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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
32
सुरेश्वर गंभीर भाव से बोला, "हमें तो किसी बात से आपत्ति नहीं है... वह तो आपका मामला है।"
"चलो, यह बात तुम्हारी समझ में तो आ गई।" अभिमन्यु कुर्सी से उठकर बालकनी में जाकर खड़ा हो गया।
सुरेश्वर भी उठकर आया। अभिमन्यु के बगल में खड़े होकर गंभीर भाव से बोला, "अभिमन्यु, पहले सोचा करता था आप देखतुल्य इंसान हैं... वह भ्रम भंग हो गया मेरा।"
उसकी तरफ देखकर अभिमन्यु मुस्कराया, "गलत धारणाएं जितनी जल्दी भंग हो जाए उतना ही अच्छा है। इसी में मंगल है।"
"अब देख रहा हूं आप एक पाखंडी हैं।"
"ज्ञानचक्षु का उन्मिलित होना और भी मंगलकारी है।"
मजाक में हर बात को टालने की कोशिश मत कीजिए। छि-छि:। चंचला से सारी बातें सुनकर मैं तो अवाक् रह गया। एक जीते जागते इंसान को 'मृत' करार देकर आप मस्ती से घूम रहे हैं?"
अभिमन्यु ने मुंह पर पहले जैसी मुस्कराहट बनाए रखते हुए कहा, "मृत्यु भी तो नाना रूप की होती है सुरेश्वर।"
"हुं। वह आपके लिए मृत हैं आप यही कहना चाहते हैं न? लेकिन क्यों?"
"चंचला ने जब तुम्हारे सामने अपने मन का द्वार खोला है तब आशा करता हूं सभी कुछ बताया होगा।"
इस बार सुरेश्वर को हंसी आ गई। हंसकर बोला, "हां, बताया तो है उसने। उसकी सहेली का भाई फिल्म एक्ट्रेस के अलावा और किसी से शादी नहीं करेगा इसीलिए बेचारी अपनी मौसी का आंचल पकड़कर सिनेमा एक्ट्रेस बनाने वाले कारखाने में आ धमकी है यह बात उसने बताई है। लेकिन बात यह नहीं है। बात है भाभीजी को त्यागने का कोई अर्थ नहीं है। सिनेमा में काम करना, मजलिसों में गाना गाना, रेडियो में गाना या टॉक देना, यह सब तो इस युग 'की चीजें हैं। इस बात के लिए आप पत्नी का त्याग करेंगे? छि:, आप इतने पुराने ख्यालों वाले हैं यह तो मैं सोच ही नहीं सकता हूं।"
"देखो सुरेश्वर," अभिमन्यु ने उदास गंभीर स्वरों में कहा, "इस कर्मदेह में सूक्ष्म कारण रूपी आत्मा करती है जानते हो न? जिसे हम देख नहीं सकते हैं। लेकिन चंचला की बात सुनकर तो ताज्जुब हो रहा है। यह 'सब क्या है? वह चीज है कहां?''
सुरेश्वर मुस्कराकर बोला, "वह कलकत्ते में हैं इससे क्या फर्क पड़ता है... वह तो ठीक हो जाएगा। अब तो सिर्फ मौसीजी की चापलूसी करके एक्ट्रेस बन जाने भर की बात है लेकिन मौसीजी लिफ्ट ही नहीं दे रही हैं, खैर छोड़िए, मैं तो जाकर भाभीजी से दोस्ती कर जाऊंगा।"
अभिमन्यु बालकनी से दूर सड़क की तरफ देखकर हढ़तापूर्वक कहा, "पागलों जैसी बातें मत करो सुरेश्वर।"
सुरेश्वर इस दृढ़वचन से घबराया नहीं। उससे भी अधिक दृढ़ता से बोला, "पागलपन तो आप ही करते जा रहे हैं अभिमन्यु दा। दुनिया को आज भी आप पुराने चश्मे से ही देख रहे हैं। दुनिया बदल रही है, समाज बदल रहा है, बदल रही है जीवन की रीतियां, संस्कार। पुरानी खूंटी पकड़े बैठे रहना पागलपन नहीं तो और क्या है? आपके मना करने पर भी मैं डरने वाला नहीं, मैं जरूर जाकर परिचय कर आऊंगा।"
अभिमन्यु ने तिक्त हास्य से कहा, "इतना जोरदार संकल्प का कारण? कहीं चंचला का आकर्षण तो नहीं?''
