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उपन्यास >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15407
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...

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अवंती के दोनों हाथ हल्के से स्टीयरिंग पर टिके हुए हैं, उन हाथों कीं लम्बी उँगलियों को ध्यान से देखा। कितने आश्चर्य की बात है। नाखून लम्बे और धारदार नहीं हैं, न ही रंग लगे हुए; जबकि दर्द से ऐंठे हुए ललिता के हाथ-पैर के नाखूनों को रंगे हुए देख चुका है।

पहले भी क्या अवंती नाखूनों में रंग नहीं लगाती थी? याद नहीं आ रहा। हो सकता है उसकी सहजात लम्बी गढ़न की उँगलियों और गुलाबी आभा के नाखूनों का वैभव प्राकृतिक है।

उन्हीं उँगलियों से पहिए को धीरे से घुमाकर अवंती ने कहा,  ''सिर के दर्द से छुटकारा पाए बगैर जानें से और भी अधिक मुश्किल का सामना करना पड़ेगा।

''तुम्हारे पास नहीं है? औरतों के वैनिटी बैग में, सुना है वह चीज़ हमेशा मौजूद रहती है।''

''लगता है, इस बीच औरतों के सम्बन्ध में बहुत जानकारी बटोर चुके हो। और क्या सुना है, बताओ तो सही?''

''वाह! सारा कुछ क्या जबानी याद है?''

''याद नहीं है? खैर, गनीमत है। लतिका से कितने दिनों से प्यार का सिलसिला चल रहा है?''

''प्यार? मैं प्यार करने गया ही कब? श्यामल भी नहीं कर पाया था। महज एरेंजमेंट की शादी है। और उन लोगों का पर भी ऐसा ही है। पति के मित्र के साथ अड्डेबाजी? सोच भी नहीं सकती।''

''अच्छी बात है, बहुत ही अच्छी!''

अवंती बोली, ''यह पारिवारिक स्वास्थ्य का लक्षण है। हाँ, तुम्हारे लिए घर में कोई एरेंजमेंट नहीं हो रहा है?''

अरण्य ने बुझे हुए स्वर का स्वांग रचकर कहा, ''अभी कहाँ हो रहा है?''  

''कहो तो घटक का काम कर सकती हूँ।''

''शुभेच्छा के लिए मेनी-मेनी थैक्स! अरे, तुम्हारे घर का रास्ता तो पार हो गया।''

''अभी तुरन्त घर घुस जाने की बात थी?'  

''नहीं, मतलब...''

अवंती एकाएक कठोर स्वर में बोल उठी, ''डर लग रहा है क्या?'

''डरने की कौन-सी बात है!''

''तुम्हारा हाव-भाव देखकर ऐसा लग रहा है जैसे मैं किसी बुरे मकसद से तुम्हें लिये जा रहा हूँ।''

''धत्त!

यह कहकर अरण्य हँसते हुए वोला, ''तुममें लेकिन काफी कुछ बदलाव आ गया है। पहले तुम बहुत ही डरपोक थीं।''

''हूँ।''

अवंती चुप्पी साधे चलने लगी।

अरण्य ने देखा, वे लोग एयरपोर्ट के करीब पहुँच गए हैं। बोला, ''अविराम चलाए जा रही हो। क्या कर रही हो?''

''तुम्हारी बेचैनी एन्जॉय कर रही हूँ।''

अरण्य ने इतनी देर बाद एक सिगरेट सुलगाई। एक कश लेने के बाद बोला, ''वे औरतें जो एक व्रत करती हैं, छोटी बुआ को करते देख चुका हूँ। 'मरकर मनुष्य बनूंगी, अमुक बनूंगी।' सो सोच रहा हूँ, यह नाचीज भी उसी प्रकार का एक वरदान माँगेगा-मरकर मनुष्य बनूंगा, बड़े आदमी की घरवाली बनूँगा।''

''हालात इतने लुभावने प्रतीत हो रहे हैं कि मर्द होकर पैदा होने के बजाय औरत बनकर पैदा होने की ख्वाहिश हो रही है?''

''क्यों, औरत होकर पैदा होना क्या बुरा है? लेकिन हाँ, एक शर्त है, बड़े आदमी की दुलारी पत्नी बनूँगा।''

'' 'दुलारी'-यह तुमसे किसने कहा?''

''कहने की जरूरत नहीं पड़ती। समझ लेना पड़ता है। हाँ एक बात, इसी तरह पर्स में दो-चार हजार रुपया लेकर बाहर निकलती हो?''  

