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यात्रा की मस्ती

मस्तराम मस्त

प्रकाशक : श्रंगार पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :50
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 1217
आईएसबीएन :1234567890

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मस्तराम को पता चलता है कि यात्रा में भी मस्ती हो सकती है।


कम से कम 5, या हो सकता है कि, 10 से भी अधिक सेकेण्ड लगे हों मुझे यह समझने में, कि इस लड़की को कहीं देखा है, फिर अंत में उस चेहरे और उस चेहरे की मेरे दिमाग में पहचान, दोनों की मुलाकात हो ही गई। यह लड़की तो आज सुबह तक परीक्षा कक्ष में पिछले चार दिनों से दिखाई दे रही थी। वह बाथरूम का दरवाजा खोले अब भी वैसे ही खड़ी थी, जब मेरी और उसकी निगाहें आपस में टकराकर आपस में चिपक गईं।

उसने दरवाजा और खोल दिया जैसे अंदर बुला रही हो। मैं समझ नहीं पाया कि क्या वाकई यह लड़की ऐसा कोई इशारा कर रही है, या चलती रेल में और रात की खुमारी में मुझे भ्रम हो रहा है! थोड़ी देर हम दोनों अपनी-अपनी जगह वैसे ही खड़े रहे। फिर वह बाथरूम के अंदर जाने की बजाय बाहर निकल आयी और धीमी आवाज में मुझसे बोली, "मेरी सीट आपके सामने ही है।" इतना कहकर वह वापस डिब्बे के अंदर चली गई।

मैं पत्थर का बुत बना हुआ थोड़ी देर तक वहीं पर खड़ा रहा और यह समझने की कोशिश करता रहा कि यह क्या कह कर गई है!

ताज्जुब करता हुआ अपनी बर्थ के पास पहुँचा तो विजय को पहले की तरह ही गहरी नींद में पाया। आस-पास नजर डाली तो पाया कि हर तरफ सन्नाटा छाया था, सभी यात्री गहरी नींद में सो रहे थे। विजय की सीट पर तो बाहर की रोशनी कभी-कभी आ जाती थी, परंतु लम्बी वाली सीटों पर तो बिलकुल ही अंधेरा छाया हुआ था। मैंने आँखे फाड़-फाड़कर ध्यान से देखने की कोशिश की, परंतु वह किस बर्थ पर थी, यह समझ नहीं सका।

मैंने सोचा कहीं उससे कोई गलती तो नहीं हुई थी, और वह हमारे अगल या बगल वाले कूपे में तो नहीं थी। कुछ देर तक जब कुछ भी नहीं समझ आया तो धीरे-से बिना अधिक आवाज किए मैं अपनी बर्थ पर चढ़कर वहीं बैठा रहा और स्थिति समझने की कोशिश करने लगा। थोड़ी देर के लिए मुझे लगा कि वह लड़की हमारे डिब्बे में थी भी या सब कुछ मैने खुद ही सोच लिया था।

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