सुरेश्वर हार मानने वाला लड़का नहीं। वह भी तीखी आवाज में बोला, "इसमें असंभव क्या है? और सच तो ये है कि मैं उसके घर से भाग आने का कारण सुनकर मुग्ध और चमकृत हुआ हूं। जो लड़की प्रेमी के उपयुक्त बनने के लिए इतनी बड़ी कीमत चुकाने को तैयार हो, वह तो सच में दुर्लभ लड़की हैं। हो सकता है यह एक हास्यकर बचपना है, वह लौंडा भी हनुमान विशेष होगा लेकिन निष्ठा तो हास्यकर नहीं।"
"सुसंवाद।" कहकर भीतर आकर अभिमन्यु ने पुकारा, "चंचला, तो फिर चलो।"
"आप भी चलेंगे?" खुश होकर चंचला ने पूछा।
"यही तो सोच रहा हूं। सुरेश्वर चल रहे हो न?"
सुरेश्वर अभिमन्यु के सहसा मत परिवर्तन पर आश्चर्यचकित तो हुआ लेकिन अपने भाव उसे प्रकट होने नहीं दिए। उदास भाव से बोला, "सबको जाने की जरूरत क्या है?"
"वाह! घर पहचानना भी तो जरूरी है।"
"किसलिए?"
"भावी से परिचय करने के लिए।"
"नहीं।"
"क्यों? अचानक संकल्प परिवर्तन क्यों?''
"वह तो सभी का हो रहा है।"
अभिमन्यु को हंसी आ गई। बोला, "ठीक कह रहे हो। अचानक ही हुआ है। असल में, रात के अंधेरे में इंसान कमजोर पड़ जाता है। दिन के उजाले में उसमें साहस उत्पन्न होता है। अब लग रहा है यह छिपते फिरना, यह भागते फिरना, यह सब हास्यकर है।"
व्यग्रभाव से सुरेश्वर पास आकर बोला, "मैं भी यही कह रहा हूं अभिमन्यु दा। दूरी का व्यवधान, क्रमश: सहज दृष्टि पर पर्दा डाल देता है। हो सकता है एक बार मुलाकात होते ही सब कुछ सहज हो जाए। जीवन क्या इतना ही सस्ता है अभिमन्यु दा कि आप उसे लेकर मनमानी करें?"
अंत में तीनों चले।
बाजार में पहुंचकर अभिमन्यु ने चंचला को उसकी पसंद की एक कीमती साड़ी खरीद दी। सुरेश्वर ने बेझिझक खरीद डाला ढेर सारी चॉकलेट, टाँफी, बालों के रिबन और पाउडर केस।
थोड़ा पीछे चलते-चलते अभिमन्यु बोला, "क्यों भाई, अंत में कहीं प्रेम तो नहीं हुआ जा रहा है? मुझे तो शक होने लगा है।''
सुरेश्वर भी हंसा, "मुझे भी कुछ ऐसा ही शक हो रहा है।"
लेकिन मंजरी के वहां पहुचकर दोनों दोस्तों की हिम्मत ने जवाब दे दिया। कार में बैठे-बैठे उन्होंने चंचला को उतार दिया।
उपहारों का बोझ दोनों हाथों से संभाल, शरीर का सहारा लिए चंचला विपत्रभाव से बोली, 'आप लोग नहीं उतरेंगे क्या?"
"नहीं, आ कुछ काम है।"
कार चली गई। चंचला फिर भी कुछ देर तक खड़ी रही। फिर धीरे-धीरे सीढ़िया चढ़ने लगी। उसे सहसा ही लगा, बहुत दिनों तक स्वर्ग में रहने के बाद चंचला फिर धरती के दमघोंटू अंधकार से ढके, जमीन पर उतरी है।
क्या एक ही दिन में मन का रंग बदल सकता है? कलकते का सहेली का भाई कहीं पीछे छूट गया, हाल ही में देखे स्वर्गदूत के सपनों में खो गई चंचला। और उस दु:साहसी लड़की ने एक अद्भुत काम कर डाला।
टेलीफोन डाइरेक्टरी देख-देखकर सुरेश्वर के होटल का नंबर ढूंढ़ निकाला और जब तब फोन करने लगी। मौका लगते ही ऐसा करती। शुरू हो जाता बातों का खेल। बेसिर पैर की बातें फिर भी आग्रह और उत्साह की कमी नहीं थी। इसी तरह से कट गए कुछ दिन।
"छोटी मौसी।''
मंजरी खिड़की के पास एक बेंत के मोढ़े पर बैठी कुछ सोच रही थी। चौंककर बोली, "क्या है रे?''
