नई पुस्तकें >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
महोत्कट
एक बार की बात है कि महर्षि कश्यप अग्निहोत्र कर चुके थे। सुगंधित यज्ञ-धूम आकाश में फैला हुआ था। इसी समय पुण्यमयी अदिति अपने पति महर्षि कश्यप के समीप पहुंचीं। परम तपस्वी पति के श्रीचरणों में प्रणाम कर उन्होंने निवेदन किया, "स्वामिन् ! इंद्रादि देवगणों को मैंने पुत्र रूप में प्राप्त किया है, किंतु पूर्ण परात्पर सच्चिदानंद परमात्मा मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हों-यह कामना मेरे मन में बार-बार उदित हो रही है। वे परम प्रभु किस कारण मेरे पुत्र होकर मुझे कृतकृत्य करेंगे, आप कृपापूर्वक बताने का कष्ट कीजिए।"
महर्षि कश्यप ने अपनी प्रिय पत्नी अदिति को विनायक का ध्यान, मंत्र और न्यास सहित पुरश्चरण की पूरी विधि विस्तारपूर्वक बताकर उन्हें कठोर तपस्या के लिए प्रोत्साहित किया। महाभागा अदिति अत्यंत प्रसन्न हुईं और पति की आज्ञा प्राप्त कर कठोर तप करने के लिए एकांत-शांत अरण्य में जा पहुंचीं। वहां वे विनायक के ध्यान और जप में तन्मय हो गईं।
भगवती अदिति की सुदृढ़ प्रीति एवं कठोर तप से कोटि-कोटि भवन भास्कर की प्रभा से भी अधिक परम तेजस्वी तथा कामदेव से भी अधिक सुंदर महोत्कट विनायक ने उनके सम्मुख प्रकट होकर कहा, “हे देवी! मैं तुम्हारे अत्यंत घोर तप से संतुष्ट होकर तुम्हें वर प्रदान करने के लिए आया हूं। तुम इच्छित वर मांगो। मैं तुम्हारी कामना अवश्य पूरी करूंगा।''
अदिति बोलीं, “हे प्रभो! आप जगत के स्रष्टा, पालक और संहारकर्ता हैं। आप सर्वेश्वर, नित्य, निरंजन, प्रकाश स्वरूप, निर्गुण, निरहंकार, नाना रूप धारण करने वाले और सर्वस्व प्रदान करने वाले हैं। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं। तो कृपापूर्वक मेरे पुत्र-रूप में प्रकट होकर मुझे कृतार्थ करें। आपके द्वारा दुष्टों का विनाश एवं साधु-परित्राण हो और सामान्य-जन कृतकृत्य हो जाएं।''
भगवान विनायक बोले, "देवी, मैं तुम्हारा पुत्र अवश्य होऊंगा। साधुजनों का रक्षण, दुष्टों का विनाश एवं तुम्हारी इच्छा की पूर्ति करूंगा।' इतना कहकर प्रभु विनायक अंतर्धान हो गए। देवमाता अदिति अपने आश्रम में लौटीं। उन्होंने अपने पति के चरणों में प्रणाम करके उन्हें संपूर्ण वृत्तांत सुनाया। यह सुनकर महर्षि कश्यप आनंदमग्न हो गए।
उधर देवांतक और नरांतक के कठोर-क्रूर शासन में समस्त देवता तथा ब्राह्मण अत्यंत भयाक्रांत होकर कष्ट पा रहे थे। वे अधीर और अशांत हो गए थे। तब ब्रह्मा जी के निर्देशानुसार दैत्यों के अत्याचार से पीड़ित-व्याकुल धरित्री सहित देवताओं और ऋषियों ने हाथ जोड़कर आदिदेव विनायक की स्तुति करते हुए कहा, "देव! संपूर्ण जगत हाहाकार से व्याप्त एवं स्वधा और स्वाहा से रहित हो गया है। हम सब पशुओं की तरह सुमेरु पर्वत की कंदराओं में रह रहे हैं। अतएव हे विश्वंभर! आप इन दैत्यों का विनाश करें।''
इस प्रकार करुण प्रार्थना करने पर पृथ्वी सहित देवताओं और ऋषियों ने एक आकाशवाणी सुनी, “आदिदेव गणेश महर्षि कश्यप के घर में अवतार लेंगे और अद्भुत कर्म करेंगे। वे ही आप लोगों को पूर्वपद भी प्रदान करेंगे। वे दुष्टों का संहार एवं साधुओं का पालन करेंगे।"
