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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

38

लेकिन जिसे ढूँढ़ रहे थे उसे पाते ही जल्दी से लौट नहीं आना चाहिए?...पर सोमप्रकाश ने ऐसा नहीं किया। वे अचानक उस छोटे से लकड़ी के बक्स में अगाध रत्नसंभार का आविष्कार कर उन्हीं में डूब गये थे।

कितनी अजीब-अजीब चीज़े तुमने इकट्ठा कर रखी थीं सुकुमारी?

बहुत दिन पहले ख़रीदी कितनी सारी चीज़ों के कैशमेमो। ये सब चीज़े तुम्हारे किस काम आने वाली थीं जो रखे हुए थीं सुकुमारी? और ये साड़ी सेल के विज्ञापन? कितने पुराने हैं ये भी। और एक प्रसिद्ध ज्योतिषी का पता ही क्यों अखबार से काटकर रख छोड़ा था तुमने? क्या करने के लिए? तुम अकेली तो कहीं जाती नहीं थी? ये पहली बार ज़िन्दगी में तुम एक अनजाने पते पर चली गईं। तभी तो खो गईं।

फालतू चीज़ों के साथ कुछ ज़रूरी चीज़े भी थीं। एक शान्तिपूरी शॉल ड्राईक्लीन करवाने दिया था, वहाँ की रसीद। एक बुलेन स्काफ, एक चादर भी। मोहल्ले की 'नवतारा' लाँड्री की भी एक रसीद थी, तीन साड़ियाँ धुलने गई थीं, उनके डयू डेट पार हो गई थी।

रसीदें हाथ में लेकर सोचने लगे, अवनी के रहते-रहते कपड़े सारे मंगवा लेने होंगे। पर ले आने के बाद?

सुकुमारी! गनीमत है कि मैं एकदम ही अपरिचित परिवेश में जाना तय कर चुका हूँ वरना अगर इस घर में रहना पड़ता तो इतने सारे चीज़ों और स्मृतियों का भार वहन कैसे करता? सोमप्रकाश और भी अधिक डूबते चले जा रहे थे।

उधर इस कमरे में उपस्थित लोगों के चेहरे पर उद्धेग की छाया। 'इतनी देर से क्या कर रहे हैं पिताजी? कोई आहट तो नहीं सुनाई पड़ रही है।'

किसी से कुछ न कहकर अचानक इस तरह से उठकर चले क्यों गये? मुँह से कोई कुछ नहीं कह रहा था पर रह-रहकर सामने पर्दे से ढके कमरे की तरफ उद्विग्न दृष्टि डाल रहे थे।

उस बैठने की जगह का नाम 'दालान' अथवा 'हॉल'। जब घर बना था तब 'दालान' ही नाम था इसका। बाद में बेटे-बहुओं के समय में इसका नामकरण हुआ 'हॉल'।

इस हॉल से बाक़ी तीनों कमरों के प्रवेशपथ दिखाई पड़ते हैं। नज़रें वहीं अटकी थीं।

कहाँ? कोई चल फिर रहा है ऐसा तो दिखाई नहीं दे रहा है?

भीतर ही भीतर शरीर के रोंगटे खड़े हो गये।

अचानक 'कुछ' हो तो नहीं गया?

तबियत खराब लगने की वजह से उठकर चले गये हों। जाकर लेटे होंगे और उसके बाद ही?

दिमाग में न आने वाला एक प्रश्न जागा एक जने के मन में-'सूसाइड तो नहीं कर बैठे?'

यह बात उसके मन में क्यों आई कौन जाने?

रात के अँधेरे में अकेले पेड़ के नीचे से गुज़रते वक्त जैसे शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं वैसी ही दशा हो रही थी सबकी।

पर कोई किसी से बता नहीं रहा था-जता भी नहीं रहा था।

हालाँकि भय मुक्त होने की एक दवा है बातें। बातें करना। खामोशी, स्तब्धभाव-भय को इकट्ठा करते हैं।

अचानक सोमप्रकाश की छोटी बहू उसी भय को भगाने के लिए जल्दी से बोल उठी-'अच्छा भइया। ...बर्निंगघाट में माँ के शरीर से सारे गहने उतार लिए गए थे न? माँ की अँगुली में वह बढ़िया पन्ना-जड़ी अँगूठी थी ...वह सब बर्निंगघाट से ले आए हैं न?'

'भइया' विमलप्रकाश बोल उठे-'लाया क्यों नहीं जायेगा? कैसी बच्चों जैसी बातें कर रही हो रूबी?'

रूबी इससे अप्रतिभ नहीं हुई। बोली-'नहीं, माने उस समय तो आप लोगों की मानसिक दशा खूब वैसी थी...गलती होना असम्भव नहीं।'

विमल संक्षेप में बोले-'फिर भी ले आया गया था।'

'लाए थे तो अच्छा ही किया था। पिताजी को दे दिया था न?'

'पिताजी को?' विमल जैसे चौंक पड़ा।

'वाह! और फिर किसे देंगे? पिताजी के अलावा? माँ की चीज़ें थीं।' मलिन भाव से विमल बोला-'पिताजी के सामने यह बात छेड़ने का साहस ही नहीं हुआ।'

'वह तो सच है। आप ठीक कह रहे हैं। तो फिर सम्भालकर रख दिया है न?'

तब 'भइया' की अर्द्धांगिनी बोल उठीं-'हाँ, मेरे लॉकर में रखा है। तेरे फ्लैट में जो काण्ड हो गया उस दिन, बाबा:! इसीलिए तेरे पास रखने नहीं दिया था। अगर रखना चाहती है तो कल ही दे दूँगी।'

'अरे? मैं भला क्यों रखना चाहूँगी? यूँ ही याद आ गया तो पूछ लिया। खासतौर से वह पन्नावाली अँगूठी याद आ गई तो...'

'वह तुझे इतनी पसन्द है? तो उसे तू ही ले लेना।'

'वाह! मैं अकेले क्यों?'

बड़ी जिठानी हँसने लगीं-'तो क्या एक अँगूठी दोनों पहनेंगे? बाद में-बँटवारा होगा। उसे न हो बँटवारे से अलग ही रखो।' यह उदार भाव जताया बड़ी बहू ने देवरानी के लिए जिससे कि उसका मन जिठानी के अनुकूल रहे। ससुर का बोझ कन्धों पर ढोने को तैयार हो जाए।

पर उस स्तब्ध कमरे में क्या और कोई नहीं था?

वह सहसा स्तब्धता भंग कर बोल उठी-'बँटवारे की बात ही जब छेड़ दी है सुलेखा तब मैं यह बता दूँ कि कि 'मातृधन' हक़दार केवल लड़की ही होती है।'

'ऐं?'

'हाँ रे-यही है। चिरकाल से सभी जानते आ रहे हैं कि 'मातृधन' पर लड़कों का कोई अधिकार नहीं। वह केवल लड़कियों को ही मिलता है। कानून में भी है और शास्त्रों में भी।'

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