नई पुस्तकें >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
मयूरेश्वर
त्रेता युग की बात है। मैथिल देश में प्रसिद्ध गंडकी नगर के सद्धर्म परायण नरेश चक्रपाणि के पुत्र सिंधु के क्रूरतम शासन से धराधाम पर धर्म की मर्यादा का अतिक्रमण हो रहा था। उसी समय भगवान गणेश ने 'मयूरेश्वर' के रूप में अवतार लेकर विविध लीलाएं कीं और महाबली सिंधु के अत्याचारों से त्रैलोक्य की रक्षा करते हुए विधाता के शाश्वत नियमों की पुनः प्रतिष्ठापना की।
अत्यंत शक्तिशाली सिंधु के दो सहस्र वर्ष की उग्र तपस्या से सहस्रांश बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे अभीष्ट वर के रूप में अमृत पात्र प्रदान करते हुए कहा, "जब तक यह अमृत पात्र तुम्हारे कंठ में रहेगा तब तक तुम्हें देवता, नाग, मनुष्य, पशु एवं पक्षी आदि कोई भी प्राणी दिन, रात, प्रातः तथा सायं किसी भी समय नहीं मार सकेगा।"
वर प्राप्त करके सिंधु अत्यंत मदोन्मत्त हो गया। वह अकारण ही सत्य धर्म के मार्ग पर चलने वाले लोगों तथा निरपराध नर-नारियों एवं अबोध शिशुओं की हत्या करने में गर्व का अनुभव करने लगा। संपूर्ण धरित्री रक्त-रंजित सी हो गई। इसके बाद उसने पाताल लोक में भी अपना आधिपत्य जमा लिया और ससैन्य स्वर्ग लोक पर चढ़ाई करके वहां शचिपति इंद्रादि देवताओं को पराभूत कर तथा विष्णु को बंदी बनाकर सर्वत्र हाहाकार मचा दिया।
ऐसे में देवताओं ने इस विकट कष्ट से मुक्ति पाने के लिए अपने गुरु बृहस्पति से निवेदन किया। सुरगुरु ने कहा, “परम प्रभु विनायक स्वल्प पूजा से शीघ्र प्रसन्न होने वाले हैं, अतः आप लोग असुर संहारक-दशभुज विनायक की प्रार्थना करें। ऐसा करने से वे करुणासिंधु अवतरित होकर असुरों का वध करके धरा का भार हल्का करेंगे और आप लोगों को अपहृत पद पुनः प्रदान करेंगे।" देवताओं ने भक्तिपूर्वक उनका स्तवन प्रारंभ कर दिया।
देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर परम प्रभु विनायक प्रकट हुए और बोल, "जिस प्रकार मैंने महामुनि कश्यप की परम साध्वी पत्नी अदिति के गर्भ में जन्म लिया था, उसी प्रकार अब शिवप्रिया माता पार्वती के यहां अवतरित कर महादैत्य सिंधु का वध करूंगा और आप सबको अपना-अपना पद प्रदान कराऊंगा। इस अवतार में मेरा नाम 'मयूरेश्वर' प्रसिद्ध होगा।" यह कहकर परम प्रभु विनायक अंतर्धान हो गए।
कुछ ही समय बाद भाद्रपद मास की शुक्लपक्षीय चतुर्थी तिथि आई। सभी ग्रह-नक्षत्र शुभस्थ एवं मंगलमय योग में विद्यमान थे। उसी समय विराट रूप में माता पार्वती के सम्मुख भगवान गणेश का अवतरण हुआ। इस रूप में प्रभु को देखकर चकित भगवती पार्वती ने कहा, “हे प्रभो! मुझे अपने पुत्र रूप का दर्शन कराइए।"
इतना सुनना था कि सर्वसमर्थ प्रभु तत्काल स्फटिक मणितुल्य षड्भुज दिव्य विग्रहधारी शिशु-रूप में क्रीड़ा करने लगे। उनकी देह की कांति अद्भुत लावण्ययुक्त एवं प्रभा संपन्न थी। उनका वक्षस्थल विशाल था। सभी अंग पूर्णतः शुभ चिह्नों से अलंकृत थे। दिव्य शोभा संपन्न यह विग्रह 'मयूरेश्वर' रूप में साक्षात प्रकट हुआ था। मयूरेश्वर के आविर्भाव मात्र से ही प्रकृति आनंद विभोर हो उठी। आकाशस्थ देवगण पुष्प-वर्षा करने लगे।
आविर्भाव के समय से ही सर्वविघ्नकारी शिवा-पुत्र की दिव्य लीलाएं प्रारंभ हो गई थीं। एक दिन की बात है-सब ऋषियों के अनन्यतम प्रीतिभाजन हेरंब क्रीड़ामग्न थे। सहसा गृध्ररूपधारी एक भयानक असुर ने उन्हें अपनी चोंच में पकड़ लिया और बहुत ऊंचे आकाश में उड़ गया। जब पार्वती ने अपने प्राणप्रिय बालक को आकाश में उस विशाल गृध्र के मुख में देखा तो सिर धुनधुनकर करुण विलाप करने लगीं। सर्वात्मा हेरंब ने माता की व्याकुलता देखकर मुष्टि-प्रहार मात्र से ही गृध्रासुर का वध कर दिया।
इसी तरह एक दिन माता पार्वती जब प्रभु को पालने में लिटाकर लोरी सुना रही थीं, तभी ‘क्षेम' और 'कुशल' नामक दो भयानक असुर वहां आकर उन्हें मारने का प्रयत्न करने लगे। पार्वती अभी कुछ समझ पातीं, उससे पहले ही
बालक ने अपने पदाघात से उन राक्षसों का हृदय विदीर्ण कर दिया। वे राक्षस रक्त-वमन करते हुए वहीं गिर पड़े। भगवान ने उन्हें मोक्ष प्रदान कर दिया।
इसी तरह मंगलमोद प्रभु गणेश ने लीला करते हुए असुर सिंधु द्वारा भेजे गए अनेक छल-छद्मधारी असुरों को सदा-सर्वदा के लिए मुक्त कर दिया। इस क्रम में उन्होंने दुष्ट बकासुर' तथा श्वानरूपधारी 'नूतन' नामक राक्षस का वध किया। उन्होंने अपने शरीर से असंख्य गणों को उत्पन्न कर ‘कमलासुर' की बारह अक्षौहिणी सेना का विनाश कर दिया तथा त्रिशूल से कमलासुर का मस्तक काट डाला। उसका मस्तक भीमा नदी के तट पर जा गिरा। देवताओं तथा ऋषियों की प्रार्थना पर गणेश जी वहां 'मयूरेश' नाम से प्रतिष्ठित हुए।
इधर जब दुष्ट सिंधु ने सभी देवताओं को बंदी बना लिया तो भगवान ने उस महादैत्य को ललकारा। भयंकर युद्ध हुआ। असुर सेना पराजित हुई। यह देख कुपित दैत्यराज अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से मयूरेश पर प्रहार करने लगा परंतु सर्वशक्तिमान के लिए शस्त्रास्त्रों का क्या महत्व! सभी प्रहार निष्फल हो गए। अंत में महादैत्य सिंधु मयूरेश के परशु-प्रहार से निश्चेष्ट हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसे मुक्ति प्राप्त हुई। देवगण मयूरेश की स्तुति करने लगे। भगवान मयूरेश ने सबको आनंदित कर सुख-शांति प्रदान की और अपने लीलावतरण के प्रयोजन की पूर्णता बताते हुए अंत में परम धाम को पधार गए।
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