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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15404
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...

अधूरे सपने

 

1

हां, मैं अतनू बोस अपने बारे में सब कुछ बताने वाला हूं जिसे कानून की नजर में 'जबानवन्दी' या किताबी भाषा में 'इकरारनामा' के नाम से बड़े-बड़े अलफाजों में लिख कर लोगों को आकृष्ट किया जाता है। वास्तव में वह आदमी से अपनी बात उगलवा कर फिर उसे प्रमाणिक रूप से रखने के अलावा और कुछ भी तो नहीं है।

मैं कहता जाता हूं आप रिकॉर्ड कर लें। आज कल तो टेप की सविधा है; हां, टेप आप लोगों के पास काफी सारा है तो? बीच में अगर विघ्न घटे तो छन्दपतन हो जायेगा। मेरी विषय सामग्री लम्बे टेप की मोहताज है। हालांकि अधिकारीगण चाहते थे मैं अपनी स्वीकारोक्ति लिख कर दूं पर उस रात की झपटा-झपटी में मेरा दायां हाथ बेकार हो गया, उसमें कलम पकड़ने तक की ताकत नहीं है।

हां, टेप रिकॉर्डर पर टेप कर लें जिससे मेरा जुर्म हमेशा के लिए प्रमाणिक तौर पर उसमें बन्दी बना रहेगा।

आधुनिक विज्ञान ने हमें क्या नहीं दिया? हमारे बाप-दादा की कल्पना से बाहर सुख-सुविधा, जो हमारे हुक्म की बांदी हैं-हम उन यांत्रिक लीलाओं में इतने मग्न हैं कि यह सोचना हमारे बस से बाहर है कि वे अगर ना हों तो हमारा जीवन निर्वाह क्यों कर हो? उधर हमारे पुरखे यह सब सुनकर सब कुछ अलौकिक मान कर शायद सब बातें हँसी में टाल देते। हम तो इन सब उपकरणों के बिना जीना भी भूल गये हैं। हम कल्पना भी नहीं कर पाते कि किसी जमाने में इन सब वैज्ञानिक उपकरणों के बिना ही वे जिन्दा रहते थे।

इसलिए हम आज विस्मित होना भी भूल गये। तभी तो मैं विस्मित नहीं हूं कि-मैं बोलता जा रहा हूं और सामने रखा यंत्र मेरी बातें इस प्रकार रट चुका है कि, जब भी मैं हुक्म करूं तभी यह मेरी सारी बातें तेज रफ्तार से बकता चला जायेगा, उसमें विश्राम, विरति कुछ भी छोड़े बिना। और मैं जरा रोमांचित नहीं हो रहा।

उधर जब स्वयं को अपने पुरखों वाले सारल्य, सादगी और विश्वास की भावना से परे पाते हैं तब हमें महान आश्चर्य का अहसास होता है। हम विस्मित

रह जाते हैं। जाने दें-मेरी जबानवन्दी सुनकर यही प्रमाणित करना है कि मैं अपराधियों की श्रेणी का पहला नम्बर का अपराधी हूं। मेरा विचार होगा। मेरे भाग्य निर्णय का फैसला-कल सुनाया जायेगा। मैं उस अपराध का भागी हूं जिसके असफल प्रयास से सजा का विधान है-चाहे वह प्रयास असफल ही क्यों ना हो।

मेरी यही आशा है कि अनुत्तीर्ण परीक्षा फल के लिए महामान्य धर्माधिकारी गणों के इजलास में 'मेरा जो भी फैसला होगा वह न्याय से पूर्ण ही होगा।'

आप लोग जो हमेशा से अतनू बोस को हमेशा बड़ा आदमी समझ कर उससे एक फासला बनाये रखे थे और मन-ही-मन जलन भी होती होगी-वे अगर चाहे तो इस अदालत रूपी नाट्य स्थल में आकर इस उच्च श्रेणी के जीव की अभिनय प्रतिभा का निर्देशन इस उच्चश्रेणी के नाटक में पा जायेंगे। उससे शायद उनका मन कुछ शान्त हो।

यह भी है कि इस नाटक में अभिनय ना करूं ऐसा सुझाव भी दोस्तों से मिला पर मैं नहीं माना। दोस्तों का कहना था मैं क्यों नहीं पर्दे के पीछे जाकर नाटककार और अन्य कलाकारों का मुंह बन्द कर देता। जबकि बन्द करने की कुंजी मेरे पास मौजूद थी।

पर इच्छा नहीं हुई। पर इच्छा पुरानी भी तो हो गई है-अब सिर्फ मन में एक ही इच्छा बची है जो है-यह देखने की कि एक साधारण से आत्महत्या के प्रयास के कारण अतनू बोस को कैसी सजा निर्दिष्ट की जाती है?

यह समाचार सुनने के बाद आप लोगों को आश्चर्य का अनुभव तो हुआ ही होगा। शायद यही सोचकर चौंके होंगे कि नामी अमीर और कठोर दिलवाला अतनू बोस अचानक आत्महत्या क्यों करने चला था-जों कि अक्सर निर्बोध तथा भावप्रवण व्यक्तियों का जन्मसिद्ध अधिकार है।

हां, मैं मानता हूं मैंने यह बचपना किया और सस्ती मानसिकता का सहारा लिया। क्या करता-आखिरी बार की बीवी को सजा देने के लिए यही रास्ता चुना था-इधर आखिरी यानि पांचवीं बीवी को मैं थोड़ा...।

लेकिन वह तो बाद में-पहले प्रथम का ही वर्णन करता हूं। क्या हुआ? पांचवीं बीवी सुनकर आप मुंह छुपाकर हँस रहे हैं? आंखें गोल-गोल हो गई हैं-लेकिन क्यों? आधुनिक सभ्य संसार में सारे मसले ही तो निरीक्षण-परीक्षण के द्वारा तय किये जाते हैं तो जीवन में इसे क्यों नहीं लागू किया जा सकता?

