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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15404
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...

15

अजीब बात है, दो बरस के शिशु को भी मरने की बात का पता है। उसे पता है ज्यादा मारने से इंसान मर सकता है।

मेरी बेबी को लेकर कलकत्ता छोड़ कर कहीं बाहर चले जाने की इच्छा हो रही थी। लेकिन बेबी के रुदन ने ही मुझे घर वापिस लौटने पर मजबूर कर दिया।

अगर वह ना रोती तो क्या में सच में कहीं चला जाता? जा सकता था? शौखीन बड़ा बाजार में वाणिज्य, बैंक का खाता। तीन-तीन महलों जैसे घर छोड़कर चला जाता? बेबी ने मेरा मुंह रख लिया। मान बचा लिया।

मैंने सोचा या सोचने का बहाना किया कि बेबी रो रही थी तभी लौटना पड़ा नहीं तो मैं कहीं भी चला जाता। उसी घर में दुबारा प्रवेश किया जहां से अपनी बीवी का जूता खाकर चला आया था। जिस घर में नौकर-चाकरों के सामने मेरी बीवी शराब पीकर चिल्ला रही थी-साहब के साथ इश्क लड़ायेगी-बामन होकर चांद पर चढ़ने का शौक। तेरी चाबुक से चमड़ी उधेड़ दूंगी। और उस साहब को गले पर धक्का मारकर बाहर निकाल दूंगी।''

था तो मद्यपान से गले का स्वर अटका-अटका, पर उच्चारण तो साफ थे। और मद्यप स्त्री भी क्या ऐसी गौरवमयी है?

उस घर की चौखट को पार कर अन्दर आना पड़ा। सभी अतनू बोस, घोष, शर्मा सभी को आना पड़ता है। नहीं तो जायेगा कहां? इस पृथ्वी पर सात फेरों के बंधन से बंधा इंसान कर भी क्या सकता है?

अन्दर आकर लगा यह घर तो अद्भुत शान्त था जैसे किसी मृत पुरी में आन पहुंचा था। धीरे-धीरे बच्ची को लेकर घुसा, दो तल्ले पर चढ़ा, इस बीच में गेट पर दरबान और दो तल्ले की सीढ़ी के सामने वाले दरबान ने मुझे सलाम भी ठोंका। मैं चढ़ गया।

ना पौली थी, ना आया थी, पुराना नौकर वासु भी नहीं था। इधर-उधर दो-एक दासियां दिखाई दे रहीं थीं। उनमें से एक को बुलाकर कहा-''शायद इसका खाने का टाइम हो रहा है। देखो तो क्या खायेगी?''

वह ना जाने क्या कह कर भागकर गई और एक गिलास गरम दूध लेकर चली आई। दूध पीकर पीकर बेबी मेरे पास ही सो गई।

पौली के गले की आवाज काफी रात गये सुनाई दी। हँसी तो, आनन्द से, कौतुक से भरपूर-''केस करेगी मेरे नाम पर-केस। भाग कर थाने में गई मार का दाग दिखाने। ही-ही-ही। कैसे अपना चक्कर चलाया। रुपया। जिससे ईश्वर को शैतान बनाया जा सकता है। यह तो एक सूद्र आया का आदमी था। पांच सौ रुपये के नोट उसकी ओर फेंक दिये, कहा-साहब के साथ लटपट करती थी तभी मैंने मारा है-थाने में रपट लिखाने गई है। अब बोलो वह बीवी की तरफदारी कर उसके साथ लड़ाई में भाग लेगा या अपनी ही बीवी को ठीक करने में लड़ जायेगा? वह आदमी मेरे पैरों पर गिर पड़ा। हां, नोट अपनी जेब में डाल लिये थे। यह बात तो अच्छी थी कि वासू उसका घर पहचानता था नहीं तो मुश्किल हो जाती। पौली किसी को इतनी बहादुरी का वृत्तान्त सुना रही थी-हंस-हँस कर।

झांक कर देखने की इच्छा ना थी। पर धीरे-धीरे पता लग गया कि पौली के अनुरागी चेला का सरदार स्मरजित-जो पौली के कहने पर जीता था, मरता था। उसी को अपनी वीरता दिखा रही थी-जो अपने आदमी से भी मार खायेगी। आजकल उसकी हिम्मत भी बढ़ गई। बेवी मेरे से ज्यादा उसको प्यार करती थी। तभी घमण्ड से उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे। मैंने एक दिन बेबी को खिलाना चाहा तो उसने मेरा हाथ पकड़ कहा-''आप से नहीं होगा। आप उसके खाने के बारे में क्या जानते हैं-''

हुआ तो अधिक बढ़ने का नतीजा! समझ आ रहा था तब भी पीली के ऊपर से नशे की खुमारी नहीं हटी थी। तभी इतना बोल रही थी।

अजीब बात थी। पीली किस कदर बदल रही थी? कुछ मतलबी छोकरों के साथ मिलकर अपना मतिभ्रष्ट कर रही थी।

उधर इस समिति के बीच-बीच में समारोह करने के अलावा और कुछ भी शायद किया होगा?

