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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय १७

षडलिंगस्वरूप प्रणव का माहात्म्य, उसके सूक्ष्म रूप (ॐकार) और स्थूल रूप (पंचाक्षरमन्त्र) का विवेचन, उसके जप की विधि एवं महिमा, कार्यब्रह्म के लोकों से लेकर कारणरुद्र के लोकों तक का विवेचन करके कालातीत, पंचावरण विशिष्ट शिवलोक के अनिर्वचनीय वैभव का निरूपण तथा शिवभक्तों के सत्कार की महत्ता

ऋषि बोले- प्रभो! महामुने! आप हमारे लिये क्रमश: षड् लिंगस्वरूप प्रणव का माहात्म्य तथा शिवभक्त के पूजन का प्रकार बताइये।

सूतजीने कहा- महर्षियो! आपलोग तपस्या के धनी हैं, आपने यह बड़ा सुन्दर प्रश्न उपस्थित किया है। किंतु इसका ठीक-ठीक उत्तर महादेवजी ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं। तथापि भगवान् शिव की कृपा से ही मैं इस विषय का वर्णन करूँगा। वे भगवान् शिव हमारी और आपलोगों की रक्षा का भारी भार बारंबार स्वयं ही ग्रहण करें। 'प्र' नाम है प्रकृति से उत्पन्न संसाररूपी महासागरका। प्रणव इससे पार करनेके लिये दूसरी (नव) नाव है। इसलिये इस ओंकारको 'प्रणव' की संज्ञा देते हैं। उकार अपने जप करनेवाले साधकों से कहता है- 'प्र-प्रपंच, न- नहीं है, व-तुमलोगों के लिये।' अत: इस भाव को लेकर भी ज्ञानी पुरुष 'ॐ' को  'प्रणव' नाम से जानते हैं। इसका दूसरा भाव यों है- 'प्र-प्रकर्षेण, न-नयेत्र, व- युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणव। अर्थात् यह तुम सब उपासकों को बलपूर्वक मोक्ष तक पहुँचा देगा।' इस अभिप्राय से भी इसे ऋषि-मुनि 'प्रणव' कहते हैं। अपना जप करनेवाले योगियों के तथा अपने मन्त्र की पूजा करनेवाले उपासक के समस्त कर्मों का नाश करके यह दिव्य नूतन ज्ञान देता है; इसलिये भी इसका नाम प्रणव [प्र (कर्मक्षयपूर्वक) नव (नूतन ज्ञान देनेवाला)] है। उन मायारहित महेश्वर को ही नव अर्थात् नूतन कहते हैं। वे परमात्मा प्रकृष्टरूप से नव अर्थात् शुद्धस्वरूप हैं इसलिये 'प्रणव' कहलाते हैं। प्रणव साधक को नव अर्थात् नवीन (शिवस्वरूप) कर देता है। इसलिये भी विद्वान् पुरुष उसे प्रणव के नामसे जानते हैं। अथवा प्रकृष्टरूप से नव- दिव्य परमात्मज्ञान प्रकट करता है, इसलिये वह प्रणव है।

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