गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण शिवपुराणहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
२. षडध्व-शोधन का कार्य हौत्री दीक्षा के अन्तर्गत है। उसमें पहले कुण्ड में या वेदी पर अग्निस्थापन होता है। वहाँ षडध्वा का शोधन करके होम से ही दीक्षा सम्पन्न होती है। विस्तार-भय से अधिक विवरण नहीं दिया जा रहा है।
क्रिया, तप और जप के योग से शिव-योगी तीन प्रकार के होते हैं - जो क्रमश: क्रियायोगी, तपोयोगी और जपयोगी कहलाते हैं। जो धन आदि वैभवों से पूजा- सामग्री का संचय करके हाथ आदि अंगों से नमस्कारादि क्रिया करते हुए इष्टदेव की पूजा में लगा रहता है वह 'क्रियायोगी' कहलाता है। पूजा में संलग्न रहकर जो परिमित भोजन करता, बाह्य इन्द्रियों को जीतकर वश में किये रहता और मन को भी वश में करके परद्रोह आदि से दूर रहता है, वह 'तपोयोगी' कहलाता है। इन सभी सद्गुणों से युक्त होकर जो सदा शुद्धभाव से रहता तथा समस्त काम आदि दोषों से रहित हो शान्तचित्त से निरन्तर जप किया करता है, उसे महात्मा पुरुष 'जपयोगी' मानते हैं। जो मनुष्य सोलह प्रकार के उपचारों से शिवयोगी महात्माओं की पूजा करता है वह शुद्ध होकर सालोक्य आदि के क्रम से उत्तरोत्तर उत्कृष्ट मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
द्विजो! अब मैं जपयोग का वर्णन करता हूँ। तुम सब लोग ध्यान देकर सुनो। तपस्या करनेवाले के लिये जप का उपदेश किया गया है; क्योंकि वह जप करते-करते अपने-आप को सर्वथा शुद्ध (निष्पाप) कर लेता है। ब्राह्मणो! पहले 'नमः' पद हो, उसके बाद चतुर्थी विभक्तिमें 'शिव' शब्द हो तो पंचतत्त्वात्मक 'नमः शिवाय' मन्त्र होता है। इसे 'शिव-पंचाक्षर' कहते हैं। यह स्थूल प्रणवरूप है। इस पंचाक्षर के जप से ही मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। पंचाक्षर मन्त्र के आदि में ओंकार लगाकर ही सदा उसका जप करना चाहिये।
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