लोगों की राय

नई पुस्तकें >> हमारे पूज्य देवी-देवता

हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15402
आईएसबीएन :9788131010860

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

तारा

भगवती काली को ही नीलरूपा होने के कारण 'तारा' भी कहा गया है। वचनांतर से तारा नामक रहस्य यह भी है कि वे सर्वदा मोक्ष देने वाली अर्थात तारने वाली हैं, इसलिए इन्हें 'तारा' कहा जाता है। महाविद्याओं में ये द्वितीय स्थान पर परिगणित हैं। भगवती तारा अनायास ही वाशक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिए इन्हें 'नील सरस्वती' भी कहते हैं। वे भयंकर विपत्तियों से भक्तों की रक्षा करती हैं, इसलिए उग्रतारा हैं।

'बृहन्नील तंत्र' आदि ग्रंथों में भगवती तारा के स्वरूप की विशेष चर्चा है। हयग्रीव का वध करने के लिए इन्हें नील-विग्रह प्राप्त हुआ था। ये शवरूप शिव पर प्रत्यालीढ मुद्रा में आरूढ़ हैं। भगवती तारा नीलवर्ण वाली, नील कमलों के समान तीन नेत्रों वाली तथा हाथ में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग धारण करने वाली हैं। ये व्याघ्रचर्म से विभूषित तथा कंठ में मुंडमाला धारण करने वाली हैं। शत्रुनाश, वाक्-शक्ति की प्राप्ति तथा भोग-मोक्ष की प्राप्ति के लिए भगवती तारा अथवा उग्रतारा की साधना की जाती है।

भगवती तारा के तीन रूप हैं-तारा, एकजटा और नील सरस्वती। तीनों रूपों के रहस्य, कार्य-कलाप तथा ध्यान परस्पर भिन्न हैं किंतु सबकी शक्ति एक समान है। भगवती तारा की साधना-उपासना मुख्य रूप से तंत्रोक्त पद्धति से होती है जिसे 'आगमोक्त पद्धति' भी कहते हैं। इनकी उपासना से सामान्य व्यक्ति भी देवगुरु बृहस्पति के समान विद्वान हो जाता है।

भारत में सर्वप्रथम महर्षि वसिष्ठ ने भगवती तारा की आराधना की थी, इसलिए तारा को ‘वसिष्ठराधिका तारा' भी कहा जाता है। वसिष्ठ ने ही पहले भगवती तारा की आराधना वैदिक रीति से करनी आरंभ की जो सफल न हो सकी। फिर उन्हें अदृश्य शक्ति से संकेत मिला कि वे तांत्रिक पद्धति (जिसे ‘चिनाचारा' कहा जाता है) द्वारा तारा की उपासना करें। जब वसिष्ठ ने तांत्रिक पद्धति का आश्रय लिया तब उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई। यह कथा 'आचार तंत्र' में वसिष्ठ मुनि की आराधना उपाख्यान में वर्णित है। इससे सिद्ध होता है कि पहले चीन, तिब्बत, लद्दाख आदि में भगवती तारा की उपासना प्रचलित थी।

तारा का प्रादुर्भाव मेरु पर्वत के पश्चिम भाग में चोलना नामक नदी या चोलत सरोवर के तट पर हुआ था, जैसा कि 'स्वतंत्र तंत्र' में वर्णित है-

मेरोः पश्चिमकूले नु चोत्रताख्यो हृदो महान।
तत्र जज्ञे स्वयं तारा देवी नील सरस्वती॥

'महाकाल संहिता' ग्रंथ के काम-कालखंड में तारा का रहस्य वर्णित है जिसमें तारा रात्रि में तारा की उपासना का विशेष महत्व है। चैत्र शुक्ल नवमी की रात्रि 'तारा रात्रि' कहलाती है-

चैत्रे मासि नवम्यां तु शुक्लपक्षे तु भूषते।
क्रोधरात्रिर्महेशानि तारारूपा भविष्यति॥

बिहार के सहरसा जिले के प्रसिद्ध महिषी ग्राम में उग्रतारा का सिद्धपीठ विद्यमान है। वहां तारा, एकजटा तथा नील सरस्वती–तीनों की मूर्तियां एक साथ हैं। मध्य में बड़ी मूर्ति तथा दोनों तरफ छोटी मूर्तियां हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book