नई पुस्तकें >> तुलसी तुलसीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...
तुलसी
1
वे ताश खेल रहे थे।
सुखेन, ननी, राजेन और जग्गू।
स्थान, काल, पात्र का सम्मेलन-बिल्कुल सोने में सुगन्ध सा। उसके चारों तरफ की हालत देख कर पहला ख्याल यही आयेगा। ऐसे ही परिवेश में ये फिट बैठते हैं। ऐसी जगह और ऐसी परिस्थिति में ही ये जँचते हैं।
जगह है, करणपुर रेल स्टेशन के निकट एक चाय-बिस्कुल की गुमटी। गुमटी के सामने दो काली-काली चौकियाँ पड़ी हैं। सो भी सीधी नहीं, टेढी-मेढ़ी हो, आड़ी-तिरछी पड़ी हैं। उनके सामने बाँस की दोनों खूँटियों पर नारियल की रस्सी के दो बण्डल बँधे हैं। इस रस्सी के बण्डलों के जो सिरे झूल रहे हैं, अभी थोड़ी देर पहले भी वे सुलग रहे थे। इस वक्त आखिरी ट्रेन जा चुकी है, इसलिये उन्हें बुझा दिया गया है।
दुकान ननी की है।
और उम्र में ननी ही सबसे बड़ा है।
यह लोग ननी की दुकान के कामगर तो नहीं हैं, पर सुबह जब एक की पीठ पर दूसरी-तीसरी ट्रेन आती है, और ननी की दुकान में ग्राहकों की भीड़ लगी होती है, उस वक्त इनमें से कोई न कोई ग्राहकों को जरूर दिखाई पड़ जाता है। यह लोग ननी की सहायता करने आते है। वैसे इन तीनों की ही इस रेल स्टेशन के अन्दर कहीं न कहीं, कैसी न कैसी छोटी-मोटी नौकरियाँ है। अपनी नौकरियों की ड्यूटी के बीच वक्त निकाल यह लोग ननी की दूकान में अपनी खुशी से ड्यूटी बजा जाते हैं।
रुपये-पैसों से कोई मतलब नहीं, एक गिलास चाय और दो देसी बिस्कुट, बस इतना ही। इसके बदले यह लोग आ जाते हैं, जोर-जोर पंखा झल कर चूल्हा तेज करते हैं। टोपिया के खौलते पानी में चाय के चूरे की पोटली बना कर डाल देते हैं, उसी में दूध-चीनी मिला, कलछुल से घोंट, शीशे के गिलासों में डाल-डाल कर परोसते जाते हैं। ग्राहकों की फर्माइशें पूरी करते-करते हैरान हो जाते हैं, परेशान हो जाते हैं, फिर भी सब को वक्त से खुश नहीं कर पाते।
ननी सिर्फ बिस्कुट देता है और पैसों का लेन-देन सम्हालता है। गुमटी के कोने में एक मिट्टी की हाँडी है, बीच-बीच में उठ कर उसी में पैसे डाल आता है। ननी की माँ कहा करती थी, 'घर ही है लक्ष्मी का आधार। घर में ही सारे देवी-देवताओं का बास है। ग्राहकों का पैसा तू भी घर में ही रखा करना ननी। जब रात हो जाये तब उसमें से निकाल कर घर ले आना, पेटी में रख दिया करना।'
माँ की ही बात मानता चला आ रहा है ननी।
मानने में भलाई ही है।
बार-बार कैश-बाक्स खोलो, बन्द करो, बड़ा वक्त बर्बाद होता है इसमें। ट्रेन शाम को भी आती है।
पाँच-पचपन, सात-चालीस और नौ-बत्तीस पर। यही अन्तिम गाड़ी है।
शाम को लेकिन सुबह की तरह दौड़-भाग नहीं मचती। उस वक्त ग्राहक कम होते हैं, और काम काफी निपट चुका होता है। सुबह की भीड़ छँट जाते ही ननी एक टोपिया चाय बना, चूल्हे में चूरा-कोयला डाल, उसी पर रख छोड़ता है। ग्राहक आने पर चाय उसी में से उँडेलता जाता है। इतनी जल्दी दूध मिलाने से चाय काली पड़ जाती है, इसलिए देते समय दूध मिला देता है। शाम को ननी को जरा फुर्सत होती है। बीच में बिछी चौकी पर बैठ कर बीड़ी पीने का मौका मिलता है, एकाध जाने-पहचाने ग्राहक से बोलने-बतियाने का मौका लिता है।
ननी से बहुत लोग कहते हैं कि अगर सुबह के वक्त वह चाय के साथ आलू-चाप और प्याज की पकौडी भी बनाया करे तो खूब बिकेगी। इनकी बदौलत ही उसकी खपरैल वाली गुमटी की जगह पक्का मकान बन जायेगा।
मगर ननी इस सलाह पर कभी ध्यान नहीं देता?
