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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15404
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...

16

बापी सयंमित स्वर से बोले-जानता हूं और यह भी पता है तुम्हारे नाच-नाटक से कुछ भी नहीं होगा। वे जिस कष्ट में हैं उसी में ही रहेंगे। मैं व्यवसायी हूं भाग्य पर विश्वास करता हूं। जिसके भाग्य में साड़ी, गहना, गाड़ी-कोठी भोग करना है तो वे इन सबका भोग करेगा। जिनके भाग्य में दुःख सहना लिखा है वे दुःख सहेंगे भी। तुम बेकार में बुद्धू लोफरों के साथ क्यों घूम कर अपना समय बर्बाद करोगी। इन आवारा छोकरों के पास ना काम है, ना माल तभी इस बहाने कुछ पैसा आमदनी कर लेते हैं। समझी। उसका साथ छोड़ो और बाहर घूमना भी बन्द करो।

पौली की आंखों से अग्निशिखा दहकने लगी। पौली फोंस कर उठी-''बाहर घूमना बन्द करके और क्या करूं? घर में ही कौन-सा सुख है?''

क्या आश्चर्य की बात है? घर में ही तो सुख है। तू अपने लिए ही सुख है, सुन्दर-सी बेबी है तेरी। जब तू छोटी-सी बेबी थी तब तेरी मां चली गई, तू ही मेरा सुख थी। ''वह तो है-पर तुम्हारा बिजनेस वही तो असल सुख था। मेरे पास है?''

पाइन साहब ने प्यार से एक हल्का चांटा रसीद कर बेटी को प्यार से कहा-''तेरे पास पति है।''

पौली ने अपने छोटे सुनहरे बालों को लहरा कर मुंह टेढ़ा कर कहा ''वह तो वर नहीं है बर्बर है। पता है उसने मुझे कल गाल पर थप्पड़ मारा।''

'थप्पड़-पाइन साहब ने प्रश्न भरी नजरों से देखा। हां, उस भाषा को मैं स्पष्ट रूप से पढ़ रहा था। लेकिन वह तो एक सैकंड का भी सौंवा भाग था। बातों की दिशा में उलट-फेर ना हुआ।

बिल्कुल गाल पर ही थप्पड़ क्या कहती है। हे अतनू! यह क्या कह रही है? तू क्यों हारी? एक घूंसा जमा देती या उंगलियों से माथे पर मारती।

पौली ने भौंहें ऊपर उठाईं-हार। तुम्हारी बेटी हार मान सकती है। उसके पास जरीदार नागरा नहीं था?''

'जरीदार नागरा' शब्द का प्रयोग करके पौली ने उस घटना को दाम्पत्य कलह वाले रंगीन रंग में डुबो कर रंगीन धागों से बुन दिया।

पौली का वही कौशल फिर काम कर गया। या खुद अभी भी बेदाग है-

लेकिन सोचने का वक्त ही ना मिला। पौली के पिता का अट्ठहास-तब तो जैसे को तैसा-बल्कि थोड़ा ज्यादा ही-क्या अतनू-काफी देर तक पाइन साहब हँसते रहे।

तब चांटा और चप्पल का मामला खारिज हो गया। दिन के पहिये अपने हिसाब से चलते गये।

बेबी की उम्र और उसकी मां की मनमर्जी बढ़ती चली गई। क्रमश: चरम सीमा-जो था स्वेच्छाचारिता का प्रतीक-मैं उसके चेलों से नफरत करता था यह समझने के बाद पौली ने उनको अपने माथे का ताल बना लिया। अगर मजलिस रात तक जमी रहती तो उनके लिये पूरी बनाने का आदेश दिया जाता। और बारिश आ जाये तो खिचड़ी, आमलेट बनाने का हुक्म-और बारिश ना रुके तो बिस्तर बिछाने का भी निर्देश मिलता। मुझे सब सुनना पड़ता।

मेरे साथ बात बन्द थी यह भी नहीं कहा जा सकता। 'बातचीत' बन्द में अभिमान का पुट रहता है वो उसे भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी।

मेरे कमरे या हम लोगों के कमरे में वह सोने नहीं आती थी ऐसी भी बात नहीं थी। जब आती तब बात करने की तबियत नहीं होती।

सो जाता था क्या? सोने के काबिल मन की हालत नहीं थी, क्योंकि नींद आती है जब मन शान्त हो, किसी प्रकार का तनाव ना हो। लेकिन मैं जो लगा रहता इस बात का पता भी मैं नहीं लगने देता था क्योंकि तब तो मैं लालची या निर्लज्ज की तरह उसकी आस लगाये बैठा रहता, यही वह सोचती। और तब उसे और भी घमण्ड होता।

तभी मुझे नींद का बहाना करके पड़े रहना पड़ता था, जब मैं सो कर उठता तब पौली घोड़े बेच कर सो रही होती।

और बेबी-उसका तो मां-बाप के कक्ष में प्रवेश वर्जित था, वह पास वाले कमरे में एक बूढ़ी दासी के साथ सोती थी।

वह आया नहीं थी सिर्फ दासी थी। वह वासू की बूआ थी। उससे क्या आता जाता है, और थोड़े दिनों के बाद ही तो बेबी को बोर्डिंग स्कूल भेजा जायेगा। सीट बुक करवा दिया गया है-सिर्फ वहां तीन साल पहले लेने का नियम नहीं है तभी अभी नहीं भेजा जा रहा।

