इतिहास और राजनीति >> शेरशाह सूरी शेरशाह सूरीसुधीर निगम
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अपनी वीरता, अदम्य साहस के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा जमाने वाले इस राष्ट्रीय चरित्र की कहानी, पढ़िए-शब्द संख्या 12 हजार...
शेरशाह का रुझान, अलाउद्दीन खिलजी की तरह, मापन की प्रथा की ओर था। वह इसका विस्तार चाहता था, अतः उसने सर्वेक्षण कार्य प्रारंभ कराया। दुर्भाग्य से उसका शासन-काल इतना छोटा था कि सर्वेक्षण पूरा नहीं हो पाया। फिर भी उसका महत्वपूर्ण योगदान ‘राई’ या निर्धारण के लिए फसल दरों की सूची का लागू किया जाना था। फसल दर तैयार करने का तरीका बडा सरल था। पैदावार की किस्म के आधार पर दोनों मौसमों की सभी प्रकार की मुख्य-मुख्य फसलों की ,एक बीघा अच्छी, मझोली और खराब भूमि के पैदावार के आंकडों को प्रति बीघा औसत पैदावार को गणना के लिए एकत्र किया जाता और जो औसत निकलता उसका तीसरा हिस्सा कर के रूप में देय होता। अकबर ने दस वर्षों का औसत निकालकर नकद लगान देने की पद्धति चलाई। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि शेरशाह के शासन का भाग एक तिहाई के स्थान पर एक चैथाई था। अकबर ने, जिसने शेरशाह की ‘राई’ व्यवस्था अपना ली थी, लगान की दर एक तिहाई कर दी।
भू-राजस्व अनाज के रूप में लिया जाता था किंतु उसे बाजार की दरों पर बेंचकर नकदी में भी बदला जा सकता था। कृषक भी अनाज के स्थान पर नकद भुगतान कर सकता था। राज्य भी इसे प्रोत्साहित करता था। कृषक को ‘जरीबाना’ (सर्वेक्षण शुल्क) और ‘मुहासिलान’ (कर संग्रह शुल्क) चुकाने पड़ते थे जिनकी दरें क्रमशः 2.5 और 5.00 प्रतिशत थीं। शेरशाह ने व्यवस्था कर रखी थी कि प्रत्येक भू-धारी और राजस्व-दाता फसल का 2.5 प्रतिशत अनाज के रूप में सार्वजनिक कोषागार में जमा करवाए ताकि वह अनाज दुर्घटनाओं या अकाल निवारण हेतु प्रयुक्त हो सके। इसे आधुनिक बीमा का पूर्व रूप भी कह सकते हैं।
शेरशाह किसानों को पट्टे बांटता था जिसमें भूमि की किस्म और अलग-अलग फसलों के लिए लगान की दरें दी हुई होती थीं। किसान कबूलियत (लिखित वचन) लिखता था जिसमें राज्य की मालगुजारी की मांग के अनुसार राशि अदा करने का वादा किया जाता था।
शेरशाह ने भूमि सुधार को प्रोत्साहन दिया। सूखा या अकाल पडने की दशा में लगान में छूट या माफी दी। संकट के समय या कुएं खुदवाने के लिए किसानों को धन उधार दिया तथा कृषि उत्पादन की वृद्धि के लिए (नहरी) सिंचाई की व्यवस्था लागू की।
शेरशाहकालीन राजस्व प्रशासन की व्यवस्था उसके पूर्ववर्ती तुर्कों से मिलती-जुलती थी। यही प्रथा लोदियों के काल में अपनाई गयी थी। शेरशाह का एक मात्र लक्ष्य था कि वह शासन में प्राणों का संचार कर उसे शक्ति प्रदान करें और उसमें दक्षता लाए। इस लक्ष्य की पूर्ति में उसे एक सीमा तक सफलता भी मिली। नियति ने उसे इतना समय नहीं दिया कि सरकारी वर्ग में फैले भ्रष्टाचार को वह समूल नष्ट कर पाता।
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