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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

10

फिर?

इतनी सारी जरूरी चीजें किसी प्रसिद्ध लेखक की किताब में मिल जातीं? हर्गिज नहीं। इसीलिए जो भी किताब लो, उसे तोड़ते-मरोड़ते, जोड़ते-जोड़ते जान निकलती है। इसलिए जरूरत क्या है झमेला करने की?

गगन घोष अनुभवी व्यक्ति हैं, जानते हैं दर्शक क्या चाहते है। माने उनके देश के लोग। वे जानते हैं कि दर्शक, जो इमारत ध्वस्त होकर गिर चुकी है, उसके मलवे को घेरकर बैठे रहना चाहते हैं। इसीलिए उनके लिए चाहिए सम्मिलित परिवार की महान उदारता, हिंदू नारी पतिव्रत धर्म पालन का रोमांचकारी दृश्य चाहिए।

'कमलिका' यह सभी कुछ प्रस्तुत करेगा।

हालांकि यमद्वार से मृतपति को छीन लाना जैसे दृश्य अब दिखाये नहीं जा सकते हैं इसलिए मृतपति की तस्वीर के सामने विधवा की पवित्र मूर्ति के साथ फिल्म खत्म होगी।

कहानी सुनकर मन में अजीब सा हो रहा था मंजरी के। विधवा का सीन अगर न रहता। लेकिन यह बात कहे कैसे? कहेगी तो लोग हंसेंगे। इस द्विविधा को मन से भगा दिया उसने। भगा दिया आधुनिक मन की मदद से पितामह के संस्कारों को।

मेकअप के वक्त जब रूपसज्जाकार फणीदास आधी सिगरेट पीकर फेंक देता है और उसी हाथ से मंजरी की ठोड़ी पकड़कर दूसरे हाथ से ब्रश लेकर गाल के स्वाभाविक रंग पर कृत्रिमता लाने की कोशिश करने लगा तब एक रूढ़ परपुरुष के स्पर्श और उग्र सिगरेट की महक से मंजरी का सारा शरीर सिहर उठा, घृणा से मन तिलमिला उठा, फिर भी आराम से बैठे रहना सीख गयी मंजरी। सीख गयी आलतू फालतू लोगों के साथ बैठकर सस्ती चाय पीना। और भी बहुत सी आधुनिक बातें उसने।

नहीं सीखेगी तो कहीं ये लोग पुराने विचारों वाली है कहकर हंसे न?

स्मार्टनेस में अगर काकोली देवियों को पीछे न छोड़ सकी तो फिर फायदा क्या?

"आप पहली बार फिल्म में आई हैं न?''

प्रश्न पूछा सहअभिनेता निशीथ राय ने। नायक की भूमिका करेंगे।

नायक बनने के लिए रूप है गुण है उसमें। बल्कि मंजरी जैसी ख्यातिहीन नायिका के साथ फिल्म करने को तैयार होना ही आश्चर्य की बात है। वह भी शायद मंजरी के प्रति अवज्ञा भाव रखता अगर न मंजरी इतनी सुंदर होती। इसके अलावा निशीथ ने सुना था वह शिक्षित है अतएव सम्मानजनित भाव से ही बात करने आया था।

"पहली बार? नहीं तो।" उत्तर दिया मंजरी ने, "इससे पहले 'मिट्टी की बेटी' में एक छोटा सा रोल कर चुकी हूं।"

"ओ।" निशीथ ने 'मिट्टी की बेटी' का नाम ही नहीं सुना था। अपनी फिल्मों के अलावा दूसरी फिल्में देखने की फुर्सत ही नहीं थी उसे। इसीलिए 'ओ' कहकर दूसरी बात छेड़ते हुए बोला, "आपको बहुत दूर से आना पड़ता है।"  

"जी हां।"

निशीथ आशा कर रहा था कि इस प्रसंग के छिड़ने से मंजरी उसे अपने घर का पता दे देगी लेकिन मंजरी ने छोटे से उत्तर से ही बात खत्म कर दी।

फिर प्रश्न।

"खूब असुविधा होती होगी है न?''

