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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


सनत्कुमार बोले - भगवन्! शिव से भिन्न जो देवता हैं, उन सबकी पूजा के लिये सर्वत्र प्राय: वेर (मूर्ति) मात्र ही अधिक संख्या में देखा और सुना जाता है। केवल भगवान् शिव की ही पूजा में लिंग और वेर दोनों का उपयोग देखने में आता है। अत: कल्याणमय नन्दिकेश्वर! इस विषय में जो तत्त्व की बात हो, उसे मुझे इस प्रकार बताइये, जिससे अच्छी तरह समझ में आ जाय।

नन्दिकेश्वर ने कहा- निष्पाप ब्रह्मकुमार! आपके इस प्रश्न का हम-जैसे लोगों के द्वारा कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता; क्योंकि यह गोपनीय विषय है और लिंग साक्षात् ब्रह्म का प्रतीक है तथापि आप शिवभक्त हैं, इसलिये इस विषय में भगवान् शिव ने जो कुछ बताया है उसे ही आपके समक्ष कहता हूँ। भगवान् शिव ब्रह्मस्वरूप और निष्कल (निराकार) हैं; इसलिये उन्हीं की पूजा में निष्कल लिंग का उपयोग होता है। सम्पूर्ण वेदों का यही मत है।

सनत्कुमार बोले- महाभाग योगीन्द्र! आपने भगवान् शिव तथा दूसरे देवताओं के पूजन में लिंग और वेर के प्रचार का जो रहस्य विभागपूर्वक बताया है वह यथार्थ है। इसलिये लिंग और वेर की आदि उत्पत्ति का जो उत्तम वृत्तान्त है उसी को मैं इस समय सुनना चाहता हूँ। लिंग के प्राकट्य का रहस्य सूचित करनेवाला प्रसंग मुझे सुनाइये। इसके उत्तर में नन्दिकेश्वर ने भगवान् महादेव के निष्कल स्वरूप लिंग के आविर्भाव का प्रसंग सुनाना आरम्भ किया। उन्होंने ब्रह्मा तथा विष्णु के विवाद, देवताओं की व्याकुलता एवं चिन्ता, देवताओं का दिव्य कैलास-शिखर पर गमन, उनके द्वारा चन्द्रशेखर महादेव का स्तवन, देवताओं से प्रेरित हुए महादेवजी का ब्रह्मा और विष्णुके, विवाद-स्थल में आगमन तथा दोनों के बीच में निष्कल आदि- अन्त रहित भीषण अग्निस्तम्भ के रूप में उनका आविर्भाव आदि प्रसंगों की कथा कही। तदनन्तर श्रीब्रह्मा और विष्णु दोनों के द्वारा उस ज्योतिर्मय स्तम्भ की ऊँचाई और गहराई का थाह लेने की चेष्टा एवं केतकी पुष्प के शाप-वरदान आदि के प्रसंग भी सुनाये।

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