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तुलसी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15410
आईएसबीएन :81-8113-018-9

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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...

13

'हाय! यह मैंने क्या किया? बता ही दिया। खैर, आगे न बताऊँगी। मेरे कहने का मतलब इतना ही है कि अगर तू उसकी खोपड़ी फोड़ेगा तो बेचारे रोगियों की तकदीर भी फूट जायेगी।

'यह सब पाजी, शोहदों ने एक हुनर सीख ली है, तो उन्हें जिन्दा ही रहने दिया जाय?'

यही तो इस दुनिया का नियम है रे जग्गू! कितनी बड़ी-बड़ी हस्तियों के उजले कपड़ों के नीचे कितनी सड़ान्ध भरी है। फिर भी, समाज उन्हें सिर आँखों पर चढ़ाये रखता है, क्योंकि वे समाज के काम आते हैं।'

राजेन अब तक चुप था। अब, क्षोभ से भर कर वह बोला, 'और हम, जो समाज के किसी काम नहीं आये, हमें इस दुनिया की जूतियों के सुखतले हैं। यही न?'

'एकदम ठीक। पर तुलसी, तू न भी बताये तो क्या वह कुत्ता कौन है, मैं समझ रहा हूँ। वह बुढ्डा बदमाश इसके पहले भी कई काण्ड कर चुका है। उसे खत्म कर देना एक बहुत अच्छा काम होगा।'

हताश हो तुलसी बोली, कैसी उल्टी खोपड़ी है तेरी? तू तो बस खत्म करना ही जानता है। उससे मुझे क्या लाभ? कौन-सा भरोसा मिलेगा? खटमलों को जितना मारा जायेगा, उतने ही बढ़ेंगे। एक कुत्ते को मारकर कितना काम बनेगा रें? मैं तुम लोगों से कुछ और कहने आई थी।'

कुछ और कहने आई थी?

ऐसा तो उन्होंने सोचा ही नहीं था। सोचा था यों ही घूमते-घामते आ गई होगी।

क्या कहने आई थी?' तीनों एक साथ बोल पड़े।'

आँचल सम्भाल तुलसी जमके बैठी।

किसी की तरफ नही देखा उसने। सामने खड़ी रेज की गुमटी पर नजर जमा कर धीरे-धीरे बोली, बिल्ली के मुँह में मछली बचाते-बचाते तो मेरी जिन्दगी जहर होने को आई। यह भी बिल्कुल पक्का है कि बिल्ली-कुत्ते को मारने से इस समस्या का समाधान होंगा नहीं। समाधान यही है कि मछली को जहाँ-तहाँ पड़ा न रहने देकर उसे छींके पर उठा रखना। इसलिये मैंने फैसला किया है कि इस तरह और लावारिस न घूम कर, अपने को किसी के सुपुर्द कर दूँगी। जग जीतते-जीतते थकी जा रही हूँ मैं।' आँचल से तुलसी ने पसीना पोंछा।

सुखेन, राजेन और जग्गू एक-दूसरे को देखने लगे।

तुलसी की बातों में आज नया सुर बज रहा है।

इस विचित्र कथन का असली अर्थ क्या है?

तो क्या तुलसी ने चुपके-चुपके कुछ इन्तजाम कर लिया है?'

पर, तुलसी तो बहुत थकी हुई है।

आज तुलसी को देख बड़ी दया आ रही है। रोज की भटकती-चटकती तुलसी आज उदास है, विषण्ण है।

कौन क्या कहेगा, कोई तय नहीं कर पा रहा था, इसलिये वे एक-दूसरे को देखते रहे।

तुलसी ने फिर कहना शुरू किया, 'मुँह झौंसे भगवान ने औरत बात को ऐसा असहाय बनाया है कि कहने को नहीं। उनके जिस्म को ऐसा बनाया है कि जो देखे उसके मुँह में पानी भरने लगे। कौन बतायेगा कि किस पाप के कारण यह सजा दी है भगवान ने औरत को? यह अड़चन न होती तो मर्द-औरत बराबरी से जी सकते थे। पर ऐसा वे क्यों होने देते? विधाता खुद भी तों पुरुष हैं न, वे औरत जात के सुख-दुख को भला क्या समझते? जाये मरे। जो है वह तो बदला नहीं जा सकता न? औरत जात को हमेशा फाँसी की असामी होकर ही रहना पड़ा है, आगे भी रहना पड़ेगा। लेकिन छोड़ इस पचड़े को। जो बात कहने आई थी, उसी को साफ-साफ कहूँ। मैंने सोच कर देखा कि शादी कर डालना ही इस समस्या का एकमात्र समाधान है।'

'शादी' मतलब तेरी? मूर्ख जग्गू ने एक बार फिर अपनी मूर्खता दर्शाई।

तेरी भी हो सकती है, हँस कर तुलसी बोली, शादी करना ही है तो तुम तीनों में से किसी एक से करना ही ठीक होगा। इस आयु में एक नये आदमी को पकड़ उससे प्यार-मुहब्बत का खेल मुझसे खेला न जायेगा। तुम लोगों के साथ परिचय पुराना है, प्यार भी है। अब बोलो, कौन राजी है?'

