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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

33

चंचला चली गई। मंजरी तीक्ष्ण धार बुद्धि लिए सोचने लगी कि यह सिर्फ सुरेश्वर का चंचला के प्रति आकर्षण मात्र है या किसी और की छलझपट की बुद्धि इसके पीछे काम कर रही है?

कौन जाने सब कुछ प्लॉन बनाकर तो नहीं किया जा रहा है। वरना इतने शहर हैं देश में, अभिमन्यु को यहां आने की क्या जरूरत थी? फिर संध्या भ्रमण के लिए इन लोगों ने वही जगह क्यों चुनी? यह क्या केवल दैवी घटना मात्र थी?

लेकिन अगर सब कुछ योजनाबद्ध था तो क्यों? क्यों, क्या जरूरत थी? कहीं सुनीति का जासूस बनकर तो नहीं आया है अभिमन्यु चंचला का उद्धार करने? और जब उद्धार कर लिया तब लौटाया क्यों?

तो फिर?

मंजरी की नसों में तेजी से खून दौड़ने लगा, चेहरा कठिन हो उठा। तो क्या वह भी वनलता जैसी हुई जा रही है? जिस कारण मंजरी ने कलकत्ता छोड़ा था, अपने आपको बर्बादी के रास्ते पर लिए जा रही है क्या वह सब सच साबित होने जा रहा है?

धन ही सब कुछ है धन ही मेरा आवरण बना जा रहा है?

धन का आवरण क्या सारे कलंकों को छिपा लेता है? और वनलता का अर्जित वह सत्य? ''जीवन के किसी क्षेत्र में कहीं भी जरा सी प्रतिष्ठा अर्जित कर लो, बस सारे कलंकों के बावजूद लोग तुम्हारी इज्जत करना शुरू कर देंगे।''... यह बात क्या प्रमाणित हो जाएगी इस बार?

असहाय मंजरी को अभिमन्यु ने अपमानित किया था, उसकी अवहेलना की थी लेकिन आज शायद ऐसा नहीं कर पा रहा है। आज यश है अर्थ है। प्रतिष्ठा के सिंहासन पर बैठी मंजरी को शायद वह नए सिरे से नए रिश्ते से बांधना चाहता है। इसीलिए ये छल-दूत भेजा जा रहा है। हो सकता है दूत के पीछे खुद भी हो।

संदेश नि:संदेश के सिद्धांत में बदल गया।

याद आई वनलता की एक तीखी टिप्पणी, ''ढेरों रुपये लेकर करेगी क्या? त्याग किए पति को क्या फिर से रुपया देकर खरीदेंगी?''

कोशिश करके खरीदना नहीं पड़ रहा है, वह पतंगा तो खुद ही बिकने के लिए आ गया है। लेकिन मंजरी तो नहीं चाहती है बिकना, उपाय भी नहीं है अब। अतएव मंजरी को अपना मन कठोर बनाना पड़ेगा।

अगर अभिमन्यु उसकी खुशामद करने आए, मंजरी अपना मुंह फेर लेगी। अगर मंजरी के धन पर अभिमन्यु लुब्ध दृष्टि डालेगा तो मंजरी दोनों हाथों से वह धन उठाकर, अभिमन्यु के मुंह पर फेंक देगी।

यही होगा सही जवाब। उचित उत्तर।

सोचते-सोचते मंजरी ठिठक गई। अभिमन्यु क्या ऐसा है? सोचते-सोचते उसके मानस चक्षु खुल गए जब अपने मन में अपराधबोध जागता है तब मन का बोझ हल्का करने के लिए सारा दोष दूसरे के सिर पर लाद देना उचित जान पड़ता है। हो सकता है वह दोष मनगढ़ंत और कल्पनिक है। ऐसा नहीं करेगा तो इंसान क्या लेकर जीएगा? अपराधभार से दबे मन को लेकर जिंदगी गुजारता कैसे?

