नई पुस्तकें >> तुलसी तुलसीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...
14
'बुआ की परवाह ही कितना करता हूँ मैं!'; सुखेन ने अपना विक्रम जाहिर किया, 'जिससे मेरी इच्छा होगी उसी से शादी करूँगा मैं।''
'तेरा बाप भी तो है।'
'रहने दे बाप को। वह किसी के लेने मे रहता है न देने में। दोनों वक्त खाना मिल जाये उसे, बस।'
राजेन मन-ही-मन तड़पता है। सारी बातें यह साला सुखेन ही कहे जा रहा है। खैर, कोई बात नहीं, दो दिन का वक्त तो दिया है, इस बीच अपनी बात वह भी कहेगा।
सुखेन जो चाहे जितनी बहादुरी जताये, उसकी बुआ रार मचायेगी। उस मामले में मुझे आराम ही आराम है।
और जग्गू? वह मन-ही-मन हिसाब लगाने लगता है, तीनों में किसकी नौकरी सबसे अच्छी है, किसकी तनख्वाह सबसे ज्यादा है, और सोचता है, कि और लोगों की तरह वह बातों में होशियार नहीं है तो क्या, लेकिन जहाँ तक नौकरी और आमदनी की बात है, उसी की नौकरी सबसे बढ़िया है, उसी की आमदनी सबसे ज्यादा है। और फिर तुलसी की अपनी आमदनी भी तो काफी अच्छी है। बड़े आराम से गृहस्थी की गाड़ी चल निकलेगी। सोचता है जग्गू। यह बातें वह तुलसी से बाद में करेगा।
बीड़ी सुलगा कर तुलसी ने एक लम्बा कश खींचा। फिर बोली तो यही बात रही। सोचना तीन लोमड़ियों के मशविरे का क्या फैसला निकलता है, देखा जाय।' तुलसी चली जाती है।
और वे, अपने विषय में कुछ नहीं कहते। तुलसी के प्रस्ताव पर कोई बात नहीं करते। बल्कि यह कहते हैं, यह साला डाक्टर है कौन? कौन-सा हरामी है यह?'
ननी की दुकान में, लोहे की सींक से लालटेन लटक रही थी। चौकी पर चटाई बिछी थी और ननी अकेले अकेले ताश फेंट रहा था।
तान्जुब है। दो-दो दिन निकल गये हैं। आज तीसरा दिन है, ननी की दुकान सूनी पड़ी है। ननी की ताश की मजलिस बन्द है। तीनों लड़कों में से एक भी इन तीन दिनों में, एक बार भी इधर नहीं आया है। क्या कारण है? मजबूरी यह है कि ननी दुकान से निकल नहीं पा रहा है। सुबह की भीड़ तो वह अकेले सम्भाल ही नहीं पा रहा है। कोई उपाय न देख, अपने बित्ता भर के बेटे को ही बुला, उसी से काम करा रहा है।
ऐसा तो पहले कभी नही हुआ था।
इधर दीदी ने भी कोरा जवाब दे दिया है।
अच्छा क्या तीनों एक ही साथ बीमार हो गये? ऐसा तो मुमकिन नहीं। ननी सोचता रहता है कि आखिरी बार जिस दिन वे आये थे उस दिन क्या-क्या बातें हुई थीं, कौन-कौन-सी घटना घटी थी। ताश की बाजी चल रही थी। तुलसी के आ जाने पर बाजी बीच में टूट गई थी। मगर ऐसा तो होता ही रहता है। मुँहजली तुलसी के आ धमकने से ऐसा तो हुआ ही करता है।
वह तो, जभी आती है, या तो किसी के हाथ के ताश छीन कर कहती है, 'जरा हट के बैठ, यह बाजी मुझे खेलने दे।' और लगती है ताश खेलने। फिर चारों में से एक को बेकार बैठना पड़ता है। अगर किसी दिन उसका ताश खेलने का मन नहीं होता है तो सिगरेट-बीड़ी फूँक धुँआ उड़ा, गप्प-शप कर, खेल का सत्यानाश कर देती है।
उस दिन भी तो ऐसा ही किया था। इसके अलावा और कोई हरकत तो उसने की नहीं। और ननी ने तो किसी से भी कुछ कहा नहीं था।
ननी चिन्तित होता है।
वह बातूनी लड़की तो जैसे मायाविनी, जादूगरनी है। तीनों छोकरे उसकी मोह में बँधे हैं। न किसी ने शादी ब्याह किया, न घर बसाया। अगर वे शादी कर लेते तो बीवी आकर यह माया-मोह के जादू का सफाया कर देती। अब ननी उन पर जोर डालेगा। वे ननी को बड़े भाई की तरह मानते हैं, तो ननी का भी तो कुछ फर्ज है।
ताश फेंट कर ननी पेशेन्स खेलना शुरू करता है।
उसके सामने एक परछाईं पड़ी।
परछाईं के पीछे से आवाज आई, क्यों जी ननी भैया, आज तुम्हारी यह दशा कैसे हो गई? इतनी जल्दी राजपाट कैसे समेट लिया?
