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शिवपुराण भाग-1

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :832
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 14
आईएसबीएन :0

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शिवपुराण सरल हिन्दी भाषा में पढ़ें


गृहस्थ पुरुष को चाहिये कि वह धन-धान्यादि सब वस्तुओं का दान करे। वह तृषानिवृत्ति के लिये जल तथा क्षुधारूपी रोग की शान्ति के लिये सदा अन्न का दान करे। खेत, धान्य, कच्चा अन्न तथा भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य - ये चार प्रकार के सिद्ध अन्न दान करने चाहिये। जिसके अन्न को खाकर मनुष्य जब तक कथा- श्रवण आदि सद्धर्म का पालन करता है उतने समय तक उसके किये हुए पुण्यफल का आधा भाग दाता को मिल जाता है - इसमें संशय नहीं है। दान लेनेवाला पुरुष दानमें प्राप्त हुई वस्तु का दान तथा तपस्या करके अपने प्रति ग्रहजनित पाप की शुद्धि कर ले। अन्यथा उसे रौरव नरक में गिरना पड़ता है। अपने धन के तीन भाग करे - एक भाग धर्म के लिये, दूसरा भाग वृद्धि के लिये तथा तीसरा भाग अपने उपभोग के लिये। नित्य, नैमित्तिक और काम्य - ये तीनों प्रकार के कर्म धर्मार्थ रखे हुए धन से करे। साधक को चाहिये कि वह वृद्धि के लिये रखे हुए धन से ऐसा व्यापार करे, जिससे उस धन की वृद्धि हो तथा उपभोग के लिये रक्षित धन से हितकारक, परिमित एवं पवित्र भोग भोगे। खेती से पैदा किये हुए धन का दसवाँ अंश दान कर दे। इससे पाप की शुद्धि होती है। शेष धन से धर्म, वृद्धि एवं उपभोग करे; अन्यथा वह रौरव नरक में पड़ता है अथवा उसकी बुद्धि पापपूर्ण हो जाती है या खेती ही चौपट हो जाती है। वृद्धि के लिये किये गये व्यापार में प्राप्त हुए धन का छठा भाग दान कर देने योग्य है। बुद्धिमान् पुरुष अवश्य उसका दान कर दे।

विद्वान्‌ को चाहिये कि वह दूसरों के दोषों का बखान न करे। ब्राह्मणो! दोषवश दूसरों के सुने या देखे हुए छिद्र को भी प्रकट न करे। विद्वान् पुरुष ऐसी बात न कहे, जो समस्त प्राणियों के हृदय में रोष पैदा करनेवाली हो। ऐश्वर्य की सिद्धि के लिये दोनों संध्याओं के समय अग्निहोत्रकर्म अवश्य करे। जो दोनों समय अग्निहोत्र करने में असमर्थ हो, वह एक ही समय सूर्य और अग्नि को विधिपूर्वक दी हुई आहुति से संतुष्ट करे। चावल, धान्य, घी, फल, कंद तथा हविष्य - इनके द्वारा विधिपूर्वक स्थालीपाक बनाये तथा यथोचित रीति से सूर्य और अग्नि को अर्पित करे। यदि हविष्य का अभाव हो तो प्रधान होममात्र करे। सदा सुरक्षित रहनेवाली अग्नि को विद्वान् पुरुष अजस्र की संज्ञा देते हैं। अथवा संध्याकाल में जपमात्र या सूर्य की वन्दनामात्र कर ले। आत्मज्ञान की इच्छावाले तथा धनार्थी पुरुषों को भी इस प्रकार विधिवत् उपासना करनी चाहिये। जो सदा ब्रह्मयज्ञ में तत्पर होते हैं, देवताओं की पूजा में लगे रहते हैं, नित्य अग्निपूजा एवं गुरुपूजा में अनुरक्त होते हैं तथा ब्राह्मणों को तृप्त किया करते हैं? वे सब लोग स्वर्गलोक- के भागी होते हैं।

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