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ये जीवन है

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15411
आईएसबीएन :81-263-0902-4

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इन कहानियों में मानव की क्षुद्र और वृहत् सत्ता का संघर्ष है, समाज की खोखली रीतियों का पर्दाफाश है और आधुनिक युग की नारी-स्वाधीनता के परिणामस्वरूप अधिकारों को लेकर उभर रहे नारी-पुरुष के द्वन्द्व पर दृष्टिपात है।

 

एहसास


खिड़की से दिखाई पड़ा। नानू की माँ का 'नानू' गेट खोलकर भीतर आ रहा है। भैंस के जैसे काले, पथरीले बदन पर कोरा लाल गमछा लपेट रखा है, कोरे थान की धोती पहने, बाल इतने रूखे जैसे रस्सी हों...इधर-इधर देखते-देखते सावधानी से भीतर आ रहा है।

देखते ही बदन में आग लग गयी।

ज़रूर ही ''माँ के 'श्राद्ध' में कुछ देना होगा'' बाबू इसी का रोना लेकर आया है। और क्या हो सकता था, अब माँ की मौत का नाम लेकर कुछ दिन के गाँजे का खर्चा तो उठाना ही था? अब तक उसकी अधमरी-सी माँ अपना खून-पसीना एक कर इसी बात को निभाती रही! मगर सिर्फ़ नशे का ही खर्चा? नानू के उस पथरीले साँचे को बनाये रखने के सारे उपकरण कौन जुटाता आया अपने-आप को निचोड़कर? दिन-रात खून-पसीना एक कर, कितनी तरकीबों से जो कुछ कमाती थी, सबकुछ तो उस नालायक गंजड़ बेटे के नैवेद्य में ही लुटा देती।

केवल चार-पॉच घर बर्तन माँजना ही तो नहीं। जब देखो-नानू की माँ हड़बड़ाकर चली जा रही है। जा रही है एक बाल्टी कपड़ा साबुन लगाकर धोने, चली जा रही है एक टोकरी गोबर लेकर गोयँठा डालने, चली जा रही है किसी के बाज़ार का सामान ढोते हुए।

इस छोटे से मुहल्ले में नानू की माँ को न पहचानने वाला कोई नहीं। जब नानू सालभर का था, तब नानू के माँ-बाप, पता नहीं कैसे-कैसे, कहाँ से होकर, यही पहुँच गये थे। या शायद अकाल पीड़ित होकर ही चले आये थे। नानू का बाप मोती राजमिस्त्री का काम करता था, लेकिन कितने दिन कर सका, एक दिन अचानक मर गया, बीवी-बच्चे को डुबाकर। नानू तब ढाई वर्ष का था।

तब से नानू की माँ का जीवन-संघर्ष चल रहा है। दो-तीन घर और पकड़ लिए उसने। भीतर-ही-भीतर नानू विशाल और भयंकर होकर बढ़ता चला गया। उसके साथ गंजड़ भी।

सुना है गाँजा पीने से चेहरा सूख जाता है। नानू उसका व्यतिक्रम है। माँ-बेटा आकृति और प्रकृति दोनों में ही विपरीत।

''जवान बेटा जंगली सूअर की तरह यहाँ-वहाँ घूमता रहता है, और चमगादड़ जैसी माँ तू जी तोड़कर मेहनत करती उसे खिलाने के लिए-इतना सर पर चढ़ाना क्यों?...'' यह पूछने पर नानू की माँ सहज भाव से बोलती, ''नहीं तो छोड़ेगा क्या बाबू? वह राक्षस हड्डी-पसली एक कर देगा मारकर। भूख लगने से अभागे को कुछ दिखाई-सुनाई नहीं पड़ता। घर के काम में एक तिनका तक हिलाता नहीं, दिन नहीं, रात नहीं, कहीं-कहीं घूमता रहता है, और पेट में आग लगे तो साँड जैसे चिघाड़ते हुए आएगा और कहेगा-जल्दी भात दे। एक मिनट रुकेगा नहीं, बाबू। देर होने से हमको पकड़कर अइसे मार कि तइसे मार!''

