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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15404
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...

2

निर्मला कहती-तब मुझे क्यों कहते हो। तुम तो घर के बेटे हो जब तुम्हीं-कहती थी क्योंकि मैं उसे धिक्कारता, लांछित करता। कुछ वाक्यों से विद्ध करता। सोचता था अगर वह तंग आकर कोई अन्यथा बन्दोवस्त करे। कुछ भी ना। नियमपूर्वक वह भोरे में अंधेरा रहते ही उठ जाती, और मध्य रात्रि में चोरों की तरह आती।

इधर मैं अपने ताया जी के लड़के को भी देखता जिसकी शादी मेरे बाद हुई थी। पर काफी चालाक चतुर बन बैठा था। अक्सर ही देखता उसके कमरे का दरवाजा पहले बन्द हो जाता और सुबह धूप निकलने के बाद ही वह दरवाजा खुलता।

मैं भी क्रोधित होकर कहता, ''देख रही हो।'' निर्मला कहती, ''क्यों नहीं।''

कहना-देखकर सीखती क्यों नहीं।

उसका जबाव होता-हाय! मैं तो मर ही जाऊं।

निर्मला की बात करने का लहजा ही ऐसा था। शायद सर्वगुणसम्पन्न बहू का खिताब लेने के लिए उसने अपने वाक्यों को भी सयंमित कर डाला था।

परन्तु उस खिताब के प्रति मैं काफी नाराज था। उस नाम का मेरे पास कुछ भी मूल्य ना था। मुझे लगता एक दिन चिल्ला-चिल्ला कर सारी लज्जा त्याग कर कहूं घर के अभिभावकों को, अगर नवयुवती को सेवा पाने का इतना ही लोभ था तो वे स्वयं ही एक और शादी कर सकते थे।

लगता था, इच्छा होती थी घर में चिल्लाने की पर हिम्मत ना होती।

अगर विद्रोह करने की हिम्मत जुटा कर कमरे से बाहर निकलता तो ताया जी को देख कर जो खड़ाऊं की खट-खट की आवाज से अन्दर से बाहर या बाहर से अन्दर आ जा रहे हैं, और पिताजी और चाचा ही दालान की चौकी पर बैठे शतरंज की बाजी चल रहे हैं, मेरी हिम्मत जबाव दे जाती।

मेरे पिता, ताया, चाचा जमींदार नहीं थे। वे व्यवसायी, कारोबारी थे, जो धान, चावल का कारोबार करते थे। उनका मिजाज था जमींदारों की तरह। ग्राम के सब उनका सम्मान करते, डरते भी थे, क्योंकि उनका दबदबा था। इस घर में जब पूजा, पार्बन होता तो प्रजा गुलामों की तरह सलाम करने आ जाती। इस दीनता की वजह एक और थी-यह सब परोपकारी थे। प्रचुर पैसा था पर अहंकार या अमीरों जैसी शान-शौकत नहीं थी। सबसे ऊपर भाइयों के बीच एकता भी थी-जो गांव के लिए आदर्शवादिता का नमूना था।

पता नहीं भाइयों में एकता होने से लोग उसे क्यों इतना महत्व देते हैं, उसे सराहते हैं। मुझे तो इस एकता में व्यक्तित्वहीन अपरिणति की छाप दृष्टिगोचर होती है। एक व्यक्तित्व सम्पन्न पुरुष शिशु या बालक की भूमिका ग्रहण करे तो इससे हास्यकर क्या हो सकता है?

हां, ऐसा ही तो होता था।

छोटे भाई की पत्नी या बच्चे की बीमारी की खबर पहले लड़के के ताया जी के पास पहुंचेगी, वे डॉक्टर या वैद्य का बन्दोबस्त करेंगे-यही था परिवार का आईना, कानून, विधि।

बीवियों को अगर मायके जाना है तो पतियों की इसमें कोई भूमिका नहीं थी, वह तो गृहकर्ता का दायित्व था। सर्वविधि प्रयोजन के अवसर पर हमें तायाजी या दादा जी के पास शरणागत होना पड़ता था।

यह सब मुझे अत्यन्त, बचपना लगा करता। हमारे उस परिवार में 'कर्ता भजन' नामक वस्तु ही पवित्र पुण्यकर्म हुआ करता। इसके अतिरिक्त कुछ और भी अन्यथा हो सकती है यह कल्पनातीत था।

मैं सिर्फ अजीबोगरीब कल्पना करता था।

मुझे यह लगता ताया जी निर्लज्ज स्वार्थी की तरह परिवार के नैवेद्य का हरण कर रहे हैं और उनके इस 'आदर्श' परिवार रूपी बेदी पर सबकी बली चढ़ रही है, सब अपने आनन्द, इच्छाओं की बलि देकर आदर्श की शबाशी उन्हें मिल रही है। वे उनके नाबालिग भाई। उनको सम्मानबोध भी अनूठा था।

मैं अगर अपनी पत्नी से असमय, थोड़ा प्रेमालाप करने की इच्छा जाहिर करूं तो वह उनका असम्मान होगा।

मैं अगर अनपढ़ पत्नी को पढ़ाना-लिखाना चाहूं तो वह भी उनके लिए असम्मान प्रदर्शन होगा।

मिथ्या सम्मानबोध का तमगा गले में डालकर औरों का जीना हराम किये दे रहे हैं।

बड़े यानि भयंकर, यही उनका विश्वास था। अब मैं समझ पा रहा हूं कि यह अजीब चीज मेरी हड्डी, मांस सबसें घुलमिल गई थी। खून तो एक ही रहेगा, अगर वह ना होता तो मैं काहे निर्मला को इतना सताता?