चंचला के कंठ स्वर में कुंठित आवेदन का स्वर।
अब चंचला पहले जैसी चंचला नहीं रह गई थी। उस पर उस दिन की घटना ने उसे स्थिर गंभीर बना दिया था। शांत रहने लगी थी।
"सुरेश्वर दा फोने से पूछ रहे हैं यहां आ सकते हैं?''
हालांकि चंचला से मंजरी ने उस दिन की घटना का सारा ब्यौरा सुना था, हाल ही मैं प्राप्त 'भाई साहब' के गुणों का वर्णन भी सुन चुकी थी, उपहार सामग्री देखकर उनकी प्रशंसा भी कर चुकी थी फिर भी यह न कह सकी थी, "तू कैसी है रे, दरवाजे तक लाकर एक भले आदमी को लौटा दिया?" या फिर "उस महाशय को फिर किसी दिन आने के लिए क्यों नहीं कहा?"
यह सब मंजरी कहती कैसे? उसके जीवन से तो एक और घटना जुड़ी थी। उस घटना का साधारण सभ्य व्यवहार से कोई संबंध नहीं था। इसीलिए आज आश्चर्यचकित होकर बोली, "फोन से पूछ रहे हैं माने?"
"पूछ रहे हैं उनके आने से तुम गुस्सा तो नहीं होवोगी?"
"गुस्सा? गुस्सा क्यों होवूंगी?"
"तब फिर जाकर कह दूं" फिर जरा झिककते हुए बोली, "सुरेश्वर दा कह रहे थे कहीं घूमने जा रहे हैं... वह मुझे भी ले जाना चाहते हैं... ''
मंजरी गंभीर हो गई। बोली, "घुमाने ले जाएंगे? कहां?''
"यह नहीं मालूम।"
"अच्छा, उन्हें आने के लिए तो कह दे। बात करके समझ तो लूं!"
चंचला दौड़ती हुई चली गई।
उसे देखकर मंजरी कौतुकपूर्णा हंसी हंसी। पीड़ादायक कौतुकपूर्ण हंसी। बच्ची है। मन अभी भी परिपक्व नहीं हुआ। जिसे देखती है वही अच्छा लग जाता है। जानती नहीं है कि यह दुनिया कैसी है? लेकिन यह सुरेश्वर है कौन जो अभिमन्यु का इतना घनिष्ठ मित्र बन गया है! अभिमन्यु के जिस जीवन में मंजरी थी, उसमें तो इस नाम कर नामोनिशान नहीं था।
थोड़ी देर बाद खुशी से चमकता चेहरा, लिए चंचला लौटी, "कहा है, अभी
आ रहे हैं।''
मंजरी चाहकर भी न पूछ सकी, ''क्या अकेले आ रहे हैं?'' प्रश्न होंठों के पीछे उलझा रहा पर बाहर नहीं आया। इस प्रश्न के पीछे लज्जा, अपमान, अभिमान, वेदना का अंधेरा ही अंधेरा फैला है... वहां हाथ बढ़ाने की हिम्मत नहीं होती है। उसे ऐसे ही फैले रहने दो, हाथ बढ़ाने पर कहीं काट न ले।
मंजरी ने मुस्कराकर कहा, ''एक वक्त की मुलाकात में ही सुरेश्वर से तेरी इतनी दोस्ती हो गई है?''
चंचला का चेहरा लाल पड़ गया। कह न सकी कि किस मुसीबत से उसे बचाया था उन्होंने? मंजरी भी भूल गई कि चंचला की खुशी की अधिकता के कारण ही मंजरी का बेहूदा व्यवहार और उसकी कटुता, उसका दायित्व ज्ञानहीन व्यवहार, उसकी गंभीरता को हल्का बन पाया था।
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