बड़े सहज ढंग से कहती। इस कथन में कहीं कोई दुःख या नाराज़गी नहीं झलकती है।

मज़े की बात तो यह है कि नानू का वह पेट दिन में कम-से-कम तीन-चार बार दहक उठता है, और उस ज्वाला की निवृत्ति भात छोड़कर और किसी चीज़ से नहीं होती। यहाँ तक कि कभी गलती से भी अगर भात की जगह चूडा-मूढ़ी या मालिक के घर से लायी बासी रोटी सामने लाकर रख दी, तो वह माँ के मुँह पर फेंककर बोलता, ''यह पिण्ड अपने बाप के श्राद्ध में दे जाकर।''

ये सब कहानी नानू की माँ लोगों को सुनाती, अपना दुखड़ा रोती। अन्त में कहती, ''भात बिना नालायक राक्षस को आँख से कुछ सूझता नहीं। करें तो क्या करें?''

नानू की माँ अपना पेट पाँच घर की रोटी-चाय से ही भरकर हाँडी का सारा भात नानू के आगे ही धर देती। पर बेटे के विषय में नालायक़, राक्षस, अभागा, दुश्मन जैसे विशेषणों के बावजूद नानू की माँ का अपार पुत्र-स्नेह किसी से छिपा नहीं था।

बेटे के लिए सारे पड़ोस के 'दादाबाबुओं' के छोड़े हुए शर्ट-पैण्ट से अपना घर भर डालती। नानू की माँ नानू को क्या-क्या खाना पसन्द है, उसकी एक लम्बी तालिका पेशकर पड़ोस की गृहिणियों से कुछ-न-कुछ बटोरकर ले आती।

पर यह सब तो बीती बातें हैं।

आती है नहीं, आती थी।

अभी तो हाल में जिस दिन भोर-अँधेरे किसी खटाल से गोबर चुनने को गयी उसी दिन भागती हुई लॉरी के नीचे नानू की माँ ने अपनी अन्तिम शय्या बिछा ली। नानू की माँ की मौत से सभी को बड़ा आघात लगा, ऐसी बात नहीं, मगर ऐसी बेमौत पर सभी के मुँह से 'आह' निकल गयी। और नानू की माँ कितना अच्छा बर्तन माँजती थी, कितने साफ़ कपडे धोती थी, इन सबका उल्लेखकर सभी ने उसके लिए यह यश वाक्य कह दिया, ''नानू की माँ जैसी और कोई नहीं होगी।''

चिन्ता की अगली धारा ऐसी रही, ''बुढ़िया मरकर जी गयी। उस नालायक, मूरख बेटे से तो छुटकारा मिल गया। जब तक जिन्दा रहती, वही बेटा उसे भून-भूनकर खाता।'' तो नानू की माँ जलने से बच गयी तो इसका अर्थ यह तो नहीं कि नानू मुहल्लेवालों को जलाने लगे? यह कैसे होने दिया जा सकता था!

नानू को गेट से आते देखकर अपने-आप को कठोर कर लिया मैंने और मन-ही-मन तैयार होने लगा-नानू अगर रो-धोकर सहायता मोंगे तो कैसे कठोर जवाब देकर जीवन भर के लिए उसकी आशा की जड़ पर वार कर दूँगा। पहली ही रात बिल्ली को चुप करा दो तो अच्छा। एक बार दया दिखाई कि फँस गये। माया-ममता के घर में ताला लगाकर रखना ही बुद्धिमानी है। अत: बुद्धिमान होने का स्थिर संकल्प कर बैठा।

मगर यह क्या?

यह कैसी अनहोनी प्रार्थना नानू की, नानू की प्रार्थना की वस्तु रुपये-पैसे नहीं, भात-कपड़े नहीं-सिर्फ एक तस्वीर।

''तस्वीर!'' हैरान होकर पूछा मैंने, '' 'तस्वीर' मतलब? किसकी तस्वीर? कैलेण्डर की?''

क्या पता, शायद अभागा दीवार पर टँगे किसी कैलेण्डर की सुन्दर नारी मूर्ति पर ही मर मिटा हो। परन्तु चेहरे के भाव कुछ और ही कहते।

मेरे प्रश्न को सुनकर नानू ने अपनी लाल-लाल आँखें उठाकर देखा। गाँजाखोरों की आँखे लाल ही होती हैं, उसमें कोई नयी बात नही। मगर नानू की वे लाल-लाल आँखें कितनी बड़ी हुआ करती थीं, ऐसे भीतर धँस गयीं कब? इन थोड़े दिनों में उसका चौड़े थाल जैसा चेहरा सूखकर छड़ी जैसा कैसे हो गया?

अर्थात् पेट-पूजा ठीक से न होने पर उसका पर्वत जैसा आकार भी डगमगाने लगा। खाना-पीना नहीं मिल रहा होगा शायद। मगर यह बात पूछकर ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेने की हिम्मत नहीं होती।

सच ही तो है। एक माँ के सिवा त्रिभुवन में उसका और कोई सगा था भी तो नहीं। किसे पड़ी है कि उसके लिए भात पका दे?

