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उपन्यास >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15407
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...

5

चैत की दोपहर की तपिश की चैत की शाम में याद भी नहीं आती। इसके अलावा बसंत ऋतु के दर्शन कलकत्ता में न होते हों, ऐसी बात नहीं! जो लोग निंदक हैं, वे कहते हैं, कलकत्ता में 'बसंत केवल पेड़-पौधों में ही उभरकर आता है,' लेकिन यह बात सफेद झूठ है। मन-प्राणों को उद्वेलित करने वाली हवा बहती है। प्रकृति का जिस मौसम में जो कर्तव्य होता है, उसका वह सही तौर पर ही पालन करती है।''

अरण्य बोला, 'मुझे लगता है, घर जाकर खाना खाकर लेट रहने से ही...''

''खाकर!''

अवंती जैसे आसमान से नीचे गिर पड़ी। बोली, ''अरे, एक बहुत ही जरूरी बात की याद दिला दी। आज तीसरे पहर चाय पी नहीं सकी। तीसरे पहर ठीक समय पर चाय न पीने से सिर बेहद दुखने लगता है। तुम्हारा दुखता नहीं है?''

''मेरा?''

अरण्य फिर जोर से हँस पड़ा। बोला, ''ठीक समय? वह कौन-सी चीज है, मालूम नहीं।''

''हम लोगों को तो जानना ही पड़ता है!''

अवंती कपोलों पर उड़ती लटों को बाएँ हाथ से हटाकर कहती हैं, ''और इसे जानते-जानते ही बुरी आदत के अंकुर उग आते हैं। इसलिए आओ, थोड़ी-सी चाय पी लें।''

''यहाँ चाय कहाँ मिलेगी?''

''कितने आश्चर्य की बात है! एयरपोर्ट के इर्द-गिर्द कहीं चाय नहीं मिलेगी? कम-से-कम थोड़ी-सी कॉफी? कुछ सोलिड खाना भी पड़ेगा। जोरों की भूख लगी है।''

अरण्य को समझने में देर न लगी कि यह अरण्य को खिलाने की चालबाजी है। औरतें आमतौर से भूख लगने की बात स्वीकार नहीं करतीं। मगर समझने के साथ-साथ यह भी महसूस किया कि उसे भी जोरों की भूख लगी है।

खाकर और खिलाकर अवंती फिर से गाड़ी पर बैठ गई और बोली, ''आओ, तुम्हें फोर्टीफाइव पकड़वा दें।''

''अरे, वह तो यहीं है, पकड़वाने की जरूरत ही क्या है?"

''अहा, पकड़वा देने का गौरव प्राप्त करने दोगे तो हर्ज ही क्या है?''

''तो फिर प्राप्त करो।''

अरण्य फिर से गाड़ी पर बैठ गया।

आहिस्ता से बोला, ''आज का दिन अजीब ही रहा। किसने सोचा था इस तरह...''

''जीवन में कितना कुछ ऐसा घटित होता है जिसके बारे में हम सोच भी नहीं सकते। एक ही शहर में फिर से मुलाकात होने में तीन साल लगेंगे, यह किसने सोचा था?''

भीड़ से ठसाठस भरी पैतालीस नम्बर की एक बस आ रही है।

ठसाठस भरी कहना ही पर्याप्त नहीं होगा। यही आखिरी ट्रिप है।

अवंती ने बुझे हुए स्वर में कहा, ''इसके अन्दर कैसे अरण्य? दरवाजे पर आदमी लटके हुए हैं।''

''यही तो सुविधा है। किसी की पैंट का हिपपॉकेट कसकर पकड़े लटकते हुए चला जाऊँगा।''

गाड़ी से नीचे उतर पड़ा अरण्य।

न मालुम कैसे तो घुस भी गया, क्योंकि अवंती ने वाद में उसे फुटपाथ पर खड़ा नहीं देखा।