जवाब में वह ग्राहकों से कहता है 'रहने दीजिये भाई साहब! जो है, ठीक है। चाय, चीनी और दूध का पाउडर तो हमेशा रखता ही हूँ, बिस्कुट भी कनस्तर भर कर ररवता ही हूँ, और है बीड़ी। बस काफी है। यह सब पकौड़ी सकौड़ी गर्म सामान बनाने लगूँगा तो दिवाला निकल जायेगा मेरा। जो अपना है वही अच्छा है। कहने वाला अगर जान पहचान का होता है तो कभी-कभी ननी उदास होकर यह भी, कहता है, 'और होगा भी क्या? किसके लिये करूँगा इतना।'
कुछ दिन पहले, रेल अस्पताल के जच्चा-वार्ड में ननी की बहू मर गई है। जीती-जागती घरवाली उसकी, कहना न पूछना, बस मर गई। तब से ही ननी के मन में वैराग्य की यह भावना जागी है।
उसके शुभाकांक्षी तब कहते हैं, 'ऐसा क्यों कहते हो ननी? फिर, घर का बोझ तुम्हारे ऊपर है, अपने भी, बे-माँ के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। इतना सब तुम्हीं को तो संभालना है, इन सबों के लिये तो सभी कुछ जरूरी है न?'
बात काट कर ननी कहता है, 'अब किसी के लिये भी कुछ करने का मन नहीं होता मेरा। रोटी-कपड़ा देना मेरा फर्ज है, इसलिये देता जा रहा हूँ। बस।'
चाय-बिस्कुट-सप्लाई से जो धन घर आता है, उसी से सन्तुष्ट है ननी और सन्तुष्ट है अपने दोस्तों के बर्ताव से। ये जो सुखेन, राजेन और जगाई हैं, यह लोग ननी के कौन हैं? कोई भी तो नहीं। बहुत साल पहले बंगाल छोड़, न जाने किसके-किसके जूतों की ठोकरें सहता हुआ वह जब यहाँ आया था, बिहार के इस छोटे से रेल स्टेशन में, तब हिन्दी का एक शब्द भी नहीं जानता था वह, यहाँ के किसी आदमजाद को। देखा जाये तो हिन्दी नहीं जानने वाले ऐसे लोगों की कमी नहीं इस दुनिया में, किसी तरह 'हियाँ से' 'हुआँ से ' कर के वे अपना काम चला ही लेते हैं, पर ननी से यह भी नहीं होता था। उन दुःख भरे दिनों में, पता नहीं कैसे, ईश्वर की किस कृपा से, अपनी भाषा बोलने वाले इन तीनों से मुलाकात हो गई थी। ये लोग हिन्दी तो बढ़िया बोलते ही हैं, और जब इस 'परदेस' में वे बंगला बोलते हैं तो मालूम होता है कि पानी बरस रहा है। ननी ने भी उन्हें ईश्वर की कृपा की तरह ही अपना लिया था।
वह बन्धन आज भी वैसा ही अटूट है।
ननी ने उन्हें कभी अपने से अलग नहीं किया। इन्होंने भी कभी बेइमानी नहीं की। पर जो काम उसने नहीं किया, उसे पूरा किया था ननी के भाई फणी ने।
जब ननी के पाँव जमने लगे, तब उसने घर से अपने निकम्मे भाई फणी
को अपने पास बुला लिया था। साथ ही, खाना-वाना बनाने के लिये अपनी विधवा बड़ी बहन पद्मा को भी।
पद्मा को यहाँ बुलाने का एक उद्देश्य और भी था।
घर में अगर कोई औरत न हो, तो शादी की बातचीत कैसे चलेगी? शुरू कौन करेगा? अपने मन से जाकर शादी कर लेने से उसमें 'शादी वाली' महक आती है कहीं? और यह भी सच है कि उस हालत में अच्छे रिश्ते आते भी नहीं। चाय की दुकान का मालिक? सिर्फ इतना ही परिचय! लोगों के मन में सन्देह जागता है।
अब तो ऐसा कोई कह नहीं सकता? घर में बड़ी बहन है, भाई है छोटा एकदम फली-फूली गृहस्थी वाला। अब उसे जो देखेंगे, लड़की देने को उत्सुक होंगे। ननी का यह हिसाब बिल्कुल सही साबित हुआ था। शादी उसकी भले घर में ही हुई थी। और लड़की वाले उसकी बहन पद्मा के कारण ही उसे लड़की ब्याहने को बढ़े थे। उसकी पत्नी कनक उसकी बहन पद्मा की दूर के रिश्ते के देवर या जेठ की बेटी थी।
बड़े गुणों वाली थी। ननी की तकदीर में इतना सुख बदा नहीं था। दो छोटे-छोटे बच्चे छोड़ 'फटाक ' से मर गई वह। पद्मा ने बहुत-बहुत कहा था कि बहू मर गई तो क्या हुआ? इस उम्र में यह वैराग्य कैसा? तू फिर शादी कर ले।'
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