"असुविधा की क्या बात है? मजा ही आता है।"

निशीथ राय सिगरेट की राख झाड़ते हुए मुस्कराकर बोला, 'अभी, शुरू-शुरू में मजा आयेगा-उसके बाद... जब नहाने खाने की फुर्सत नहीं मिलेगी तब लगेगी सजा।

क्षणभर झिझकने के बाद मंजरी ने कहा, "उस स्टेज के आने की संभावना है नहीं। यह 'विजयिनी' ही मेरा अंतिम रोल है।"

निशीथ राय विस्मित दृष्टि से देखकर बोला, "मतलब?"

"मतलब स्पष्ट है। बिल्कुल ही शौक के कारण दो बार फिल्मों में काम तो कर लिया।"

निशीथ राय के होंठों पर आया, 'बिना पारिश्रमिक के' लेकिन उसने अपने को संभाल लिया। बोला, "आपके चाहने न चाहने से क्या होता है, 'कमली' छोड़ेगी क्या? घर से छीनकर ले आयेंगे। खासकर आप जैसी... माने शिक्षित महिला को।"

इस बार भी अपने को संभाला। निशीथ कहने जा रहा था "आप जैसी सुंदरी लड़की को।"

सुनकर मंजरी का दिल कांप उठा।

घर से छीन लाएंगे?

छीनकर ही तो लाए हैं। वह इतिहास यह निशीथ राय जानता है क्या? क्या यहां का यही नियम है? तुम्हारी इच्छा न हो फिर भी इनके प्रयोजन के आकर्षण से आपको केंद्रच्युत होकर आना ही पड़ेगा। मन-ही-मन अजीब सी एक असहाय शून्यता का अनुभव किया मंजरी ने। इनके इस तीव्र आकर्षण से उसकी रक्षा कौन करेगा? अभिमन्यु तो उसे आंधी के बीच छोड़कर दूर से मजा देख रहा है।

अभिमन्यु कैसे इतना बदल गया? जब से शादी हुई थी वही तो इस घर के सनातनी आक्रमणों से उसे बचाता रहा था, इस बात को भूली नहीं है मंजरी।

मन भीतर से असहाय होने पर भी बाहर से मंजरी सहज भाव से बोली, "छीनना चाहते ही क्या छीना जा सकता है?"

दृढ़तापूर्वक निशीथ राय बोला, "जा सकता है। सिर्फ इसी लाइन में नहीं सारी दुनिया को ध्यान से देखिए, यही छीनने का खेल ही चल रहा है। प्रयोजन? प्रयोजन ही आखिरी बात है। किसके प्रयोजन से कहां क्या हो रहा है झट से समझ पाना मुश्किल है, फिर भी यह ठीक है सभी हम लोग दूसरों के प्रयोजन के दास हैं। इसी प्रयोजन के सर्वग्राही सुधा मिटाने के लिए हजारो निरीह छात्र राजनीति के फंदे में सिर डाल बैठे, लाखों अबोध किसान युद्धक्षेत्र में जान से हाथ धो बैठे, करोड़ों लड़कियों ने अपनी इज्जत और पवित्रता खो दी।"

चौंक उठी मंजरी। सारे शरीर में रोंगटे खड़े हो गये। रग-रग में दौड़ते खून के खौल जाने से विस्फोट हुआ।

ये कैसी बात है?

ये कौन सी भाषा है? किस भयंकर की ओर इंगित है? निशीथ राय क्या उसे डराना चाहता है? चेहरे पर उसके एक शिकन नहीं? सिगरेट की राख झाड़ते हुए यह कैसा निष्ठुर भय प्रदर्शन? मंजरी को डराने से उसे फायदा क्या होगा? क्या यह सावधान वाणी है? अपने भले बुरे को भूल गयी मंजरी को क्या सावधान कर रहा है निशीथ एक दोस्त की तरह?

मन में प्रश्नों का तांडव नृत्य और देह में रक्त का नृत्य फिर भी बड़ी कठिनाई से मंजरी ने आत्मसंवरण किया, "अपनी खूंटी से बंधे रहने से कुछ नहीं होता है।" कहने को कहा तो लेकिन अपने कानों से अपनी ही आवाज क्षीण सुनाई दी।  

"अपनी खूंटी?" हंस दिया निशीथ राय। हंसकर दूसरा सिगरेट सुलगाते हुये बोला, "महाभारत की कहानी जानतीं हैं न? भीम के एक झटके से ताड़ का पेड़ जड़ समेत उखड़ गया था-सुनी है न वह कहानी?''