ननी ने कहा, 'आ बैठ। राजपाट तो आज तीन दिनों से सिमटा हुआ।'
'सच? क्यों?'
'क्यों, यह तो तुझसे ही पूछने की सोच रहा था मैं।'
'मैं कैसे बताऊँ? क्या वे सब आते नहीं?'
'नही।'
'मतलब यह कि ताश-वाश सब बन्द है!'
'हूँ।'
'नहीं और हूँ' तुम्हें आज हो क्या गया है?'
'होता क्या? तबीयत लग नहीं रही। चुपचाप बैठा हूँ। उनके साथ इस बीच मुलाकात हुई है तेरी?'
तुलसी का दिल काँप उठता है।
एकदम झूठ कैसे बोल दे?
कैसे कहे वह कि मुलाकात रोज ही हुई है, हो रही है। सुबह-शाम। मैंने चाहा था कि तीनों में से किसी एक से शादी कर जरा चैन से बैठूँ, और सच तो यह है कि मेरा मन भी पक्का ही था। मेरा ख्याल था कि सिर्फ सुखेन ही राजी होगा। वही तो सब दिन से मेरा रखवाला बना फिरता है। उसके हर भाव से यही लगता है कि मेरे ऊपर उसका न जाने कब का अधिकार है। पर अब देख रही हूँ कि तीनों के तीनों मेरे लिये...'
ननी ने टोका, 'क्या सोचने लगी? मैंने पूछा वे मिले थे कि नहीं, सुन कर तू इतनी चिन्तित क्यों हो गई? कि उनमें से कोई बीमार तो नहीं?'
बीमार हो दुश्मन! सोच रही हूँ कि पिछली बार कब मिले थे वे।'
'तेरी बात के ढंग से लग रहा है कि तू कुछ छिपा रही है।'
चौकी के एक कोने में बैठे तुलसी ने ताश की गड्डी उठा ली। ताशों की गड्डी फेंटती हुई वह बोली, 'तुम्हारी आँखों से कुछ छिपाये नहीं छिपता ननी भैया। तो फिर सारा हाल बता ही दूँ। एक सिगरेट सुलगा लूँ?'
चिढ़ कर ननी ने कहा, 'क्यों, दो मिनट वह धुँआ न निगलेगी तो कौन-सी मौत आ जायेगी? ऐसी नीच, गन्दी आदत कहाँ से डाल ली है?'
'नीच गन्दी आदत?'
हँस पड़ी तुलसी। 'ननी भैया तुम तो पता नही क्या-क्या कहते हो। अच्छे-भले घर की औरतें नहीं पीती सिगरेट? कहती हैं यही तो मार्डन फैशन है। हमारे बड़े सर्जन की साली आई थीं अस्पताल देखने। सुना कि किसी बड़े अफसर की बीवी हैं। अस्पताल का एक राउण्ड लगाते-लगाते उन्होंने पूरी एक पैकेट फूँक डाली।'
तारीफ के काबिल काम किया! अफसर की बीवी को जो शोभा देता है वह हमारे जैसे दीन-दु:खियारी पर नहीं फबता रे तुलसी! वे जो भी करें, फैशन कहलायेगा, और हम उस को करने जायें तो वह नीचता हो जाता है।'
'ओफ! हद कर दी तुमने। छोटी-छोटी बातों पर भी तुम ऐसे प्रवचन झाड़ने लगते हो कि कहना नहीं। कोई बात नहीं, तलब तो लगी है, उसे पूरी किये बिना ही कहती हूँ। कई परेशानियों के कारण मैंने फैसला किया है कि अब लावारिस नहीं रहूँगी। अब एक वारिस पकड़ कर बेफिक्र होना है मुझे। मिल जाने पर चैन से सो सकुगी।'
तीव्र स्वर से ननी ने कहा, 'इतनी भूमिका बाँधने की क्या जरूरत थी? साफ-साफ कहती क्यों नहीं कि शादी करने की इच्छा हुई है। मगर यह परेशानी कैसी?'
तुलसी ने एक बार ननी को देखा। फिर आँखें नीची कर फटी चटाई की एक टूटी सींक के टुकड़े-टुकड़े करती हुई धीरे से बोली यह सब तुमसे क्या बताऊँ ननी भैया? भैया कहती हूँ, अपने से बहुत बड़ा मानती हूँ। इस दुनिया में जानवरों की तो कोई कमी नही, तुम तो जानते ही हो।'
'हूँ! तो शादी क्या पक्की हो गई है? वर कहाँ का है? वह सरकारी अस्पताल की दाई की बाँह पकड़ने को तैयार तो है न?'
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