ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-1 शिव पुराण भाग-1हनुमानप्रसाद पोद्दार
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शिवपुराण सरल हिन्दी भाषा में पढ़ें
इस विधि का पालन न किया जाय, इसके पूर्व ही यदि जल में भस्म गिर जाय तो गिरानेवाला नरक में जाता है। 'आपो हि ष्ठा०' इत्यादि मन्त्र से पाप-शान्ति के लिये सिर पर जल छिड़के तथा 'यस्य क्षयाय' इस मन्त्र को पढ़कर पैर पर जल छिड़के। इसे संधिप्रोक्षण कहते हैं। 'आपो हि ष्ठा०' इत्यादि मन्त्र में तीन ऋचाएँ हैं और प्रत्येक ऋचा में गायत्री मन्त्र के तीन-तीन चरण हैं। इनमें से प्रथम ऋचा के तीन चरणों का पाठ करते हुए क्रमश: पैर, मस्तक और हृदय में जल छिड़के। दूसरी ऋचा के तीन चरणों को पढ़कर क्रमश: मस्तक, हृदय और पैर में जल छिड़के तथा तीसरी ऋचा के तीन चरणों का पाठ करते हुए क्रमश: हृदय, पैर ओर मस्तक का जल से प्रोक्षण करे। इसे विद्वान् पुरुष 'मन्त्र-स्नान' मानते हैं। किसी अपवित्र वस्तु से किंचित् स्पर्श हो जाने पर, अपना स्वास्थ्य ठीक न रहने पर, राजा और राष्ट्र पर भय उपस्थित होने पर तथा यात्राकाल में जल की उपलब्धि न होने की विवशता आ जाने पर 'मन्त्र-स्नान' करना चाहिये। प्रातःकाल 'सूर्यश्च मा मन्युश्च' इत्यादि सूर्यानुवाक से तथा सायंकाल 'अग्निश्च मा मन्युश्च' इत्यादि अग्नि-सम्बन्धी अनुवाक से जल का आचमन करके पुन: जल से अपने अंगों का प्रोक्षण करे। मध्याह्नकाल में भी 'आपः पुनन्तु' इस मन्त्र से आचमन करके पूर्ववत् प्रोक्षण या मार्जन करना चाहिये। प्रातःकाल की संध्योपासना में गायत्री-मन्त्र का जप करके तीन बार ऊपर की ओर सूर्यदेव को अर्ध्य देने चाहिये। ब्राह्मणो! मध्याह्न काल में गायत्री मन्त्र के उच्चारणपूर्वक सूर्य को एक ही अर्ध्य देना चाहिये। फिर सायंकाल आने पर पश्चिम की ओर मुख करके बैठ जाय और पृथ्वी पर ही सूर्य के लिये अर्ध्य दे (ऊपरकी ओर नहीं)। प्रातःकाल और मध्याह्न के समय अंजलि में अर्ध्यजल लेकर अंगुलियों की ओर से सूर्यदेव के लिये अर्ध्य दे। फिर अंगुलियों के छिद्रसे ढलते हुए सूर्य को देखे तथा उनके लिये स्वत: प्रदक्षिणा करके शुद्ध आचमन करे। सायंकाल में सूर्यास्त से दो घड़ी पहले की हुई संध्या निष्फल होती है, क्योंकि वह सायं संध्या का समय नहीं है। ठीक समय पर संध्या करनी चाहिये, ऐसी शास्त्र की आज्ञा है। यदि संध्योपासना किये बिना दिन बीत जाय तो प्रत्येक समय के लिये क्रमश: प्रायश्चित्त करना चाहिये। यदि एक दिन बीते तो प्रत्येक बीते हुए संध्याकाल के लिये नित्य-नियम के अतिरिक्त सौ गायत्री मन्त्र का अधिक जप करे। यदि नित्यकर्म के लुप्त हुए दस दिन से अधिक बीत जाय तो उसके प्रायश्चित्त रूप में एक लाख गायत्री का जप करना चाहिये। यदि एक मासतक नित्यकर्म छूट जाय तो पुन: अपना उपनयन संस्कार कराये।
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