जिस विद्रोह का प्रदर्शन करने में मैं अक्षम था उसी को निर्मला के अन्दर क्यों देखना चाहता था। जब नहीं देख पाता तो उस पर अत्याचार करता, परन्तु वह भी मेरे व्यवहार के प्रति अगर विद्रोह करती?

शायद इतिहास ही बदल जाता। निर्मला ऐसा ना कर सकी। वह तो अनुगत, विनीत और दासत्व ही सीख पाई थी।

जब वह मध्यरात्रि को कर्मक्लान्त देह सहित मेरे शय्याप्रान्त में आती तब वह मुझे केवल प्रसन्न करने ही स्वयं को मुझे सौंपती। उसमें कामना, वासना का लेश भी न रहता। मेरे अन्दर जिस कामना ने तिल-तिल डेरा जमा रखा था वह आक्रोश और विकृत काम वासना उस निरीह नारी पर टूट पड़ता। उसे मैं चूर-चूर करता पर वह बिना किसी प्रतिवाद के मेरे सारे अत्याचार नीरवता से सह जाती।

अचानक कभी-कभी मैं एक हिंस्र पशु की तरह और एक निपट गंवार की तरह चिढ़ कर कहता, ''मैं तुम्हारा इतना अपमान करता हूं तुम कैसे सहती हो? तकलीफ नहीं होती?''

वह पीड़ा से हँस देती, ''अपमान कैसा? तुम तो प्रेम करते हो मुझसे।''

इस पृथ्वी के विरुद्ध, अभिभावकों के विरुद्ध और समाज व्यवस्था के विरुद्ध जितना भी आक्रोश मेरे मन में संचित होता रहता था वह उसके कोमल सुन्दर शरीर के ऊपर से लेता। और अपने मन की दाह की अग्नि उसके शान्त मन को दग्ध करके मिटाया करता। और वह कहती, तकलीफ काहे की यह तो तुम्हारा प्रेम है।

इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्षु मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शारीरिक दाह को मिटा सके, उसे वासना और कामक्रीड़ा में अपना समान भागीदार बना सके।

तभी तो मेरे चरित्र में खरबी आ गई।

हालांकि अभिभावकों की कड़ी दृष्टि के सामने ऐसा कुछ भी करने का प्रश्न ही नहीं था पर कलकत्ते के घर में तो ऐसा कुछ भय नहीं था। हां, हम लोगों का एक मकान कलकत्ते में था।

हां, घन सुन कर महोदय किसी सुन्दर, रमणीक, कमनीय नीड़ की कल्पना मत कीजियेगा। यह तो एक मकान था जहा बारबार के प्रयोजन से आने वालों को एक रहने की जगह भर मिलती थी। मेरे पिता, ताया जी को बीच-बीच में कारोबार के सिलसिले में कलकत्ता आना पड़ता था, इसी कारण एक नौकर और महाराज को तनख्वाह और खाना कपड़ा पर रख छोड़ा था। उनके पास पैसा था और सस्ता जमाना था तभी ऐसा कर पाते थे।

और जब बच्चों को नाटक, बायस्कोप देखने का शौक चर्राता तब और लड़कियों को ससुराल से और बहुओं को मायके से लाने या ले जाने की आवश्यकता होती तब इस मकान की जरूरत बढ़ जाती। या किसी कठिन रोग से आक्रान्त किसी व्यक्ति को कलकत्ते में बड़े डॉक्टर को दिखाने की आवश्यकता होती, तब इसी घर में आना पड़ता था।

मैं ही जल्दी-जल्दी आने लगा। क्योकि मेरा दिल उस अचलायतन में हांफ उठा था।

मेरी पत्नी गांव की थी तभी उसे मायके के बहाने इस मकान में आने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ी। फिर भी निर्मल कभी-कभी कहती-'कायस्कोप देखने का मन करता है। कभी तो देखते हैं सिर्फ मैं ही...।

मैं कहता-ठीक है अगले हफ्ते तुम्हें ले कर जाऊंगा।

निर्मला उसी वक्त मेरा हाथ पकड़कर प्रार्थना करती, ''मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूं वह सब मत करना। चाची जी, या समझली बहू नौ बहू या दीदी लोग जाये तभी...।''

मैं झुंझला उठता।

क्योंकि मैंने यह निश्चय किया था इस बहाने मैं इस घर में प्रगति की आवहवा की सृष्टि कर पाऊंगा। परन्तु निर्मल ही बाधा देती, ''तुम अगर बड़ों के सामने ऐसा प्रस्ताव रखो तो मैं गले में फांसी लगा लूंगी।''

गले में फांसी यह उसका तकिया कलाम था। बायस्कोप के प्रस्ताव पर वह शर्म से गले में फांसी लगाने की व्याकुलता जाहिर करती।

मैं और बात नहीं बढ़ाता था क्योंकि मेरा मन खट्टा हो जाता था। उस समय तक।

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