इस व्यवस्था के विरुद्ध मेरा प्रतिवाद निष्फल गया। पौली का कहना था-जो समझते नहीं उसे लेकर विवाद काहे करते हो, बेबी के बारे में मैं ही सोचूंगी।-बेबी के ऊपर मेरा भी कुछ अधिकार है, इसे क्या तुम गिनती में नहीं लातीं?'' वह तीखी हँसी हँसी-''बुद्धू की तरह बात मत करो-बाकी सब देशों का उदाहरण लो जो काफी सभ्य हैं।

मैंने कहा, ''सभ्यता का दूसरा नाम फिर स्नेहहीनता रखना चाहिए।'' बोर्डिं का नाम जबसे बेबी ने सुना है तुम नहीं देखतीं वह कितनी भयभीत है। तुम्हारे डर से वह रोती नहीं है।

''जब पढ़ाने बैठो तब भी बेबी डर जाती है, तब उसे पढ़ाना भी बन्द कर देना चाहिए। सेन्टीमेंट मुझे फूटी आंखों से नहीं सुहाता और तुम उसी को जकड़ कर बैठे हो। पता नहीं क्यों तुम कांचनगर से अपनी बीवी को छोड़ यहां आये मुझे समझ नहीं आता। वही तुम्हारे लिए उपयुक्त थी-आधुनिक बनने की लालसा है पर आधुनिकता को दिलोजान से ग्रहण भी नहीं कर पाते या करने की क्षमता नहीं। ऐसे लोगों से मैं घृणा  करती हूं-समझे, पूरी तरह से घृणा।''

मैं हँसने लगा।

जो अतनूबोस बाह्य जगत के कृपाप्रार्थियों के सामने व्यंग्यात्मक एवं तुच्छ करने वाली हँसी हँसता है-उसी लहजे में बोला-अच्छी बात है अब मुझे नये सिरे से लिखना नहीं पड़ा, तुम्हारी लेखनी के नीचे ही हस्ताक्षर किये देता हूं। घृणा! आधुनिकता के बहाने जो लोग चाहे मर्जी करने का बहाना खोजते हैं और अपनी जिम्मेदारी से हाथ धोते हैं-यही नहीं सीमाहीन स्वतंत्रता का प्रयोग करने का क्योंकि वैधानिक प्रमाण-पड़ा पा जाते हैं-''उनके प्रति तो मैं अनुरूप घृणा कैसी होना चाहिए मुझे समझ नहीं आता।''

वह बोली-तुम्हारे साथ तर्कवितर्क में भाग लेने की मेरी मर्जी नहीं है।

मैंने निश्चय कर लिया है बेबी को अगली जनवरी से बोर्डिंग में भेज दूंगी।''

जनवरी आने में कुछ महीनों की अभी देरी थी। मैंने भी पक्का इरादा कर डाला कैसे भी हो मैं उसे जाने ना दूंगा चाहे जो भी करना पड़े।

आप लोग हँस रहे हैं?

सोच रहे हैं क्या अतनू बोस, अपने ही घर में अपने ही परिवार पर तुम्हारा इतना भी अधिकार नहीं है?

यह कह सकते हैं। मैं भी सोचता अपना जोर दिखाऊंगा, कहूंगा मेरे घर में मेरा ही हुक्म चलेगा। बेबी यहीं रहेगी।

लेकिन बात यह है-मैं तो दिन भर घर में रहता नहीं। बेबी की उसके मां के अत्याचार से कौन रक्षा करेगा?

मैं कमजोर पड़ गया था वह इसी-लड़की की वजह से ही। मेरे पीछे उस पर अत्याचार ना हो मैं इसी भय से आतंकित रहता। होता भी तो था।

पौली उसे सौतन की बेटी की तरह देखती वह उसे खटकती-क्योंकि पौली की यही धारणा थी उस बच्ची की वजह से ही उस को मेरा प्यार-दुलार नहीं मिल पा रहा। उसी की वजह से ही मैंने पहले वाले प्रेम से विगलित हट कर अपने अन्दर कठोरता पैदा कर ली। हर पल मेरे लहजे में एक शिकायत से भरा हुआ वाक्य रहता।

शायद यही मेरी गलती थी। अगर मैं बेबी की तरफ से उदासीन रहता तो शायद वह अपने मार्तत्व कर्त्तव्य से ना हटती।

लेकिन मैं उदासीन ना रह पाया। क्योंकि पौली शुरू से ही आधुनिकता वरण करने का साधन यज्ञ कर रही थी। जिस आधुनिकता की भाषा स्नेह को दुर्बलता, ममता को भावप्रवणता और मां बनना एक दुर्घटना बताता है।

मां बनने से पहले पौली की आधुनिक्ता मेरी भी थी, आकर्षणीय भी थी। पर बेबी के आने के बाद से मेरे लिए उसकी उग्र आधुनिकता बरदाश्त के बाहर थी।

मैंने क्या चाहा था?

प्रभा के स्थूल बन्धन, निर्मला के शिथिल बन्धन से मुक्ति पाकर, मैंने भी तो इस रंगीन रोशनी से जगमगाते जगत की तरफ ही हाथ बढ़ाया था। इस जीवन का सौदा, मैंने बड़े बाजार की खाक छानी थी। और इस जिन्दगी में पाइन साहब की बेटी पौली ने ही मुझे अपने हाथों से सिखा-पढ़ा कर प्रवेश कराया था।

पौली मेरे लिए सुख की प्रतिमूर्ति थी। अब वही असहनीय हो गयी थी।

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