लोगों की राय

नई पुस्तकें >> लेख-आलेख

लेख-आलेख

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10544
आईएसबीएन :9781613016374

Like this Hindi book 0

समसामयिक विषयों पर सुधीर निगम के लेख


प्रजातंत्र में सरकार के पास लोगों को हांकने के लिए भिन्न-भिन्न लाठियां हो गईं । आम जनता के लिए कानून रूपी अलग लाठी, सरकारी अमले के लिए और पार्टीजनों के लिए अनुशासनरूपी भिन्न लाठी और सहयोगी दलों कें लिए सर्वथा पृथक लाठी। सरकार की लाठी ईश्वर की लाठी की तरह बेआवाज़ होती है परंतु ईश्वरीय लाठी के विपरीत यह न्याय का दंभ नहीं करती वरन् विरोधी के घड़े को भरने से पहले ही फोड़ देती है फिर उसमें चाहे पाप हों या न हों।

जमींदारों के काल में लाठी खूब फली-फूली। जमींदार के सुरक्षाकर्मी लठैत हुआ करते थे। लाठी चलाने की कला में निष्णात व्यक्ति को लठैत कहते हैं। एक लठैत आठ-दस नौसिखिया लाठीधारियों को लठिया सकता था यानी लाठी मार कर परास्त कर सकता था। लगान वसूलने, दूसरे की भूमि पर कब्जा करने, दुश्मनी निकालने, कन्याओं का अपहरण करने, गरीबों को बेघर करने जैसे सारे काम जमींदार के लिए लाठी के बल पर लठैत करते थे। शांतिकाल में लठैत अपनी लाठियों को तेल पिलाया करते थे। उसी काल में लाठी चालन एक कला के रूप में भी विकसित हुआ। मेलों और त्यौहारों आदि में इस कला का प्रदर्शन किया जाता था। दक्षिण भारत में पर्वों पर लाठीकला का प्रदर्शन आज भी होता है। बिहार में एक दल द्वारा ´लाठी रैली´ आयोजित की गई।

लाठी का बड़ा भाई लट्ठ होता है। वैसे तो जमीन नापने के काम आने वाला बांस का साढ़े पांच हाथ का टुकड़ा लट्ठ कहलाता है। ´लट्ठ´ में कटुता, धृष्टता और अनम्यता का भाव निहित होता है। इसी कारण कटु बोली को ´लट्ठमार बोली´ और धृष्टतापूर्वक लाठी बरसाते हुए खेली जाने वाली मथुरा की होली को ´लट्ठमार होली´ कहते हैं। अनम्यता के भाव के कारण अपेक्षाकृत कड़े कपड़े को भी ´लट्ठा´ कहा जाता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book