मंजरी कुछ उत्तर देने जा रही थी लेकिन चुप हो गयी।

सहसा मेरुदंड में उठे एक क्रूर यातना ने उसे चुप कर दिया। अप्रत्याशित अनजाना दर्द।

निशीथ राय ने विस्मित होकर पूछा, "क्या हुआ? तबीयत खराब लग रही है क्या?"

कुर्सी की पीठ से टिककर दोनों आँखें बंद कर दर्द को बर्दाश्त करने की कोशिश करने लगी। असह्य अवस्था से थोड़ी राहत मिली तो मंजरी ने सिर हिलाकर कहा, "हूं! सिर में चक्कर आ गया था।"

सिर के चकराने की बात कहना ही ठीक हो, जो कि अक्सर होता है सब को और स्वाभाविक भी है।

निशीथ राय चिंता प्रकट करते हुए बोला, "अरे, मुश्किल की बात हो गयी। अभी तो जाकर जुटना पड़ेगा। ज्यादा असुविधा हो रही है क्या?"

"नहीं। ठीक हूं।" कहकर मंजरी उठ खड़ी हुई। सह-परिचालक नलिन मित्रा थोड़ी दूर पर खड़े हाथ के इशारे से बुला रहे थे।

कितनी गंदी आदतें हैं इन लोगों की।

एक बाहरी आदमी किसी महिला को हाथ के इशारे से बुला सकता है मंजरी ने क्या कभी सोचा था? और वह महिला है मंजरी खुद। और उससे भी आश्चर्य की बात देखो कि उस इशारे पर बिना प्रतिवाद किए मंजरी धीरे-धीरे बढ़ती चली जा रही है।

न:! इन जगहों में प्रेस्टिज नहीं रह पाती है। बिल्कुल नहीं। खूब शिक्षा मिल चुकी है। यही अंतिम है। यहीं खत्म।

निशीथ राय ने खड़े होकर अंगड़ाई ली। कहा, "न: एक प्याला चाय पीए वगैर काम नहीं चल रहा है। कहां... हमारे बिष्टुचरण गये कहां? मंजरीदेवी आप भी लेंगी न?''

"नहीं।"

"पी लेतीं। तबीयत ठीक हो जाती।"

"तबीयत ठीक है।" कहती हुई मंजरी आगे बढ़ गयी। लेकिन क्या सचमुच तबीयत ठीक थी? वही अनजाना क्रूर दर्द का झटका बार-बार डंक मार रहा था मेरुदंड में।

फिर भी चेहरे पर हंसी बिखेरती कर्त्तव्य पालन के लिए तैयार हुई। विशेषकर भूमिका के इस अंश के लिए। प्रेमगर्विता तरुणी पत्नी अपने पति की प्रवास यात्रा स्थगित करवाना चाहती है अपनी हंसी से, सुहाग के ब्रह्मास्त्र से। स्वामी अर्थात् निशीथ राय का हाथ पकड़कर मधुर हंसी और बिलोल कटाक्षपात के साथ मंजरी को कहना होगा, "जाओ तो जरा इस बंधन को तोड़कर देखूं तो कितना जोर है।"

कई बार सुना पार्ट फिर भी बहुत बार शॉट लेना पड़ रहा था। लेकिन किसी भी तरह से मंजरी स्वाभाविक अभिनय नहीं कर पा रही थी। चिढ़कर तिक्तस्वर में गगन घोष बोले, "पहला शॉट तो बहुत अच्छा हुआ, अचानक अब क्या हो गया? चेहरा देखकर लग रहा है जैसे बिच्छू डंक मार रहा है। नए लोगों को लेने से यह मुश्किल होती है।... अरे ओ दीपक... क्या लग रहा है? एक शॉट और लेना पड़ेगा क्या?

निर्लिप्त भाव से दीपक बोला, "हो जाए।"

अतएव फिर से हंसी से दमकता चेहरा लेकर दौड़कर आना फिर से निशीथ राय का हाथ पकड़ मधुर स्वरों में बिलोल कटाक्षपात करते हुए कहना, "जाओ तो भला इस बंधन को तोड़कर? देखूं जरा तुम्हारी ताकत को।"

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