नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
ये सब बातें क्षेत्रबाला को बुलाकर किसी ने कही नहीं, परन्तु पता नहीं कैसे
उन्हें सब मालूम हो चुका है। ये लोग जो हँस-हँस कर कहते हैं-दादी को बातों की
गंध मिल जाती है, शायद गलत नहीं कहते हैं।
जानकर अपना सर पीट रही है क्षेत्रबाला।
इतने दिनों तक यही राग अलापते रहे कि पुराने ख्याल के आचार-संस्कार वाले
परिवार में बच्चों को मन मुताबिक खाने को नहीं मिलता है, कितना रोना-पीटना,
कितना आक्षेप जताना, उसके बाद यह हुआ........मियाँ-बीवी की मस्ती की गृहस्थी
में सबसे मुख्य जन दोनों बेटों को ही जगह नहीं मिली?
क्षेत्रबाला शिकायत का तूफान लेकर अपनी हमेशा की उस अदालत मझले भैया के पास आ
धमकीं।
"मुन्ना-टुपाइ के लिए जगह नहीं है, बच्चे लोग इधर-उधर भटकते रहेंगे, क्या इसी
के लिए शौक से अपनी गृहस्थी बसाने गई बड़ी बहू? भैया तुम मुक्ति से कह दो उनके
जाने की जरूरत नहीं, हमारे पास रहेंगे।"
इस आवेगपूर्ण शिकायत की ओर शक्तिनाथ देखते रहे। उनके होंठों के किनारे
विषाद-भरी हँसी फूट पड़ी। बोले, "तेरे कहने से ही वे तेरे पास आकर रहेंगे
क्या?"
क्षेत्रबाला नासमझ की तरह जिद करके बोलीं, "क्यों नहीं रहेंगे? मेस में या
मामा के घर पड़े रहने से अपने घर में रहना खराब होगा क्या?"
"क्या खराब होगा और क्या अच्छा, यह तू उन्हें समझाएगी; खेतू?"
खेतू दृढ़ स्वर में बोली, "हाँ जरूर! अगर कोई सही समझ कर काँटेदार झाड़ी का
रास्ता चुने तो उसका हाथ पकड़ कर वापस लाना पड़ेगा कि नहीं?"
"नहीं। इस ज़माने में वह गैर-कानूनी है।"
खेतू आँचल से आँख पोंछकर बोली, "वह सब ज्ञान की बात रहने दो भैया। तुमसे न हो
सके, मैं ही जाकर मुक्ति से कहती हूँ...''
"पागलपन मत कर खेतू। जा, पूजा करने जा! भगवान् तुझे उन्हें याद करने के लिए
बहुत समय दे रहे हैं, जा उन्हीं को याद कर।"
लेकिन भगवान् को याद करने के लिए कौन मरा जा रहा है? खेतू ने कब इतने समय की
माँग की? भगवान् को बुलाना उसने सीखा ही कब?
रंगीन धारीदार साड़ी में लिपटी खेतू कब बाल काट कर, थान की धोती पहन कर
क्षेत्रबाला हो गई, उसे पता भी चला क्या?
इस मंडल विष्णुपुर के राय परिवार की चौहद्दी के बाहर भी कोई और दुनिया है,
क्या यह खेतू से कभी किसी ने कहा? खेतू के पति-पुत्र नहीं, अपना उसका परिवार
नहीं, यह बात कब सोची है खेतू ने? जिस प्रकार दिन को पता नहीं चलता किस
प्रकार वह भोर की सीमा से निकल कर कदम भरते हुए सुबह, दोपहर और फिर शाम तक जा
पहुँचता है-वैसे ही खेतू को पता नहीं चला कि सात वर्ष की उम्र से डगर
भरते-भरते वह कब सत्तर के घर में आ पहुँची!
क्या खेतू का भी एक बचपन था? क्या किशोरी थी वह भी कभी? क्या यौवन आया था
उसके द्वार? फागुन की रंगीनियाँ क्या कभी झाँकने आई थीं उसके जीवन में? क्या
कभी खेतू ने आईने में देखा कैसे तीखे नाक-नक्श हैं उसके और उसके घने केश सावन
के बादल की याद दिलाते हैं?