'कौन राजी है!'

तीन-तीन जवाँ-मर्द मुँह खोले एक-दूसरे को देखते रहे।

यह कैसा प्रस्ताव है भाई?

इस तुलसी की सारी बातें ही अजीब हैं।

सुखेन ही सब से पहले होश में आता है। सुखेन ही बात के सूत्र को उठा भी लेता है। कहता है, राजी न होने की बात कहाँ से आई?'

ओफ! कितना चालबाज है यह सुखेन! एकदम चट से जवाब सूझ गया उसे! राजेन और जग्गू तड़प उठते हैं।

यह बात तो मैं भी कह सकता था! पर राजेन चूकता भी नहीं। सुखेन की बात खत्म होते न होते वह बोल पड़ा है, हमारे राजी होने न होने की बात तो तुलसी उठती ही नहीं। तू जिसे भी पसन्द करेगी...'

'हाँ हाँ, यही तो बात है।' मौका पाते ही जग्गू भी अपनी बात कह देता है, इतने दिनों बाद तुलसी की जब ब्याह करने की इच्छा हुई है, मतलब शादी करने को राजी हुई है...'

तुलसी ने कहा, यहाँ न मेरी इच्छा की कोई बात है, न पसन्द की। राजी होने न होने का तो सवाल ही नहीं है। मैं तो यहाँ आई हूँ सिर्फ मुसीबत से बचने के इरादे से। कहा जा सकता है, तेरे शरण में आई हूँ। अपना भार अब मेरे से ढोया नहीं जा रहा है। अगर किसी की ब्याहता घरवाली हो जा सकूँगी, तो बाकी दुनिया मुझे पब्लिक की सम्पत्ति नहीं समझेगी।'

तीनों एक साथ कुछ बोल पड़े है।

उनकी बातों का अर्थ तो समझ में नहीं आता, पर उनकी अकुलाहट स्पष्ट है। इस अकस्मात् प्रस्ताव के आघात से वे विमूढ़ हो गये हैं।

'हाय रे नसीब! तुलसी को अगर यही कहना था, तो यहाँ, इस तरह से क्यों कहा?' सुखेन ने मन-हीं-मन अपना सिर पीट लिया।

तुलसी जानती नहीं क्या कि बचपन से ही वह तुलसी के नाम पर मरता मिटता है? जानती नहीं तुलसी कि किस दृष्टि से उसे देखता है वह? एकान्त में बुला क्या वह एक बार कह नहीं सकती थी, 'सुखेन, सोचती हूँ कि अब शादी कर डालनी चाहिये।' बाकी जो कहना होता, सुखेन ही कहता। अपनी इच्छा प्रकट करने के बाद फिर कुछ कहना न पड़ता तुलसी को। सुखेन ने भी तो सोच ही रखा था कि अब शादी कर ही डालेगा। अगर उस शादी की 'बधू' तुलसी होने को तैयार हो, तो फिर इस दुनिया में माँगने को रह ही क्या जाता है?

पर बलिहारि जाऊँ उसकी अक्ल पर! जो करने को था वह न कर, बीच बाजार में वह तीन आदमियों से एक साथ पूछती है, मेरे से कोई शादी करेगा?'

राम, राम! इतनी अक्लमन्द है तुलसी, और उसी ने अपनी अक्ल का यह नमूना पेश किया?

प्रगाढ़ स्वर में सुखेन बोला, 'तू तो जानती है तुलसी, तुझे मैं हमेशा से किस दृष्टि से देखता आया हूँ...'

'अरे, वह तो पता है मुझे।' बिना झिझके तुलसी कहती है, जानती हूँ तीनों के ही दिल का हाल। मेरे लिये कोई खास पसन्द का सवाल नहीं उठता है। तीनों में, जिसे सुविधा होगी, आर्थिक दृष्टि से जिसे कष्ट न होगा, मैं उसी के साथ फेरे डालने को तैयार हूँ। मुझे अभी फौरन जवाब नहीं चाहिये, दो दिन का वक्त देती हूँ, घर जाकर सोच-समझकर देखो। अपने मन से पूछो। मेरा क्या बनता-बिगड़ता है? जैसे इतने दिन कटे, वैसे बाकी दिन भी काट दूँगी।' उठ खड़ी हुई तुलसी।

चलते-चलते हथेली फैला कर बोली, 'ला दे, एक बीड़ी और दे। चलूँ। खूब सोच-समझ कर जवाब देना मुझे। सुखेन की सबसे बड़ी अड़चन है उसकी बुआ। क्या वह सरकारी अस्पताल की आया को बहू बना घर में जगह देने को राजी होगी? लगता तो नहीं।'

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