जीवन क्या-आपके शिल्प, साहित्य, शिक्षा समाज से कम महत्वपूर्ण है? पता नहीं आप लोगों के लिए है या नहीं पर मेरे लिए तो यही सबसे महत्त्पूर्ण है।

जब मेरी पहली शादी हुई थी तो मैं बाईस साल का और कन्या पन्द्रह साल की थी। उसमें रोमान्स ना था बल्कि बड़ों द्वारा या बड़ों के बीच मात्यदान, शुभदृष्टि, पूर्वराग, अनुराग, अभिमान था जो दोनों पक्षों में आपस में तय किया गया था।

हमारी भूमिका थी माथे पर सेहरा-मुकुट लगाये बुद्ध की तरह बैठे रहना ओर सेज पर उनींदी आंखों और पसीने वाले हाथों से कौड़ियों से खेलना। वह खेल भी दूसरे ही खिलाते थे।

हमारा काम था बड़ों के गुड्डे, गुड़ियों के खेल के सहभागी का पार्ट अदा करना। ब्याह के बाद भी युगल की भूमिका गौण थी। यहां तक साहस कर युगल भूमिका का निर्वाह करना भी हमारे अधिकार क्षेत्र की परिधि में नहीं आता था।

मिलते तो डर के जैसे सम्बन्ध अवैध हो। हमारे मिलन में प्रेम के स्थान पर पराये स्त्री-पुरुष के मिलन जैसा भाव समाया रहता।

अभिभावक इस बात को मानने के लिए राजी ना थे कि हमारा वैद्य रिश्ता है, समाज द्वारा भी स्वीकृति है। पता नहीं किसी उल्लेखित अनुशासन द्वारा हम हमेशा भयभीत तथा डरे रहते थे। यह भी जबान पर निकालना सम्भव नहीं था कि इतने धूमधाम से ब्याह करने की जरूरत ही क्या थी?

हां, मिलने का अधिकार दिन में एक बार था। जैसे मापजोख वाला राशन या सीमा पार का परमिट कार्ड।

मिलन का समय होता जब पूरे घर का रात्रि भोज समाप्त होता-रावण परिवार का रात्रिभोज मध्य रात से पहले सम्पन्न होना सम्भव कैसे होता? पुराने दम्पत्तियों का किसी-किसी का दरवाजा बन्द होता, तब नवेली दुल्हन ददिया सास, फुफिया सास के कमरे में मसहरी टंगाकर उनके माथे पर पंखा झल कर और पैर के पास तौलिया आदि रख कर बिना किसी आवाज के चोरों की तरह शयनकक्ष में प्रवेश करती।

उतनी ही थी सीमा। व्याह के एक बरस बाद भी हालात में तबदीली नहीं आई। ददिया सास मेरी दादी शायद गमनोमुखी से एक और पान कुटवा कर स्वर में अपार दया भर के कहतीं-जा बहू मेरा नाती परेशान हो रहा होगा।

पतोहबहू को और भी अधिक शर्म का दिखावा कर वहां रहना पड़ता, क्योंकि यह तो उसके लिए लज्जा का विषय था (पति के पास जाना) फिर पुनः-पुन: अनुरोध के पश्चात् ही कमरे से बाहर पैर निकालती।

मेरी पहली वही थी-जिसका नाम निर्मला था। जो दादी के बड़प्पन पर निहाल थी। कहती-जो भी हो दादी के मन में प्यार और दया है।

मेरी हालत उस वक्त बन्द शेर की जैसी होती। तभी तो दांत पीसकर कहता।

दयामाया। मेरी तो उस बूढ़ी को फांसी देने की इच्छा होती है। निर्मला शिहरत होती। भगवान का नाम लेती, दुर्गा, देवी। मेरा मुंह दबाकर कहती छि:-छि: तुम्हारी जबान पर लगाम नहीं है। किसको क्या कह रहे हो?

मैं और भी चिढ़ जाता। और उसकी स्थिरता, धैर्य पर और मुझे खीज होती। 'षोड़शी' के बारे में कितना काव्य रचा गया है, गाना, संगीत, सभी बेकार है। यह जो मेरे सामने हाड़-मांस की षोड़शी है बिल्कुल हाथ की मुट्ठी में है। कहना चाहिए, कहां इसमें तो षोड़शी का आवेग, उन्मादना, वासना, आकुलता कुछ भी नहीं दिखाई नहीं पड़ता।

मेरी इच्छा होती उसे पटक कर पूछूं, ''इतना धैर्य तुम कहां से लाती हो? तुम्हारे अन्दर क्या रक्त, मांस कुछ भी नहीं है, सिर्फ भूसा, मिट्टी है। वह भी गंगा के किनारे वाली मिट्टी।

संयुक्त परिवार के लड़के को काफी झमेलों से पार होना पड़ता है। अपनी उत्तेजना पर पानी फेरना पड़ता है। अगर ऐसा ना करे तो घर में समालोचना का तूफान बहने लगे।

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