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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय १०

 

पाँच कृत्यों का प्रतिपादन, प्रणव एवं पंचाक्षर-मन्त्र की महत्ता, ब्रह्मा-विष्णु द्वारा भगवान् शिव की स्तुति तथा उनका अन्तर्धान

ब्रह्मा और विष्णु ने पूछा- प्रभो! सृष्टि आदि पाँच कृत्यों के लक्षण क्या हैं, यह हम दोनों को बताइये।

भगवान् शिव बोले- मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यन्त गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें उनके विषय में बता रहा हूँ। ब्रह्मा और अच्युत! 'सृष्टि', 'पालन',  'संहार', 'तिरोभाव' और 'अनुग्रह' - ये पाँच ही मेरे जगत्-सम्बन्धी कार्य हैं, जो नित्यसिद्ध हैं। संसार की रचना का जो आरम्भ है उसी को सर्ग या 'सृष्टि' कहते हैं। मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिर रूप से रहना ही उसकी 'स्थिति' है। उसका विनाश ही 'संहार' है। प्राणों के उत्कमण को 'तिरोभाव' कहते हैं। इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा 'अनुग्रह' है। इस प्रकार मेरे पाँच कृत्य हैं। सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करनेवाले हैं। पाँचवाँ कृत्य अनुग्रह मोक्ष का हेतु है। वह सदा मुझमें ही अचलभाव से स्थिर रहता है। मेरे भक्तजन इन पाँचों कृत्यों को पाँचों भूतों में देखते हैं। सृष्टि भूतलमें, स्थिति जलमें, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है। पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती है। जल से सबकी वृद्धि एवं जीवन- रक्षा होती है। आग सबको जला देती है। वायु सबको एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहीत करता है। विद्वान् पुरुषों को यह विषय इसी रूप में जानना चाहिये। इन पाँच कृत्यों का भारवहन करने के लिये ही मेरे पाँच मुख हैं। चार दिशाओं में चार मुख हैं और इनके बीच में पाँचवाँ मुख है। पुत्रो! तुम दोनों ने तपस्या करके प्रसन्न हुए मुझ परमेश्वर से सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किये हैं। ये दोनों तुम्हें बहुत प्रिय हैं। इसी प्रकार मेरी विभूति स्वरूप 'रुद्र' और 'महेश्वर' में दो अन्य उत्तम कृत्य- संहार और तिरोभाव मुझसे प्राप्त किये हैं। परंतु अनुग्रह नामक कृत्य दूसरा कोई नहीं पा सकता। रुद्र और महेश्वर अपने कर्म को भूले नहीं हैं। इसलिये मैंने उनके लिये अपनी समानता प्रदान की है। वे रूप, वेष, कृत्य, वाहन, आसन और आयुध आदि में मेरे समान ही हैं। मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मन्त्र का उपदेश किया है जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध है। वह महामंगलकारी मन्त्र है। सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार () प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूप का बोध करानेवाला है। ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ। यह मन्त्र मेरा स्वरूप ही है। प्रतिदिन ओंकार का निरन्तर स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है।

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