इसीलिए अभिमन्यु ने जो दोष किया नहीं है, जिस दोष को उसके लिए करना संभव है या नहीं, मन-ही-मन मंजरी उसी दोष की उचित सजा सोचती रही।

अभिमन्यु 'वैसा' नहीं है, यह बात कैसे कहा जा सकता है? हमेशा से वह आरामप्रिय ऐयाश किस्म का है, आत्ममर्यादाबोधहीन है। वरना जब भाइयों ने शहर में नए-नए मकान बना लिए और ठाट से रहने लगे तब अभिमन्यु अपने बाप का टुट्हा मकान लिए, कृतार्थ भाव से इसी प्रासाद में पड़ा रहा। पूर्णिमादेवी दूसरे बेटों से मिला जेबखर्च का रुपया अभिमन्यु की गृहस्थी पर खर्च करती रहीं और बिना किसी शर्म के अभिमन्यु ने इस व्यवस्था को मान भी लिया। तब फिर?

सोचते-सोचते वह इस नतीजे पर पहुंची कि अभिमन्यु नंबरी स्वार्थी और लोभी है। आराम ऐश ही उसके जीवन की कामना है। इसीलिए तो कभी भी कामयाबी के ऊंचे शिखर पर चढ़ने की तागीद महसूस नहीं की उसने। सीटी

बजाकर गाना गाकर जिंदगी गुजार देना ही उसका उद्देश्य था।

अतएव अब वह अनायास ही मंजरी का पुजारी बन सकता है।

इसी चिंता से जब उसका गर्म खून रगों में दौड़ने लगा तभी आया सुरेश्वर।

त्रुटिहीन पोशाक में सजा-संवरा दीर्घदेही कांतिवान युवक। आते ही हाथ जोड़कर हंसते हुए बोला ''पहले ही अभय प्राप्त कर चुका हूं नाराज नहीं हो सकेंगी।''

मंजरी ने नमस्कार का उतर देते हुए, गंभीर भाव से कहा, ''खामखाह नाराज क्यों होवूंगी?''

''क्यों नहीं? आपका मूल्यवान समय नष्ट करने आया हूं। पर डरिए नहीं, ज्यादा देर तक परेशान नहीं करूंगा। अनुमति मांगने आया था, चंचला को जरा घुमाने ले जाऊंगा।''

मंजरी तीक्ष्ण स्वर में बोली, ''प्रार्थना किसकी है?''

''और किसकी? मेरी। दूसरे के नाम पर काम करना मेरी आदत नहीं है।''

मंजरी और तीखी आवाज में बोली, ''मैं अभिनेत्री हूं मेरी रीति नीति अलग है लेकिन आप तो बंगाली घर के लड़के हैं, आपकी यह मांग उचित है या नहीं आप ही बताइए।''

मंजरी ने सोचा था इस अपमान का जोंक पर नमक पड़ने जैसा असर होगा। इस अपमान से मुंह काला कर वापस चला जाएगा अभिमन्यु का जिगरी दोस्त। लेकिन मंजरी का आश्चर्यचकित कर वह युवक हंसने लगा। हंसी सुनकर चौंक उठी मंजरी। उसने युवक की तरफ देखा तो शर्म से पानी-पानी हो गई।

कैसा सुंदर कितना पवित्र कितनी सरल हंसी है।

यह हंसी तो मानो स्वर्ग से मिली चीज हो। जो ऐसी हंसी हंस सकता है उसका मन मलिन हो ही नहीं सकता है। वही हंसी हंसकर सुरेश्वर बोला उठा, ''आपका कहना ठीक है उचित नहीं है। लेकिन यह केस कुछ और है। मैं चंचला से शादी करूंगा इसीलिए मेरे साथ इसे... ''

''वाह, खूब।''

मंजरी कड़वी व्यंगपूर्णा हंसी हंसकर बोल उठी, ''ये तो, कालनेमी का लंका में हिस्सा पाने जैसी बात हुई।''

''मजाक करके आप मुझको वश में न कर सकेंगी।'' फिर हंसने लगा सुरेश्वर, ''मैंने अपना इरादा पक्का कर लिया है। और फिर उम्मीदवार की दृष्टि से मैं कुछ बुरा भी नहीं हूं... कभी किसी जमाने में पढ़ाई लिखाई भी की थी मैंने, पिता का छोड़ा काफी धन है, जाति का ब्राह्मण हूं शक्लसूरत तो आप देख ही रही हैं... नितांत निंदनीय नहीं है और फिर आपकी बहन की बेटी कौन सी रूपसी है।''

उसके कहने के ढंग पर मंजरी गुस्सा होना भूल गई। लगभग हंसते हुए बोली, ''लेकिन आपसे शादी करवा कौन रहा है?''

