नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
क्षेत्रबाला चुप बैठी हैं! इसका अर्थ यह तो नहीं कि वे भी अपने कर्त्तव्य से
चूक जायँ! सभी आकर प्रणाम कर गये। रमोला भी कर गई। एक यांत्रिक अभ्यास की तरह
क्षेत्रबाला ने उनके माथे पर हाथ रख कर बुदबुदा कर शायद आशीर्वाद ही दिया।
'शुभ घड़ी' देख कर वे लोग शाम को निकल रहे हैं।
मन की चंचलता को छिपाने के लिए शक्तिनाथ प्रतिदिन की तरह चश्मे का डब्बा और
महाभारत लेकर बाहर दलान पर बैठे थे। लेकिन जब एक कतार में छ: रिक्शे आकर घर
के सामने खड़े हुए तो उनसे बैठे रहा नहीं गया।
सामने से ही तो सामान ढोकर रिक्शे पर उठाएँगे। केवल भारी-भरकम काठ के स्टैण्ड
पर वही क्लाइव के जमाने का साइकिल पड़ा रहेगा। उसकी अब जरूरत नहीं रही
मुक्तिनाथ को।
उस ओर देखकर नजर फेर ली शक्तिनाथ ने। बोले, "उन सबको पूजा के प्रसादी फूल
दिये कि नहीं खेतू?"
क्षेत्रबाला ने सर हिलाया। धीरे-से उठकर पूजा के कमरे से सूखे फूल और बेल के
पत्ते लेकर मुक्तिनाथ के हाथ में दिये।
सभी इस समय निःशब्द, उदास हैं।
कोई हँसते-हँसते रिक्शे पर नहीं चढ़ रहा है।
मूल्यहीन ही सही, फिर भी ये अति-परिचित दृश्य अब उन्हें जीवन में नहीं देखने
को मिलेंगे, यह अनुभूति उदासी तो लाती ही है।...इसीलिए जिन सब दृश्यों को
'पुराना, सड़ा-गला' समझ कर घृणा से ये मुँह फेर लेते थे, अभी उन्मुख दृष्टि से
उन्हीं को निहार रहे हैं।
केवल मधुमिता नहीं देख रही है। कहीं घोष चाचा के तालाब में कोई भयंकर दृश्य
नजर आ जाय, इसी डर से आँखें झुकाकर जा रही है वह।
एक-एक कर सारे रिक्शे चले गये। बड़ी देर तक मोटी चादर लपेटे शक्तिनाथ दलान के
किनारे खड़ें रहे। जिस सूरत में देखकर एक-दिन मुक्तिनाथ को लगा था, 'बिल्कुल
विद्यासागर जैसे लग रहे हैं।'
सूरज की किरण अब मिटने चली है, फिर भी शक्तिनाथ अपने पिता के उस महाभारत का
एक खंड खोलकर बैठे। बड़ी कठिनाई से स्वर को स्वाभाविक करके बोले, "खेतु इधर आ,
बैठकर सुन...''
इसके बाद वही बस की टिकट जिसे 'पृष्ठ चिह' बनाकर रखा था, उसे निकाल कर आगे
पढ़ने लगे- "धनधान्यपूर्ण वसुंधरा के शासनकर्ता महाबलपराक्रात महानुभाव
अतियों को भी अन्त में राज्य तथा विपुल विषय-भोग परित्याग कर मृत्यु के
वशीभूत होना पड़ता है। मानव अपने मृत पुत्र को गृह से दूर निकाल कर विलाप
करते-करते उसे काष्ठ की भाँति चिता की अग्नि में समर्पण कर देता है। मृत
व्यक्ति की धन-सम्पदा दूसरों के भोग की वस्तु बनती है। पक्षीगण...''
और पढ़ नहीं पा रहे हैं।
जाड़े की संध्या के कदम रखते ही चारों ओर अंधकार की चादर फैल जाती है।