गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण शिवपुराणहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
जो सत्य, अहिंसा आदि धर्मों से युक्त हो भगवान् शिव के पूजन में तत्पर रहते हैं, वे कालचक्र को पार कर जाते हैं। काल-चक्रेश्वर की सीमा तक जो विराट् महेश्वर लोक बताया गया है, उससे ऊपर वृषभ के आकार में धर्म की स्थिति है। वह ब्रह्मचर्य का मूर्तिमान् रूप हैं। उसके सत्य, शौच, अहिंसा और दया - ये चार पाद हैं। वह साक्षात् शिवलोक के द्वार पर खड़ा है। क्षमा उसके सींग हैं, शम कान हैं, वह वेदध्वनिरूपी शब्द से विभूषित है। आस्तिकता उसके दोनों नेत्र हैं, विश्वास ही उसकी श्रेष्ठ बुद्धि एवं मन है। क्रिया आदि धर्मरूपी जो वृषभ हैं, वे कारण आदि में स्थित हैं - ऐसा जानना चाहिये। उस क्रियारूप वृषभाकार धर्म पर कालातीत शिव आरूढ़ होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की जो अपनी-अपनी आयु है उसी को दिन कहते हैं। जहाँ धर्मरूपी वृषभ की स्थिति है, उससे ऊपर न दिन है न रात्रि। वहाँ जन्म-मरण आदि भी नहीं हैं। वहाँ फिर से कारणस्वरूप ब्रह्मा के कारण सत्यलोक पर्यन्त चौदह लोक स्थित हैं, जो पांचभौतिक गन्ध आदि से परे हैं। उनकी सनातन स्थिति है। सूक्ष्म गन्ध ही उनका स्वरूप है। उनसे ऊपर फिर कारणरूप विष्णु के चौदह लोक स्थित हैं। उनसे भी ऊपर फिर कारणरूपी रुद्र के अट्ठाईस लोकों की स्थिति मानी गयी है। फिर उनसे भी ऊपर कारणेश शिव के छप्पन लोक विद्यमान हैं। तदनन्तर शिवसम्मत ब्रह्मचर्यलोक है और वहीं पाँच आवरणों से युक्त ज्ञानमय कैलास है, जहाँ पाँच मण्डलों, पाँच ब्रह्मकलाओं और आदिशक्ति से संयुक्त आदिलिंग प्रतिष्ठित है। उसे परमात्मा शिव का शिवालय कहा गया है। वहीं पराशक्ति से युक्त परमेश्वर शिव निवास करते हैं। वे सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह - इन पाँचों कृत्यों में प्रवीण हैं। उनका श्रीविग्रह सच्चिदानन्दस्वरूप है। वे सदा ध्यानरूपी धर्म में ही स्थित रहते हैं और सदा सबपर अनुग्रह किया करते हैं। वे स्वात्माराम हैं और समाधिरूपी आसन पर आसीन हो नित्य विराजमान होते हैं। कर्म एवं ध्यान आदि का अनुष्ठान करने से क्रमश: साधनपथ में आगे बढ़ने पर उनका दर्शन साध्य होता है। नित्य-नैमित्तिक आदि कर्मों द्वारा देवताओं का यजन करने से भगवान् शिव के समाराधन-कर्म में मन लगता है। क्रिया आदि जो शिवसम्बन्धी कर्म हैं, उनके द्वारा शिवज्ञान सिद्ध करे।
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