''शायद निकलती हूँ और न भी निकलती हूँ। मगर इसमें दुलारी होने का तुम्हें कौन-सा परिचय मिला? इच्छानुसार कुछ रुपए खर्च कर पाना ही क्या सुख की पराकाष्ठा है?''

अयण्य ने जोरदार शब्दों में कहा, ''मुझे तो लगता है सुख की यही पराकाष्ठा है।''

अवंती ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, ''अच्छी बात है।''

अरण्य हिल-डुलकर बैठा। बोला, ''यह बात तुम अस्वीकार कर सकती हो, अवंती? श्यामल की ही बात लो, उसकी धारणा नहीं थी कि पत्नी के लिए इतना खर्च करना पड़ेगा। नार्मल हालत थी, ऑपरेशन के बारे में सोचा भी नहीं था। सिर्फ नर्सिंग-होंम के कई दिनों के खर्च का हिसाब कर बैठा था। सुना, ऑपरेशन की ही फीस दो हजार रुपया है। इसके अलावा और कितना कुछ। मुझसे कहा, तकदीर अच्छी थी कि अवंती के रुपए लगे हाथ मिल गए। लेकिन कितने दिनों में कर्ज चुका पाऊँगा...''  

''अरण्य, तुम क्या मेरे सिर का दर्द और बढ़ा देना चाहते हो?''

कुछेक क्षण पहले कृतज्ञता से सराबोर होकर श्यामल ने धन्यवाद जताने की कोशिश की थी। अवंती ने कहा था, ''अपनी नासमझी को जरा कम करने की कोशिश करो, श्यामल!''

अरण्य को उस बात की याद आ गई। बोला, ''तुम्हारे सिर का दर्द बढ़ा सकूं, ऐसी सामर्थ्य नहीं हैं मुझमें। हाँ, मैं यही कहना चाहता था कि रुपए को माटी नाना और माटी को रुपए में बदलने का सुख निहायत कम नहीं होता।''

''हो सकता है, यही सच हो!''

अवंती ने एक लम्बी साँस ली शायद। या फिर उसे दबा लिया।

सिगरेट खत्म कर उसे सड़क पर फेंक दिया और बोला, ''ड्राइविंग तो बहुत अच्छी तरह सीख ली है।''

''न सीखने से अलीपुर कें मित्तिर भवन का सम्मान अक्षुष्ण रहेगा? 'टूटू मित्तिर की पत्नी' गाड़ी चलाना नहीं जानती हो, यह कितने शर्म की बात है!''

अरण्य ने कहा, ''वाह! तुम्हारी कहानी की पौध से अभिजात की खासी अच्छी खुशबू आ रही है। इसे तो दिन-भर तुम अपने अधिकार में रखे रही, मिस्टर को असुविधा नहीं हो रही है?''

यह कहते ही अरण्य की आँखों के सामने अवंती के दो गैरेजों का दृश्य तिर आया। इसलिए अपने कथन में एक डैश खींचकर पुन: बोला, ''या फिर इस लाल गाड़ी पर उसकी मालकिन का ही एका- धिकार है?''

''पूरे तौर पर!''

अवंती बोली, ''यह स्त्री-धन है। शादी के समय ननिया ससुर ने गिन्नी के बदले गाड़ी देकर दोहंता-वधू का मुख देखा था।''

''वण्डरफुल! कितनी सुन्दर परिकल्पना! गिन्ती के बदले गाड़ी! लेकिन तुम लोगों के कितनी तरह के ससुर होते हैं, यही सोच रहा हूँ। ननिया ससुर का मानी? ससुर का बड़ा भाई?''

''धत्त! वह तो जेठ ससुर कहलाता है। बताया न, दोहता-वधू! ननिया ससुर होते हैं सास के पिता! धनी आदमी हैं। देने के समय शर्त रखी थी, तीन महीने के अन्दर ड्राइविंग सीख, उन्हें बगल में बिठाकर गंगाकी हवा खिलाकर लाना होगा।''

''वह खासे मजेदार आदमी हैं!''

''धारणा गलत नहीं है तुम्हारी। बहुत सारे रसों के रसिक हैं। लेकिन इन लोगों का प्यार बड़ा ही भारी होता है। ढोने में पसीना छूटने लगता है। बहरहाल, इतनी हवा खाने के बावजूद सिर का दर्द दूर नहीं हुआ। मीठी बासंती हवा।''

'यह सच है कि हवा मदिर और मधुर ही है।

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