था इतना झक्की?''

''और कौन, हमारी माता ठकुरानी के सिवा? इन सब बातों को लेकर कितना परेशान करती थीं बाबूजी को।''

बातों-ही-बातों में, पुरानी याद ताजा करने की धुन में असली बात ही दबती जा रही थी, फिर अचानक ही बात पक्की हो गयी। मुर्गा बहाल रहा। किसी एक ज़माने में इस सुविधा से वंचित निवारण चन्द्र की दिवंगत आत्मा को शान्ति मिलेगी, इसमें सन्देह नहीं।

मुर्गे की प्रतिष्ठा के बाद ही अचानक चारों ओर पुरानी यादों को ताजा करने की होड़ लग गयी। पता चला केवल बेटियाँ ही नहीं, अधेड़ उम्र की भतीजियों, भानजियों को भी याद है। ताऊजी को क्या पसन्द था, मामाजी को क्या अच्छा लगता था।

उनमें से एक रोबदार भानजी बोल उठी, ''तुम लोगों ने जो लिस्ट बनाई, रहने दो, मामाजी के श्राद्ध में मैं कृष्ण नगर से खास मिठाइ लाऊँगी। मामाजी को बेहद पसन्द थी। मेरी ससुराल है न वहाँ, जब तब आना-जाना लगा रहता था। मेरे आते ही कहते, 'कहाँ गयी रे? तेरी ससुराल की 'सरपुरीया' कहाँ है?' ''

उनकी दूसरी दीदी, एक और भानजी बोल उठी, ''न्यौता तो, जैसा सुन रही हूँ, डेढ़ हज़ार से  ऊपर है। अर्थात् सोच-समझकर देख लो, सादे कागज पर हस्ताक्षर मत कर देना।''

रोबदार भानजी वोल उठी, ''डेढ़-दो हज़ार में कोई फर्क नहीं पड़ेगा, दीदी। मामाजी ने हमें कितना लाड़-दुलार दिया, हमने कब क्या किया उनके लिए? दस-बीस साल से तो भेंट-मुलाक़ात ही नहीं हुई।''

अत: खाने के 'मेन्यू' में एक और आइटम बढ़ गया-बढ़ गयी भानजी की पद मर्यादा भी। फिर तो झपाझप लम्बी होती चली गयी तालिका।

किसी ने गुप्तीपाड़ा से सन्देश लाने की ज़िम्मेदारी ले ली, किसी एक ने मछली के एक विशेष व्यंजन का उल्लेख कर उसका उत्तरदायित्व ले लिया, किसी और ने कच्चे आम की चटनी का खर्चा उठाने का बीड़ा लिया, और एक तो बोल ही बैठा, ''तुम्हारे यहाँ सब अँग्रेज़ यार-दोस्त आएँगे, मैं कुछ स्कॉच ह्विस्की ले आऊँगा...नौकरी की पदोन्नति में उस स्कॉच ह्विस्की का बड़ा हाथ था। मामाजी खुद थोड़ा-बहुत पीते-वीते थे, एक बार एक अँग्रेज़ दोस्त के साथ-मतलब वह तो ब्रिटिश ज़माना था, काफी दबदबा था, मामाजी का अँग्रेज़ दोस्तों के बीच।''

एक लम्बी-चौड़ी कहानी शरू ही की थी उसने, अचानक बाधा उत्पन्न हुई। भरी सभा में एक छाया मूर्ति का आविर्भाव हुआ। प्राय: सभी चौंक उठे।

''यह कंकाल जैसी प्रेतात्मा इस घर के किस कोने में रहती थी?'' निवारण की एक पोती ने कहा, ''पहनावा आदमी को कैसे बदल देता है। अभी कुछ ही दिन पहले नानी को देखकर गयी थी, तब उनकी उम्र तिरासी वर्ष की थी। पतली छोटी-सी तो थी। फिर भी सिन्दुर की बड़ी-सी बिन्दी, चौड़े किनारेवाली साड़ी और हाथ में भरी चूड़ियों में कैसे दमकती थीं। और अब देखो-कौन कहेगा, ये वही हैं। रंग भी जैसे झुलस गया है। बुढ़ापे में भी तो कैसे खिली रहती थीं।''

जिनके विषय में टिप्पणी की गयी, उनके कानों में बात गयी नहीं थी। क्योंकि काल का शिकंजा तो उनके भी आँख, कान, दाँत सब पर पड़ चुका था।

अगर इतने दिनों तक राय बहादुर जीवित नहीं रहते, तो शायद इन्हीं के बारे में ऐसा कहा जाता, ''अरे बाप रे! बुढ़िया अभी तक है? हाय राम! अभी तक मरी नहीं?''

परन्तु चूँकि हेमांगिनी देवी निवारण चन्द्र से तेरह वर्ष छोटी हैं, इसलिए उनकी उम्र को लेकर कोई चिन्तित नहीं हुआ। यहाँ तक कि एक लकवे के रोगी की सेवा करते रहना उनकी क्षमता की बात है या नहीं, यह भी किसी ने नहीं सोचा। एक नौकर तो है ही उन्हें हिलाने-डुलाने के लिए, फिर क्या?

