नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा प्यार का चेहराआशापूर्णा देवी
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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....
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लतू एक सांस लेकर कहती है, "मेरी किस्मत ही खोटी है, इसी वजह से प्रवाल दा शुरू से ही मेरी उपेक्षा करता रहा और मैं पहले दिन से ही उस पर मरती रही।...इच्छा होती थी, एक बार दो बातें कहने का सुयोग मिले तो कहूं मैं तुमसे न तो शादी करना चाहती हूं, न तुम्हें लेकर भागना चाहती हूं, सिर्फ प्रेम से दो मीठी बातें बोलने यो हंसने, गपशप करने से तुम्हारी बात नहीं चली जाएगी। ऐसा करते तो कम-से-कम मेरे मन के अन्दर प्यार का एक सुख रहता। उस सुख को डिब्बे में बन्द करके रखती, जिस दिन दुनिया के व्यवहार से मन दुख से भर जाता, डिब्बे से उस सुख को बाहर निकालकर निहारती।”
"लतू दी, तुम इस उम्र में इतनी बातें कैसे सोचती हो?"
लतू हंस देती है।
कहती हैं, “सोचना ही मेरी व्याधि है। सोच-सोचकर ही मैंने प्यार के चेहरे को पहचानना सीखा है, समझा? तू यदि सोचना सीख ले तो देखेगा कि जो जिसको प्यार करता है, उस पर निगाह पड़ते ही उसके चेहरे पर एक प्रकाश झिलमिलाने लगता है। जैसे किसी ने अन्तर्मन में बिजली का स्विच दबा दिया हो।”
“ऐसा तुमने कभी देखा है, लतू दी?”
लतू अपना सिर एक ओर झुकाकर कहती है, “न देखती तो समझती कैसे?"
“कहाँ? कब?”
यही देख रही हूं, हर रोज देख रही हूं। तूने भी देखा है।...पटाई दादी अम्मा जब साहब दादू के लिए भात लाकर बैठती हैं, गौर से देखना।"
सागर चिहुंककर खड़ा हो जाता है और कहता है-“अयं !"
लतू के कपाल पर बिखरे बाल खुली हवा में उड़ रहे हैं सांप के मानिन्द नहीं, लौकी की फुनगी के मुलायम पत्ते के मानिन्द।
लतू के चेहरे पर मीठी मुसकराहट है।
सिर्फ मैंने ही क्या समझना सीखा है? दुनिया के लोग-बाग समझ गए हैं। औरतों की आंखों की पकड़ में यह प्रकाश आ ही जाता है। पर हां, ओछे लोग ओछी-ओछी बातें करते हैं, दुख की बात यही है। जानता है, मुझे बहुत ही अच्छा लगता है।...मैं अचंभित होकर उस प्रकाश की ओर देखती रहती हूं।...जितना प्रकाश साहब दादू के चेहरे पर रहता है, उतना ही पटाई दादी अम्मा के चेहरे पर।"
साहब दादू ! पटाई दादी अम्मा !