"देवी ! तुम धैर्य धारण करो।'' आकाशवाणी से आश्वस्त होकर पद्मयोनि ब्रह्मा ने मेदिनी से कहा, "सभी देवता पृथ्वी पर जाएंगे और नि:संदेह महाप्रभु विनायक अवतार ग्रहण कर तुम्हारा कष्ट निवारण करेंगे।' पृथ्वी, देवता तथा मुनिगण विधाता के वचन से प्रसन्न होकर अपने स्थानों को चले गए।
कुछ समय बाद कश्यप मुनि की पत्नी अदिति के समक्ष मंगलमयी वेला में अद्भुत, अलौकिक, परमतत्व प्रकट हुआ। वह अत्यंत बलवान था। उसकी दस भुजाएं थीं। कानों में कुंडल, ललाट पर कस्तूरी का तिलक और मस्तक पर मुकुट सुशोभित था। ऋद्धि-सिद्धि उसके साथ थीं। कंठ में रत्नों की माला थी। वक्ष पर चिंतामणि की अद्भुत सुषमा थी और अधरोष्ठ जपापुष्प तुल्य अरुण थे। नासिका ऊंची थी और सुंदर भृकुटि के संयोग से ललाट की आभा बढ़ गई थी। वह दांत से दीप्तिमान था। उसकी अपूर्व देहकांति अंधकार को नष्ट करने वाली थी। उस शुभ बालक ने दिव्य वस्त्र धारण कर रखा था।
महिमामयी अदिति उस अलौकिक सौंदर्य को देखकर चकित और आनंदविह्वल हो रही थीं। तभी उस परम तेजस्वी-अद्भुत बालक ने कहा, "हे माता ! तुम्हारी तपस्या के फलस्वरूप मैं तुम्हारे यहां पुत्र रूप में आया हूं। मैं दैत्यों का संहार करके साधु पुरुषों का हित एवं तुम्हारी कामनाओं की पूर्ति करूंगा।"
हर्ष-विह्वल माता अदिति ने विनायक देव से कहा, "आज मेरे अद्भुत पुण्य उदित हुए हैं जो साक्षात गजानन मेरे यहां अवतरित हुए। यह मेरा परम सौभाग्य है कि मैं चराचर में व्याप्त, निराकार, नित्यानंदमय, सत्यस्वरूप परब्रह्म परमेश्वर गजानन की मां बनी। किंतु अब आप इस अलौकिक एवं परम दिव्य स्वरूप का उपसंहार कर प्राकृत बालक की भांति क्रीड़ा करते हुए मुझे पुत्रसुख प्रदान करें।"
तत्क्षण अदिति के सम्मुख अत्यंत हृष्ट-पुष्ट, सशक्त बालक धरती पर तीव्र रुदन करने लगा। उसके रुदन की ध्वनि आकाश, पाताल और धरती पर दसों दिशाओं में व्याप्त हो गई। अद्भुत बालक के रुदन से धरती कांपने लगी, वंध्या स्त्रियां गर्भवती हो गईं और नीरस वृक्ष सरस हो गए। देव समुदाय सहित इंद्र आनंदित और दैत्यगण भयभीत हो गए।
महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के अंक में बालक आया जानकर ऋषिमुनि एवं ब्रह्मचारी आदि आश्रमवासी तथा देवगण सभी प्रसन्न थे। बालक के स्वरूप के अनुसार पिता कश्यप ने उसका नामकरण किया-'महोत्कट।'
ऋषिपुत्र महोत्कट के जन्म का समाचार सुनकर असुरों के मन में भय व्याप्त हो गया और वे उसे बाल्यकाल में ही मार डालने का प्रयत्न करने लगे। असुरराज देवांतक ने महोत्कट को मारने के लिए 'विरजा' नाम की एक राक्षसी को भेजा परंतु महोत्कट ने खेल-खेल में ही उसे परम धाम प्रदान कर दिया। इसके बाद 'उद्धव' और 'धुंधुर' नामक दो राक्षस शुक-रूप में कश्यप के आश्रम में पहुंचकर अपनी तीक्ष्ण चोंचों से मुनि कुमार 'महोत्कट' को मारने का प्रयास करने लगे। इस पर क्रुद्ध होकर विनायक ने क्षण भर में उन शुक-रूप राक्षसों को धरती पर पटककर मार डाला।
इसी प्रकार महोत्कट ने धूम्राक्ष, जूभा, अंधक, नरांतक तथा देवांतक आदि भयानक मायावी असुरों एवं आसुरी सेना का अनेक लीलाओं से संहार करके तीनों लोकों को आनंदित किया और विश्व की रक्षा की। भगवान महोत्कट के हाथों मृत्यु होने से इन असुरों को परमपद की प्राप्ति हुई। देवांतक से युद्ध में प्रभु विनायक द्विदंती से एकदंती हो गए और अपने एक रूप से 'ढुंढि विनायक' के नाम से काशी में प्रतिष्ठित हुए।
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