बाबूजी की सेवा माँ करेगी, यही तो स्वाभाविक है। और यह भी तो सब जानते हैं कि और किसी का काम घर के मालिक को पसन्द भी नहीं आता। मगर हाँ, यह तो तब की बात है जब वे इस पृथ्वी पर ढंग से जी रहे थे।

हेमांगिनी के हाथ की रोटी के सिवा और कोई रोटी हज़म नहीं होती थी, उनके हाथ की बनी सब्जी के सिवा और किसी में स्वाद नहीं आता था। फिर? इतने अपमान के बाद बहुएँ और उनकी बहुएँ भला क्यों आगे आएँ?

इसके बाद तो निवारण चन्द्र नामक व्यक्ति इस निवारण-भवन की धरती से विलीन हो गये। इस घर के किसी भी दर्पण में उनकी छाया फिर नहीं पड़ी, इस घर की किसी मेज पर उनकी थाली नहीं परोसी गयी। केवल हेमांगिनी नामक एक दुबली-पतली औरत की हिफ़ाज़त में रह गये वे कई युगों तक। वे ही युग हेमांगिनी पर भी असर करते रहे, यह किसी को ध्यान नहीं आया।

शुरू-शुरू में हेमांगिनी, मतलब जब उनके बेटों के घने-काले बाल हुआ करते थे, जब-तब दौड़ी आतीं, ''अरे, डॉक्टर बाबू को जल्दी से खबर दे, इनकी छाती में दर्द हो रहा है।'' फिर धीरे-धीरे यह आना कम हो गया। कभी-कभी आकर कहतीं, ''देख, डॉक्टर बाबू को एक बार बुलाने से ठीक रहता। कई दिनों से कह रहे हैं छाती में...''

इसके बाद तो काफ़ी लम्बे अरसे के बाद कभी-कभार धीरे से उनके दरवाजे पर आकर खड़ी होतीं, कहतीं, ''तुम लोगों में से कोई एक बार आ सकता है? कैसा तो कर रहे हैं।'' तब तो बेटों के बाल भी सफ़ेद हो चले थे, किसी को ब्लड प्रेशर, किसी को डायबिटीज।

पोते जाकर देख आते और कहते, ''कुछ नहीं, शायद पेट गड़बड़ था।'' उनकी बहुएँ छुप-छुपकर हँसतीं, ''दादी को डरने की कोई ज़रूरत नहीं, उन्हें तो अमरत्व का वरदान मिला हुआ है।''

इसके बाद पता नहीं कितने दिनों से हेमांगिनी अपने बेटों के पास नहीं आयी। अन्तिम दिन उनका नौकर आकर बोला, ''बाबू दादीजी ने कहा आप लोग सभी उस कमरे में आ जाएँ।''

आज बड़े दिनों बाद हेमांगिनी इस कमरे में आकर खड़ी हुईं, धीरे से बोलीं, ''तुम लोगों से एक बात करना चाहती थी।'' हेमांगिनी के बेटे-बहू पोते-पोती ये सब हृदयहीन तो नहीं थे, इसलिए सब मिलकर परेशान हो उठे, बोले, ''तो तुम खुद क्यों आ गयीं, हमें बुला लेतीं।'' थान में लिपटी हेमांगिनी को देखकर उन्हें पहली बार लगा कि माँ भी बूढ़ी हो गयी है।

फिर भी उनका एक पोता बोल उठा, ''अच्छा दादी, इस चादर को पहनना क्या इतना ज़रूरी था? आजकल तो देखता हूँ सभी साड़ी, चूड़ी सब कुछ पहनती हैं।''

हेमांगिनी ने इस बात का जवाब नहीं दिया। केवल एक बार उसे देखकर थोड़ा रुककर दृढ़ स्वर में बोलीं, ''मैंने सुना, उन्हें क्या-क्या खाना पसन्द था उसकी लिस्ट बन रही है भोज में खिलाने के लिए। अगर यह सचमुच सही है तो, उस लिस्ट में कुछ मीठे अंगूर लिख ले।''

''क्या लिख लूँ?'' सभी चौंक उठे थे।

हेमांगिनी बोलीं, ''कहा न, बड़े-बड़े मीठे अंगूर।'' थोड़ी देर चुप रहीं। फिर सब की ओर नज़र डालकर भी किसी को न देखते हुए बोलीं, ''काफी दिनों से खाने की इच्छा थी। मगर आखिरी तक हो नहीं सका।'' हो नहीं सका! काफी दिनों से इच्छा थी, बाबूजी की! दादाजी की! मामाजी की! ताऊजी की!''