भात का खर्चा ही कौन देगा?

नानू की माँ की वह बात याद आ गयी-भात बिना सब जगह अँधेरा दीखता है नालायक को।

आज के दिन कुछ खाकर जाने को कह देता तो अच्छा होता...। नही, जरूरत नही। 'कंगाल को साग का खेत नही दिखाना चाहिए।' यह ऋषि वाक्य है। दिखाने का अर्थ ही है नहर खोदकर मगरमच्छ को आमन्त्रित करना।

नही, नहीं, उसे कुछ सीख मिलनी चाहिए।

अब समझ में आएगा कितने धान से कितना चावल निकलता है। समझ में आएगा कि हाथ-पैर नहीं हिलाने से भात जुटता नहीं।

लड़के का चेहरा बहुत ही सूखा हुआ था। हट्टा-कट्टा चेहरा जब सूखता है तो और भी करुण लगता है। मगर लगता है किसी-न-किसी की स्नेह-छाया मिल ही गयी है। नहीं तो कौन उसे शुद्ध करने के लिए नयी धोती, नया गमछा दे गया?

कौन दे गया पूछते हुए भी सँभल गया। जवाब पाने का अर्थ ही है, अपने दोष को उभारना। दूसरे लोग मानवता दर्शा रहे हैं और मैं नहीं, यह कोई सुखद अनुभूति नहीं है।

उससे तो अज्ञानता ही भली।

अज्ञानी को अपराध का बोध नहीं होता। वह कुछ देर चुप रहा।

नानू भी।

सर झुकाकर नानू अपनी कठोर उँगलियों से धरती पर लकीरें खींचता रहा।

फिर लम्बी साँस छोड़कर बोला, ''नहीं बाबू वह तस्वीर नहीं, फ़ोटोवाली तस्वीर! छोटे भैया की शादी के समय सब लोगों को लेकर जो 'ग्रुप' फोटो करवाया गया था-वही एक चाहिए।''

सुनकर तो और भी हैरान हो गया।

छोटे भेया की शादी के समय का ग्रुप फोटो? उस फोटो से तुझे क्या काम? नानू अपने कोरे गमछे के कोने से आँखें पोंछकर भर्रायी आवाज़ में बोला, ''उसमें माँ है, बाबूजी।''

''उसमें माँ है? तेरी?

नानू उदास स्वर में बोला, ''हाँ बाबू, बड़े भैया के मुन्ने को गोद में लिये-''

पता नहीं था मुझे। ध्यान से कभी देखा भी नहीं।. मगर बात क्या है? सचमुच मातृ-भक्ति उमड़ने लगी या यह भी कोई चालबाजी है। शायद हमदर्दी जगाकर असली बात पर आ जाएगा।

गम्भीर स्वर में मैंने कहा, ''माँ की तस्वीर उसमें है तो क्या हुआ? ले जाकर पूजा करेगा?''

नानू ने अपनी लाल-लाल आँखों को एक बार उठाकर ही सर झुका लिया। उसी तरह ज़मीन पर अदृश्य लेखन की लकीर खींचते-खींचते और भी उदास स्वर में बोला, ''उसी के लिए तो माँग रहा हूँ बाबूजी। घर के कोने में पीढ़े पर बिठाकर रोज़ सवेरे फूल चढ़ाकर पूजा करूँगा।''

''क्या बोला? सचमुच माँ की तस्वीर की फूल देकर पूजा करेगा?''

कठोर स्वर में मैंने कहा, ''नालायक़, पाजी, बन्दर कहीं का, नखरे दिखाने के लिए और कोई जगह नहीं मिली? जीवन-हर माँ को सताता रहा, मार-पीट करता रहा, अब मातृ-भक्ति दिखाने चला है?''

आवाज कुछ अधिक ही कठोर हो गयी।

मगर नानू का स्वर इतना कर्कश था, यह तो पता नहीं था। अचानक नानू अपने कठोर कर्कश स्वर को और भी बीभत्स बनाकर जोर-जोर से रो पड़ा, ''समझ मे नही आया बाबू। पहले समझ में नहीं आया। भगवान का बनाया ये चाँद, सूरज, ये हवा, रोशनी, ध्यान लगाकर देखा कभी? जन्म से ही माँ को उसी भगवान के चांद-सूरज की तरह देखता आया। कभी कुछ बदलाव नहीं। कभी नहीं सोचा, माँ किसी दिन मर जारागी।''

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