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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


वहाँ पर मैं लिंगरूप से प्रकट होकर बहुत बड़ा हो गया था। अत: उस लिंग के कारण यह भूतल 'लिंगस्थान' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जगत् के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सकें, इसके लिये यह अनादि और अनन्त ज्योति:स्तम्भ अथवा ज्योतिर्मय लिंग अत्यन्त छोटा हो जायगा। यह लिंग सब प्रकार के भोग सुलभ कराने वाला तथा भोग और मोक्ष का एकमात्र साधन है। इसका दर्शन, स्पर्श और ध्यान किया जाय तो यह प्राणियों को जन्म और मुत्यु के कष्ट से छुड़ाने वाला है। अग्नि के पहाड़-जैसा जो यह शिवलिंग यहाँ प्रकट हुआ है, इसके कारण यह स्थान 'अरुणाचल' नाम से प्रसिद्ध होगा। यहाँ अनेक प्रकार के बड़े-बड़े तीर्थ प्रकट होंगे। इस स्थान में निवास करने या मरने से जीवों का मोक्ष तक हो जायगा।

मेरे दो रूप हैं- 'सकल' और 'निष्कल'। दूसरे किसी के ऐसे रूप नहीं हैं। पहले मैं स्तम्भरूप से प्रकट हुआ; फिर अपने साक्षात्-रूप से। 'ब्रह्मभाव' मेरा 'निष्कल' रूप है और 'महेश्वरभाव' 'सकल' रूप। ये दोनों मेरे ही सिद्धरूप हैं। मैं ही परब्रह्म परमात्मा हूँ। कलायुक्त और अकल मेरे ही स्वरूप हैं। ब्रह्मरूप होने के कारण मैं ईश्वर भी हूँ। जीवों पर अनुग्रह आदि करना मेरा कार्य है। ब्रह्मा और केशव! मैं सबसे बृहत् और जगत् की वृद्धि करनेवाला होने के कारण  'ब्रह्म' कहलाता हूँ। सर्वत्र समरूप से स्थित और व्यापक होने से मैं ही सबका आत्मा हूँ। सर्ग से लेकर अनुग्रह तक (आत्मा या ईश्वर से भिन्न) जो जगत्-सम्बन्धी पाँच कृत्य हैं, वे सदा मेरे ही हैं मेरे अतिरिक्त दूसरे किसी के नहीं हैं; क्योंकि मैं ही सबका ईश्वर हूँ। पहले मेरी ब्रह्मरूपता का बोध कराने के लिये 'निष्कल' लिंग प्रकट हुआ था। फिर अज्ञात ईश्वरत्व का साक्षात्कार कराने के निमित्त मैं साक्षात् जगदीश्वर ही  'सकल' रूप में तत्काल प्रकट हो गया। अत: मुझमें जो ईशत्व है, उसे ही मेरा सकल रूप जानना चाहिये तथा जो यह मेरा निष्कल स्तम्भ है, वह मेरे ब्रह्मस्वरूप का बोध करानेवाला है। यह मेरा ही लिंग  (चिह्न) है। तुम दोनों प्रतिदिन यहाँ रहकर इसका पूजन करो। यह मेरा ही स्वरूप है और मेरे सामीप्य की प्राप्ति करानेवाला है। लिंग और लिंगी में नित्य अभेद होने के कारण मेरे इस लिंग का महान् पुरुषों को भी पूजन करना चाहिये। मेरे एक लिंग की स्थापना करने का यह फल बताया गया है कि उपासक को मेरी समानता की प्राप्ति हो जाती है। यदि एक के बाद दूसरे शिव- लिंग की भी स्थापना कर दी गयी, तब तो उपासक को फलरूप से मेरे साथ एकत्व  (सायुज्य मोक्ष) रूप फल प्राप्त होता है। प्रधानतया शिवलिंग की ही स्थापना करनी चाहिये। मूर्ति की स्थापना उसकी अपेक्षा गौण कर्म है। शिवलिंग के अभाव में सब ओर से सवेर (मूर्तियुक्त ) होनेपर भी वह स्थान क्षेत्र नहीं कहलाता।

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