''कितने शर्म की बात है। कितने शर्म की।'' मारे शर्म के सभी धरती पर गड़ गये।

हेमांगिनी उन्हें देख रही थीं, ऐसा लगा नहीं। शायद दीवार की ओर ही देख रही थीं।

थोड़ा सँभालकर छोटा बेटा बोल उठा, ''यह बात कहने के बदले तुमने हमारे गाल पर एक  थप्पड़ क्यों नहीं मार दिया, माँ? बाबूजी को अंगूर खाने की इच्छा हुई थी, बार-बार उन्होंने यह बात कही थी, मगर वह तुच्छ वस्तु लायी नहीं गयी। यह बात सोची भी जा सकती है?'' दीवार की ओर से मुँह घुमाकर हेमांगिनी ने बेटे की ओर देखा। देखा उस चेहरे पर धिक्कार, तिरस्कार और विक्षोभ की तीखी अभिव्यक्ति।

मँझले बेटे के कण्ठ से वह धिक्कार उच्चारित हुआ, ''अच्छी बात है माँ, अगर हम बाबूजी के  इतने ही नालायक बेटे थे, तो नौकर से भी मँगवा सकती थीं।''

हेमांगिनी धीरे-धीरे रुककर बोलीं, ''मँगवाया था दो दिन। छोटे-छोटे इतने खट्टे कि क्रोधित  होकर फेंक दिये थे उन्होंने।''

''वह तो फेंक ही सकते थे,'' एक भतीजी रोनी-सी आवाज में बोल उठी, ''खुद कैसी चीज़ लाते  थे, यह तो सोचो ताईजी! न्यू मार्केट से बाहर का फल उन्हें पसन्द ही नहीं होता था कभी। बड़े दिन के समय टोकरे में फल लाते थे। ये बड़ी-बड़ी नारंगी, लाल-लाल ढेर सारे सेब, बड़े-बड़े  अंगूर के गुच्छे। वही आदमी दो अंगूर खाना चाहते थे तो खट्टे अंगूर मिले। उठाकर फेंक देंगे  नहीं?'' स्वर रुद्ध हो गया था उसका।

बड़े बेटे ने भी रुँधे स्वर में कहा, ''यह वात एक बार हमारे कानों में क्यों नहीं डाल दी माँ  तुमने? घर में इतनी चीज़ें आती रहती हैं। इतने रुपये खर्च होते है।'' मँझली बेटी बोल उठी,  ''बुरे समय में कुछ बोलना ठीक नहीं फिर भी बिना कहे रहा नहीं जाता। इन दिनों तुमने भी  बाबूजी की बहुत अवहेलना की।'' वे बराबर ही कितने शौक़ीन, कितने नवाबी मिज़ाज के थे, यह तो भूल ही गयी थी जैसे। ''...बीच-बीच में देख तो गयी हूँ आकर। बिस्तर का क्या हाल,  पहनावा भी वैसा ही।'' बोलते-बोलते उसकी आवाज़ भरी गयी।

छोटा बेटा फिर एक वार बोल उठा, ''वह सब तो फिर भी छोड़ा जा सकता है, मगर शर्म से सर झुका जा रहा है जब भी सोचता हूँ बाबूजी ने अंगूर खाने चाहे पर मिले नहीं। ऐसा कैसे कर  सकीं माँ?''

अपनी धुँधली दृष्टि से बारी-बारी से सबको देखने की कोशिश की हेमांगिनी ने, मगर धुँधले से  आकारों को छोड़कर और कुछ देख नहीं सकीं। शायद इसीलिए फिर दीवार की ओर देखने लगीं।

क्या उस दीवार पर सर कटानेवाले अनेक इतिहास लिखे गये थे? क्या उसी को पढ़ रही थीं हेमांगिनी?

परन्तु इस भावावेग की धारा के बीच भी न जाने कैसे अपने आपको आवेग मुक्त रख सकीं वह। निरुत्ताप स्वर में धीर-धीरे बोलीं, ''तुम लोग अपने सौ झमेलों में व्यस्त रहते हो, इसीलिए तुम्हें परेशान करने में शर्म आती थी।''

-''शर्म! शर्म आती थी!''

एक साथ पता नहीं कौन-कौन बोल उठा, ''कहने में शर्म आती थी! एक तीखा स्वर सुनाई दिया, ''यह कहने में ही तुम्हें शर्म आनी चाहिए थी दादी। छि: छि: विश्वास ही नहीं होता। तुम्हारी यह अजीब शर्म देखकर हँसूँ या रोऊँ, समझ में नहीं आता।''

सारे कमरे में इसी बात के समर्थन की गूँज सुनाई देती।

मगर शर्म के इस आघात से टूटकर हेमांगिनी देवी कठघरे में खड़े अपराधी की तरह सर झुकाकर खड़ी नहीं रहीं बल्कि अचानक एक अजीब बेसुरी आवाज में बोल उठीं, ''अरे, कितनी हैरत की बात है। तुम लोगों को भी ऐसा ही लगता था? मैं भी तो ऐसा ही सोच रही थी।''

अचानक कमरे से निकल गयीं, पता नहीं क्या करने के लिए!

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