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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


रुद्रलोक प्रदान करनेवाले बहुत-से क्षेत्र हैं। ताम्रपर्णी और वेगवती - ये दोनों नदियाँ ब्रह्मलोक की प्राप्तिरूप फल देनेवाली हैं। इन दोनों के तट पर कितने ही स्वर्गदायक क्षेत्र हैं। इन दोनों के मध्य में बहुत-से पुण्यप्रद क्षेत्र हैं। वहाँ निवास करनेवाला विद्वान् पुरुष वैसे फल का भागी होता है। सदाचार, उत्तम वृत्ति तथा सद्भावना के साथ मन में दयाभाव रखते हुए विद्वान् पुरुष को तीर्थ में निवास करना चाहिये। अन्यथा उसका फल नहीं मिलता। पुण्यक्षेत्र में किया हुआ थोडा-सा पुण्य भी अनेक प्रकार से वृद्धि को प्राप्त होता है तथा वहाँ किया हुआ छोटा- सा पाप भी महान् हो जाता है। यदि पुण्यक्षेत्र में रहकर ही जीवन बिताने का निश्चय हो तो उस पुण्यसंकल्प से उसका पहले का सारा पाप तत्काल नष्ट हो जायगा; क्योंकि पुण्य को ऐश्वर्यदायक कहा गया है। ब्राह्मणो! तीर्थवासजनित पुण्य कायिक, वाचिक और मानसिक सारे पापोंका नाश कर देता है। तीर्थ में किया हुआ मानसिक पाप वत्रलेप हो जाता है। वह कई कल्पों तक पीछा नहीं छोड़ता है।

पुण्यक्षेत्रे  कृतं  पुण्यं बहुधा ऋद्धिमृच्छति।
पुण्यक्षेत्रे  कृतं  पापं  महदण्वपि  जायते।।

तत्कालं जीवनार्थं चेत् पुण्येन क्षयमेष्यति।
पुण्यमैश्वर्यदं प्राहुः कायिक वाचिक तथा।।

मानसं च तथा पापं तादृशं नाशयेद् द्विजाः।
मानसं  वज़लेपं  तु  कल्पकल्पानुगं  तथा।।

(शिवपुराण विद्येश्वर सं० १३।३६-३८)


वैसा पाप केवल ध्यान से ही नष्ट होता है, अन्यथा नहीं। वाचिक पाप जप से तथा कायिक पाप शरीर को सुखाने-जैसे कठोर तप से नष्ट होता है; अत: सुख चाहनेवाले पुरुष को देवताओं की पूजा करते और ब्राह्मणों को दान देते हुए पाप से बचकर ही तीर्थ में निवास करना चाहिये।

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