स्टीयरिंग पर हाथ-रखते ही याद आया, थोड़ी देर पहले सोचा था, पेट्रोल ले लेगी पर पेट्रोल-पम्प तो पीछे ही छूट गया। यदि पूरा पेट्रोल खत्म हो गया हो तो फिर घर तक नहीं पहुँच पाएगी।

और इधर अरण्य ने पैर टिकाने की जगह पाते ही सोचा, अवंती से पूछ नहीं सका कि चाय पीने के बाद सिर का दर्द दूर हुआ या नहीं।

इसे बदकिस्मती ही कहा जाएगा कि टूटू मित्तिर आज जल्दी ही घर लौट आया है। क्रोध से आगबबूला हो रहा था टूटू मित्तिर और बेचारे लोकनाथ को बार-बार कठघरे में खड़ा करके जिरह कर रहा था। ठीक किस समय अवंती बाहर निकली थी, क्या कहकर गई थी, जिस आदमी के साथ गई थी, वह देखने में कैसा था, इसके पहले लोकनाथ ने उस आदमी को देखा है या नहीं, अवंती से उसके पहले क्या बातें हुई थीं बगैरह-बगैरह। एक ही बात को घुमा-फिराकर बार-बार पूछ रहा था।

कहना न होगा कि लोकनाथ के पास उसका कोई सही उत्तर नहीं था। उसे भी बार-बार एक ही उत्तर देना पड़ रहा था। वह उत्तर टूटू मित्तिर की मानसिकता पर शांति का प्रलेप नहीं दे सका।

लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता भय का एक भाव आक्रोश को दबाए जा रहा है। रात बढ़ती जाए तो ऐसी स्थिति में घर से अनुपस्थिति किसी व्यक्ति पर गुस्सा बरकरार नहीं रखा जा सकता है, विपदा की काली छाया बर्फीली उसाँस से उत्ताप को नाकाम कर देती है। ऐसी ही स्थिति आ गई थी।

टूटू मित्तिर भी बेशक खुद ही गाड़ी चलाता है, पर ड्राइवर बगल में रहता है। ड्राइवर रखना प्रेस्टिज की बात है और समय-असमय जिम्मेदारी उठाने को मौजूद रहता है। वही ड्राइवर गाड़ी लेकर पूरे लेक टाउन का चक्कर लगा चुका है मगर कहीं किसी मकान के दरवाजे पर मेम साहब की गहरे लाल रंग की गाड़ी पर उसकी निगाह नहीं पड़ी।

इसके बाद टूटू मित्तिर ने टेलीफोन डायरेक्टरी खोल आस-पास और मध्यवर्त्ती स्थान के तमाम थानों के फोन नम्बर देख यह जानने की कोशिश की कि उन इलाकों मे कोई दुर्घटना हुई या नहीं। तभी कृष्णा भागी-भागी आयी और बोली, ''मौसा जी, मेमसाहब आ गई हैं।''

जब देखने को मिला कि अवंती मित्तिर के हाथ-पैर, मुंह-नाक अक्षत हैं और उसके चेहरे पर अपराध का भाव नहीं होता है तो बुझी हुई आग चट से लहक उठी। प्रसाधन-वर्जित चेहरे पर सिर्फ रूखेपन और थकावट की छाप है।

दिन बीतने के बाद घर लौटने पर टूटू मित्तिर ने पत्नी का इस तरह प्रसाधनहीन रूप देखा है?

लेकिन हाँ, अपने मन के लायक सजी-सँवरी हालत में भी नहीं देखा है। किसी भी तरह दावत वगैरह में सम्मिलित होने के लिए ले जाने में समर्थ नहीं हो पाता है। अवंती का कहना है, रिसर्च के काम के कारण उसके पास समय का अभाव है। 'बौद्ध कालीन युग में भारतीय नारियों की स्थिति'-इसी प्रकार की बेढंगी वस्तु को लेकर जीवन का सबसे सुन्दर समय नष्ट करने का क्या मानी है, टूटू मित्तिर की समझ में नहीं आता।'

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