आप लोग शायद यह सोच रहे होंगे कि उसी दिन से पौली से मेरा सम्बन्ध विच्छेद हो गया-नहीं, जी नहीं। यह तो काचनगर का बेपरवाह छोकरा अतीन बोस न था जिसके पास यानी कौड़ी भी नहीं थी। जो एक कपड़े में गृहत्याग कर सकता था या पत्नी से सम्बन्ध-विच्छेद कर सकता।

यह तो अतनू बोस अमीरी का विशेषण जिसके साथ है। जिसका व्यवसाय अपनी पत्नी के पिता के साथ साझेदारी का था।

उस रात को स्मरजित कहां गया या गया कि नहीं मुझे नहीं मालूम पर बीच रात में जब बेबी आया-आया करके रो रही थी-तब पौली खट कर आकर बेटी को खींच कर ले गई।

तभी सुना चुप-चुप एक बार भी गले से आवाज निकाला तो खून कर डालूंगी। देखा था आया को कैसे मारा था?

आश्चर्य मेरे जीजान की कोशिश से जो नहीं हो पाया वह उस धमकी से सम्भव हो पाया-बेबी शान्त! शायद खुशामद के रास्ते सारी चीखों को बन्द करने का तरीका ही गलत है।

अगले दिन मि. पाइन अचानक आये। यह कोई नई बात नहीं थी वे अक्सर अपने बेटी-दामाद के घर में दो-चार मिनट के लिए आते थे।

उस दिन काफी देर तक रहे। पहले मुझे ही बुलाया और कहने लगे-पौली रात-दिन कुछ आवारा छोकरों के साथ घूमती है। उसकी मौसी बता रहीं थीं जो उसके साथ गाड़ी में घूमते हैं वे बिल्कुल सड़क छाप लड़के हैं। यह हो कैसे रहा है?'' मैंने भी हाथ उलट कर कहा कैसे जानूंगा बताइये।

कैसे जानूंगा मतलब! पाइन साहब दबे स्वर से धमकी देते हुए बोले-''तुम्हारा क्या पत्नी के प्रति कोई दायित्व ही नहीं है?''

''होने से क्या होगा। पौली क्या वैसी लड़की है कहने से ही सुन लेगी?''

''रुको यह कोई बात ना हुई। जैसे भी हो इसे समझाना ही पड़ेगा। मैं तो सोचता था तुम अपने दो बार वाले अनुभव को काम में लगाओगे। पौली बार में जाकर शराब पीती है, तुम्हारे साथ किसी पार्टी में नहीं जाती, उन मतलबी आवारा छोकरों के साथ घूमती है। यह सब ठीक नहीं हो रहा है।''

मैं इसका जबाव देने ही वाला था कि पौली दौड़कर अपने बाप के ऊपर आकर गला पकड़ कर झूलती हुई कहने लगी-''बापी तुम बड़े शौतान होते जा रहे हो। इस घर में आकर मेरे साथ पहले बात ना कर उस बाहरी बेकार के आदमी के साथ बातें कर रहे हो।''

पौली के गले से बनावटी नखरे वाला शहद निकल रहा था।

उनका असर पाइन साहब के गले में भी पड़ा। पाइन साहब का कुछ समय पूर्व वाला निरक्ति पूर्ण गाम्भार्य कहां चला गया-उसकी जगह ले ली पितृस्नेह वाले चेहरे ने जिससे प्यार, आनन्द और बढ़ावे का झरना बह रहा था।

''क्यों नहीं बोलूं तुम कहां रहती हो पता नहीं?''

बापी-तुम मुझे तुम कहकर बुला रहे हो। तुम मुझ पर खफा हो? जल्दी से तू कहो नहीं तो अभी रो पड़ूंगी।''

पाइन साहब ने हँस कर उसके सिर को सहलाकर कहा-तू-तू। मैं लेकिन खफा हूं। तुम आजकल कुछ फालतू लड़कों के साथ मिलती हो-''सभा, समिति करती हो।''

-बापी बुरे नहीं-''वे तो बड़े ही अच्छे लड़के हैं। वे सब भारी नरम, दयालु जहां भी दुःख-तकलीफ है उसी ओर अपनी दया-दृष्टि ले जाते हैं। पहले मैं क्या जानती थी इस पृथ्वी पर इतना दारिद्रय है। इतनी दुःख-तकलीफ भी हो सकती है? अब हम लोग मेदिनीपुर के पीड़ितों के लिए एक गीतिनाट्य करने वाले हैं।''

दुखियों के लिए गीतिनाट्य।

पाइन साहब ने अपने नेत्र विस्फारित कर लिए-गीतिनाट्य माने?

आह कितनी मुश्किल है-डान्स-ड्रामा नहीं जानते?''

ओह डान्स-ड्रामा-नाच-नाटक-उन दुखियों को क्या उनका दुःख नाच-गाने दिखाकर भुलाना चाहती है?

''बापी-ओ बापी। तुम कितने अच्छे पर चालू हो।''

उस तेज-तर्रार व्यक्तित्व सम्पन्न रोबदाब वाले पाइन साहब का गला पकड़ कर झूलते-झूलते वह बोली-हम एक चैरिटी शो करेंगे। सरकार से ऐंमूजमेंट टैक्स पास करा लेंगे। जितना खर्चा लगेगा वह रखके हम बाकी वहीं भेज देंगे। दो-तीन बार तो किया। तुम्हें क्या कुछ भी देखने का या सुनने का समय नहीं रहता है। एक बार दिल्ली चले गये, एक बार बम्बई से आने को कहकर भी नहीं आये, अब तुम्हें रहना भी पड़ेगा और ज्यादा पैसा भी देना होगा।''

पाइन साहब ने कंठलग्ना बेटी को हटा कर थोड़ी अवज्ञा के लहजे में यही कहा-जा जा यह सब क्या भले घर के लोगों का काम है? इसे कहते हैं-

तुझे यह सब कौन सिखा रहा है?

बापी तुम कितने निष्ठुर हो। इनको कितना कष्ट है?

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