गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण शिवपुराणहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
शिवपद की प्राप्ति ही साध्य है। उनकी सेवा ही साधन है तथा उनके प्रसाद से जो नित्य-नैमित्तिक आदि फलों की ओर से निःस्पृह होता है, वही साधक है। वेदोक्त कर्म का अनुष्ठान करके उसके महान् फल को भगवान् शिव के चरणों में समर्पित कर देना ही परमेश्वरपद की प्राप्ति है। वही सालोक्य आदि के क्रम से प्राप्त होनेवाली मुक्ति है। उन-उन पुरुषों की भक्ति के अनुसार उन सबको उत्कृष्ट फल की प्राप्ति होती है। उस भक्ति के साधन अनेक प्रकार के हैं, जिनका साक्षात् महेश्वर ने ही प्रतिपादन किया है। उनमें से सारभूत साधन को संक्षिप्त करके मैं बता रहा हूँ। कान से भगवान् के नाम-गुण और लीलाओं का श्रवण, वाणी द्वारा उनका कीर्तन तथा मन के द्वारा उनका मनन - इन तीनों को महान् साधन कहा गया है।
श्रोत्रेण श्रवण तस्य वचसा कीर्तनं तथा
मनसा मनन तस्य महासाधनमुच्चते।
तात्पर्य यह कि महेश्वर का श्रवण, कीर्तन और मनन करना चाहिये - यह श्रुति का वाक्य हम सबके लिये प्रमाणभूत है। इसी साधन से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि में लगे हुए आपलोग परम साध्य को प्राप्त हों। लोग प्रत्यक्ष वस्तु को आँख से देखकर उसमें प्रवृत्त होते हैं। परंतु जिस वस्तु का कहीं भी प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता, उसे श्रवणेन्द्रिय द्वारा जान-सुनकर मनुष्य उसकी प्राप्ति के लिये चेष्टा करता है। अत: पहला साधन श्रवण ही है। उसके द्वारा गुरु के मुख से तत्त्व को सुनकर श्रेष्ठ बुद्धिवाला विद्वान्-पुरुष अन्य साधन-कीर्तन एवं मनन की सिद्धि करे। क्रमश: मनन पर्यन्त इस साधन की अच्छी तरह साधना कर लेने पर उसके द्वारा सालोक्य आदि के कम से धीरे-धीरे भगवान् शिव का संयोग प्राप्त होता है। पहले सारे अंगों के रोग नष्ट हो जाते हैं। फिर सब प्रकार का लौकिक आनन्द भी विलीन हो जाता है। भगवान् शंकर की पूजा, उनके नामों के जप तथा उनके गुण, रूप, विलास और नामों का युक्तिपरायण चित्त के द्वारा जो निरन्तर परिशोधन या चिन्तन होता है उसी को मनन कहा गया है; वह महेश्वर की कृपादृष्टि से उपलब्ध होता है। उसे समस्त श्रेष्ठ साधनों में प्रधान या प्रमुख कहा गया है।
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