नहीं, यह सब देखने की फुर्सत कभी नहीं मिली उसे।
ढेर सारे बाल आफत के सिवा और कुछ नहीं लगे उसे।
उसे तो यही पता था कि फागुन की धूप-हवा में मूँग-उरद की दाल सुखा लेनी पड़ती
है! इमली काटकर समेट लेना पड़ता है। आज भी यही पता है। साल के किस-किस मौसम
में कौन-कौन-सी चीज समेट कर रखनी पड़ती है, खेतू को बिल्कुल याद है। केवल अपने
मूल रूप को किस प्रकार संरक्षित करके रखना चाहिए, इसका उसे होश नहीं रहा कभी।
इसलिए आज अचानक वह देख रही है कि उसकी सारी जानी हुई बातें आज कूड़े में जाकर
पड़ी हैं। केवल 'मझले भैया' नामक एक हस्ती ने खेतू को खो जाने से रोक रखा है।
शक्तिनाथ ने कहा, "पागलपन मत कर खेतू।"
फिर भी क्षेत्रबाला वही करने गई। जाने से पहले उन्हीं दोनों पोतों को पकड़ा
उन्होंने, "जब तेरी माँ की गृहस्थी में तेरे लिए जगह नहीं है तो माँ का आँचल
पकड़ कर जाता क्यों है रे? घर का लड़का घर पर रह जा! अभी मैं मरी तो नहीं,
जरा-सा दाल-भात आराम से पका दूँगी।"
टुपाइ मस्तान बन गया है, तमाशा करके बोल पड़ा, "आज मरी नहीं, एक दिन तो मरोगी?
तब क्या हाल होगा हमारा?"
क्षेत्रबाला का चेहरा हँसी से खिल गया। बोली, "तब तेरी बहू आ जाएगी...''
मस्तान टुपाई क्षेत्रबाला के उस प्रत्याशा-भरे आनंद-विकसित चेहरे को अनदेखा
कर (कब देखते ही हैं वे), बोल उठा, 'ऐ 'बहू? इस घर में?''
"क्यों नहीं? अभी ला दे, मैं सिखा-पढ़ा कर तैयार कर जाऊँगी...।''
फिर उनकी क्या गलती है?
ऐसे अबोध को कौन बचाएगा?
'अबोध' को चोट खानी ही पड़ती है। जोरदार चोट! तो फिर क्षेत्रबाला ही इससे बच
निकलेंगी कैसे?
नहीं, टुपाई से नहीं, चोट आई उसकी बहन मधुमिता की ओर से। कर्कश मधुमिता बोल
उठी, "तुम तैयार कर दोगी, इसी आशा से वह बहू लाकर तुम्हारे सुपुर्द कर देगा?
माफ करो दादी! अरे, तुम्हारे इस 'तैयार' करने के मारे ही तो भागकर जान बचा
रहे हैं हम-लोग सभी।"
"मेरे कारण...मेरे कारण जान बचाकर भाग रहे हो तुम लोग?"
क्षेत्रबाला आँगन के किनारे धरती पर बिना कुछ देखे ही धम्म से बैठ गईं। चोट
खाये हुए चेहरे से बोली, "मुझसे परेशान होकर चले जा रहे हो तुमलोग?"
"और नखईं तो क्या? दूसरी 'अबोध' मधुमिता भी अनायास ही बोल पड़ी,
"बराबर से ही तो अम्मा तुम्हारे कारण जलती-भुनती रहीं। कब सुख मिला उन्हें?"
शायद इस कथन के पीछे एक और कारण था। चाहे जितना भी कलकत्ते जाने के लिए मचले,
हमेशा के लिए इस जगह को छोड़कर जाने का दुख भी था मधुमिता को। दुख था मोहन
नामक एक बुद्धू लड़के को छोड़ जाने का। और इस दुख के लिए अवचेतन मन में
क्षेत्रबाला को ही उत्तरदायी समझ रही थी वह। अबोध की चोट भी गलत जगह पर पड़
जाती है।
ऐसी चोट खाकर क्षेत्रबाला अपना स्वभाव भी भूल गई। और दिनों की तरह चीखी नहीं,
"इतनी बड़ी बात कह दी तूने?" कहकर रोई-धोई भी नहीं। वह मानो पथरा गई।
आँगन के किनारे बैठी तो बैठी ही रहीं। याद नहीं रहा कि भक्ति की बीवी भी आज
दफ्तर गई है, जाते समय इन्हें कुछ खाने-पीने को कौन देगा?
कोई दे, न दे, कुछ भी तो रुका नहीं।
रमोला ने खुद ही मिठाई मँगवा ली, सबको खिलाया-पिलाया। घर के कल्याण की चिन्ता
उसे नहीं है क्या?
केवल मुक्तिनाथ से कहा उसने, "देखो, आँख खोलकर देखो। हमेशा के लिए चले जा रहे
हैं पर कोई हाथ में एक मिठाई थमाकर उपना फर्ज पूरा करने नहीं आया। ठाट से
बैठी रही तैश दिखाकर.. ''
मुक्तिनाथ थकी हुई आवाज में बोला, "अब चुप भी होगी?"
हाँ, बातूनी रमोला चुप ही हो गई अब। जब से जाने की बात तय हुई है तब से वह
मुक्तिनाथ से डरने लगी है। शायद शेष जीवन ऐसे ही काटना होगा उसे। उसकी
चिर-आकाक्षित निजी गृहस्थी के केन्द्र-बिन्दु में रहेगा एक विरस, विषादग्रस्त
असहिष्णु पुरुष।
अपनी वासना की छुरी चलाकर, काट-छाँट कर मूर्ति को अपने नियंत्रण में तो लाया
जा सकता है पर वह मूर्ति पूर्ण तो नहीं रह जाती है!
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