''आप ही लोग। ये देखिए न, स्वयं कन्या की मां का हुक्मनामा जुटा लिया है मैंने, बस अब कन्या की मौसी की इजाजत पाने भर की देर है।''

''मां का हुक्मनामा?''

अवाक् होकर पूछा मंजरी ने।

''हां, देखिए न। इस बीच अभिमन्यु दा के आगे हाथ पांव जोड़कर, काफी खुशामद करके एक पत्राघात करवाया और तब जाकर उत्तर पा सकने में समर्थ हुआ हूं।''

अजीब है ये लड़का।

कौन कहेगा कि मंजरी से अभी-अभी मिला है। लग रहा है युगयुगांतर से परिचय है।

जेब से एक चिट्ठी निकालकर उसने आगे बढ़ा दिया।

सुनीति की लिखाई थी। संबोधन अभिमन्यु को किया था।

हृदय धड़कने लगा फिर भी हाथ न बढ़ा सकी। मन को कठोर बनाकर बोली, ''दूसरों की चिट्ठी पढ़ने की मेरी आदत नहीं है।''

''अहा, 'आदत है' यह अपवाद कौन लगा रहा है? मान लीजिए मैं अनुरोध कर रहा हूं। लीजिए, पढ़कर देखिए तो।''

लोभ असंबरणीय हो गया, कोतूहल दुर्दमनीय हो उठा। मरुभूमि के यात्री के लिए पानी से भरा घड़ा लाया था सुरेश्वर।

कितने दिन हो गए दीदी के हाथ की लिखाई को देखे, कितने दिन हो गए अभिमन्यु का लिखा हुआ नाम देखे। मंत्राहत सी हाथ बढ़ाकर चिट्ठी ले ली, स्वप्नाहत सी पढ़ने लगी।

छोटी सी चिट्ठी।

सुनीति ने लिखा था, ''भाई अभिमन्यु! तुम्हारी चिट्ठी से सारा हाल मिला। चंचला की खबर मुझे कानाफूसी से मिली थी लेकिन मैं विचलित नहीं हुई थी। क्योंकि अब मैं किसी भी काम को अपना कर्त्तव्य नहीं मानती हूं। जानती हूं कि गुरुदेव की इच्छा के वगैर एक पत्ता तक नहीं हिलेगा।

तुम जिसे सुपात्र कह रहे हो, उसके बारे में मुझे कुछ नहीं पूछना है। वह अगर पथभ्रष्ट अबोध लड़की पर दया करके उसे अपने चरणों में स्थान देते हैं

तो इसे मैं गुरुकृपा ही समझूंगी। आशीर्वाद करती हूं प्रसन्न रहो। इति, तुम्हारी दीदी।''

न:, मंजरी का नाम तक नहीं है।

गुरुकृपा लाभ से धन्य व्यक्ति के लिए शायद ममता शून्य होना निंदनीय नहीं है। शायद प्रशंसनीय ही है।

चिट्ठी मालिक को लौटाते हुए क्लांत स्वर में मंजरी बोली, ''आक्समात इस बात का ख्याल कैसे आया?''

''किस बात का? शादी का? ख्याल नहीं है, संकल्प है। जिस दिन उसे देखा था उसी दिन।''

''ताज्जुब है। उसकी क्या शादी की उम्र है?''

हुई है या नहीं इसका जवाब तो आप ही ने सबसे पहले दिया है।''

सुरेश्वर हंसने लगा।

मंजरी को अपनी कही बात याद आ गई।

''मेरे लिए आपका यह प्रस्ताव तूफान की तरह आकस्मिक है। खैर, कन्या के प्रकृत अभिभावक की सम्मति जब पा गए हैं तब फिर मुझे क्या कहना है?''

''ऊंहुं! ऐसे नहीं, मुझे आपकी खुशी से दी गई सम्मति चाहिए।''

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