नई पुस्तकें >> चश्में बदल जाते हैं चश्में बदल जाते हैंआशापूर्णा देवी
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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।
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उल्लसित किंग बोल उठा-'ओ मामदू! तुम मुझे देखने आए हो? तुम आ सके?'
'हाँ आ सका हूँ दादा भाई। अब बताओ कैसे हो?'
'अच्छा हूँ। कल तो इस सड़ी जगह से घर लौट जाऊँगा।' इसके बाद ही अचानक उसी परिचित ढंग से होंठो पर अँगुली रखकर दबी आवाज़ में बोला-'मामदू, मैं अपने उस सड़े घर में भी नहीं जाऊंगा। वहाँ पार्वती दीदी एक खराब सा कोकाकोला पिलाकर मेरी तबियत खराब कर देगी। मैं तुम्हारे वहाँ जाऊँगा।
'मामदू...'
सोमप्रकाश उसके हाथ पर दबाव डालकर बोले-'मेरे घर? मेरा तो अब कोई घर नहीं है दादाभाई।'
'धत्! वह वाला घर कहाँ गया?'
'वह? उसे तो आँधी उड़ा ले गई है।'
'ईश! धत्, उतना बड़ा मकान-उसे आँधी कैसे उड़ाकर ले जा सकती है?'
'ले जा सकती है भाई। ले जा सकती है। ज़ोर की आँधी आ जाए तो पहाड़ को भी उड़ाकर ले जा सकती है।'
'इसके मतलब-साइक्लोन?'
'वही होगा।'
'ओ मामदू। जब आँधी घर को उड़ा ले गई तब तुमलोग कहाँ थे?'
'मैं तो यहीं था।'
'और अम्मा?'
'उसे घर और सारे सामान के साथ उड़ा ले गई है। शायद पहाड़ की चोटी में ले जाकर रख दिया है।'
किंग ज़रा आश्चर्य प्रकट करके बोला-'तब, तुम अब कहाँ रहोगे?'
'मैं?-मैं एक छोटी सी कुटिया में रहूँगा।'
'ओं हो...समझा। मुनि-ऋषियों की तरह। या कि ग़रीबों की तरह?'
'ग़रीबों की तरह ही।'
'ओ! तुम्हारा सारा रुपया-पैसा भी घर के साथ ही उड़ गया है क्या?' कहकर तुरन्त दूसरी बात पर आ गया-'जानते हो मामदू, मैं इस बार स्कूल में ड्राइंग बनाने में फर्स्ट आया हूँ।'
'अच्छा! बहुत अच्छी बात है। क्या बनाया था?'
'मैंने बनाया था एक छोटी सी झोंपड़ी...उसके पास एक पेड़...नदी...सूरज।'
'तुमने कभी झोपड़ी देखी है? कैसे बनाया?'
'देखा नहीं है तभी तो बनाया-सोच-सोचकर। जो कुछ हर समय देखो वही क्या बनाने का मन करता है? पर हाँ छाता बनाना अच्छा लगता है। बरसात मैं खुला छाता। और छाते के नीचे सिकुड़े बैठे दो छोटे-छोटे लड़के-लड़की...उनके बदन में पानी की छाँट नहीं लग रही है...'
अमलप्रकाश आकर खड़ा हुआ।
'पिताजी, गाड़ी आ गई है।'
आश्चर्य इस भयानक क्षण में सोमप्रकाश सोचने लगे, छोटे बच्चे हर समय झोंपड़ी बनाना क्यों पसन्द करते हैं? आकाश छूता मकान हो, ऊँचे-ऊँचे फ्लैट हो-उनके वाशिन्दे भी। राजा रजबाड़े, जमींदारों के बेटे-बेटियाँ भी। सारी उम्र देख ही तो रहा हूँ। मेरे लड़कों और लड़की भी भले ही ऊँचे दर्जे के आर्टिस्ट नहीं थे पर स्लेट पेंसिल पर हो चाहे सुलेख की कॉपी-वही झोंपड़ी ही बनाते थे।
जी किया हँसे-जबकि हर दम ऊपर उठने की वासना।
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