सागर को यह बात अविश्वसनीय लगती है।
सागर कहता है, "धत ! वे तो बूढ़े हैं।”
लतू उसके कंधे पर एक टहोका लगाकर कहती हैं, “यू ही कहती हूं कि तू बुद्ध है। बूढ़ा होने से क्या होगा ! बूढ़ा होने से ही प्यार क्या समाप्त हो जाता है?''हमेशा से आदमी प्यार करते हुए दुनिया में आगे बढ़ रहे हैं। बूढ़ा होने से मातृ-स्नेह नहीं रहता? सन्तान-स्नेह नहीं रहता? मैत्री का प्यार नहीं रहता? फिर? फिर यह ही क्यों समाप्त हो जाएगा? बल्कि उसमें बढ़ोत्तरी ही होगी। जितना ही दुनिया का दूसरा-दूसरा काम कम होता जाएगा, उतना ही इस प्यार को अंकवार में कसकर थामे रहेगा।"
एक मालगाड़ी आयी।
रुकी नहीं।
दनदनाती हुई चली गई। फिर भी कुछ क्षणों के लिए प्लेटफार्म को कंपकंपी गई।
दोनों जने चन्द लमहों तक खामोशी में डूबे रहे।
सागर के मन के अन्दर वही उत्ताल लहर पछाड़ खा रही है।
लतू मानो आहिस्ता-आहिस्ता सागर की आंखों के सामने एक
अज्ञात रहस्य का दरवाजा खोल रही हो।...इसके बाद हो सकता है सागर प्यार का चेहरा पहचान ले''
"सागर वैसा देख सकेगा तो समझ जाएगा कि उनके चेहरे के नीचे चमड़े के तल में किसी ने जैसे बिजली का एक प्रकाश जला दिया है।
बहुत देर बाद लतू फिर बोली, “याद है, तूने उस दिन कहा था कि साहब दादू किसी दिन संन्यासी होकर कहीं चले जाएंगे। मैं हंस दी थी, याद है?”
सागर सिर हिलाकर हामी भरता है।
लतू आहिस्ता-आहिस्ता कहती हैं, "मैंने कहा, संन्यासी तो हो ही गए हैं, अब नये सिरे से क्या होंगे? पर हां, कहीं जाएंगे नहीं, देख लेना।"
लतू पटेश्वरी की तरह आंचल हिला-डुलाकर हवा खाते-खाते बोलती हैं, "तूने कहा, क्यों नहीं जाएंगे? तो मैंने कहा, बाद में बताऊंगी।”
"तुम तो सारी बातें 'बाद में बताऊंगी' कहकर उसे परे सरकाए रखती हो, लतू दी।"
लतू दी !
आश्चर्य की बात है। अभी कितनी सञ्जता से सागर 'लतू दी' कहने में अपने आपको समर्थ पा रहा है, बल्कि कहना चाहिए कि कहने की इच्छा ही हो रही है। जैसे अब सागर लतू को इत्मीनान से प्यार कर सकेगा-निर्भय होकर।
लतू कहती हैं, "जान-सुनकर परे सरकाए रखती हूं, क्यों? तू निहायत बच्चा है। जानता है, क्यों नहीं जाएंगे? उसका कारण उनका खेत-खलिहान नहीं है और न ही संथाली बस्ती के भक्तगण। एकमात्र पटाई दादी अम्मा के कारण नहीं जा पाएंगे।”
“धत्त ! यह तुम कल्पना कर कह रही हो, लतू दी !"
कल्पना करते-करते ही आदमी दुनिया के तमाम रहस्यों का उद्घाटन करते हैं सागर। वह कविता तूने पढ़ी नहीं है: हजारों वर्ष बीत गए हैं, पर किसी ने नहीं बताई यह बात-भ्रमर मंडराते माधवी कुंज में, तरु को घेरे है लता।”
सागर सिर हिलाकर कहता है, “पढ़ चुका हूं।”
"फिर देखो, इतना जो गोयन मन का मिलन भुवन-भुवन में है, वह बात कब व्यक्त हुई पहले-पहल किसके समक्ष?"....कवि के सामने। कवियों के पास और संबल ही क्या है? सिवाय कल्पना के।''लेकिन मजे की बात है कि अपना चेहरा कोई देख नहीं पाता। वे सोचते हैं, अपने आदर्श के कारण वे यहां रुके हुए हैं। खेती-बारी, अनुगत भक्तगण, फूलझांटी के आकाश-वातास, पानी-मिट्टी सारा कुछ इतना अच्छा लगता है। आदमी यदि सचमुच ही किसी को प्यार कर सके तो उसे सब कुछ अच्छा लगता है, समझा? वरना तेरे अरुण नाना को गधे की तरह खटने पर भी अच्छा क्यों लगता है? बाजार की बोरियां उतारकर नीचे रखने के दौरान उनके चेहरे पर प्रकाश क्यों झिलमिला उठता है?”
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